
कल सीबीएसई का दसवीं का रिजल्ट आया, इससे पहले सीबीएसई का ही 12वीं का और यूपी बोर्ड की भी दोनों कक्षाओं का रिजल्ट आ चुका है। सीबीएसई में जहां बच्चों ने टॉपर होने के सारे रिकॉर्ड्स को धराशायी किया वहीं यूपी बोर्ड ने भी ऐसे ही रिकॉर्ड बनाए। यानि कदम दर कदम , इन दोनों ही बोर्ड परीक्षाओं में अंतर सिर्फ इतना रहा कि यूपी बोर्ड के लिए एनरोल होने वाले लाखों बच्चों ने ”नकल न कर पाने” की प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना समय जाया नहीं किया और परीक्षा ही छोड़ दी। शेष रहे बच्चों ने अपनी अपनी मानसिक काबिलियत को ”स्कोरिंग” बना कर बता दिया।बोर्ड रिजल्ट के बाद टॉपर्स की तस्वीरों से भरे अखबार और इन अखबारों में मोटे चश्मों से झांकते तथा माता-पिता की आकांक्षा के बोझ तले इंटरव्यू देते जा रहे बच्चों ने अभी सिर्फ 10वीं-12वीं की परीक्षाएं ही पास की हैं लेकिन इनसे कहलवाया जा रहा है कि वो ”क्या-क्या” बनेंगे।
इन टॉपर्स के अदना से मन पर आपदा की तरह गिराई जा रही यह स्थिति सहन नहीं हो रही क्योंकि ये ही वो स्थिति है जो बच्चों को समय से पहले प्रौढ़ बना रही है।आप भी देखिए अखबार उठाकर कि क्या किसी बच्चे के चेहरे पर टॉपर बनने की आत्मसंतुष्टि, शांति है। या कितने हैं जो स्वस्थ दिखाई दे रहे हैं। हर चेहरा चिंतातुर है कि अब आगे क्या?
प्रिंट मीडिया कुछ अधिक ही बौरा गया है और उसके कई-कई पन्नों में सिर्फ टॉपर ही छाए हुए हैं। ज़रा सोचकर देखिए कि उन बच्चों के मन पर क्या गुजर रही होगी जो किसी भी कारणवश टॉप नहीं कर पाए, मां बाप तो उनके भी आकांक्षी रहे होंगे, उन बच्चों के मन में आ रहा होगा कि वे ऊंचे ओहदे पर पहुंचें।ये मीडिया का कसाईपन टॉप न कर पाए बच्चों का जो मानसिक शोषण कर रहा है, उस पर सोचने का यही वक्त है। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के ज़माने में जब हम टेक्नीकली, सोशली इतने एक्टिव हैं कि एक क्लिक पर लोगों के मन, घर और जीवन में क्या क्या चल रहा है, ये जान सकते हैं तो इन बच्चों का मन क्यों नहीं पढ़ पा रहे।
सच पूछा जाए तो आज के ये टॉपर बच्चे अधिक दया के पात्र हैं क्योंकि जाने अनजाने इनके मन पर ”आकांक्षाओं का इतना बोझ” लादा जा रहा है कि वो उसी को पूरा करने की उधेड़बुन में लगे हैं। टापर बनने की खुशी महसूस करने से पहले उन्हें ये चिंता सताने लगी है कि अब आकांक्षाओं से कैसे जूझा जाए। उन्हें इस गर्त में से तो उनके माता पिता भी नहीं उबारने वाले क्योंकि ये देन उन्हीं की है।बहरहाल टॉप आने वाले बच्चे, टॉप कराने वाले स्कूल-संस्थान एक ऐसे चक्रव्यूह को रच रहे हैं जिसके बीच ”नेचुरल इंटेलीजेंस, नेचुरल क्यूरिओसिटी और नेचुरल बिहेवियर” शायद ही कभी पनप पाए।बच्चों के ऊपर लदा यही वो बोझ है जो गत कई वर्षों से कोचिंग सेंटर्स भुना रहे हैं। याद आते हैं वो चेहरे जो कोटा (राजस्थान) के कोचिंग हब में अपने जीवन को खत्म करने पर बाध्य हुए क्योंकि उनके मन में भी कुछ ऐसा ही चल रहा होगा। टॉप आने का खेल मेधा को चाट रहा है। स्कूल, कोचिंग संस्थान और ट्यूशन तो खैर बाजार हैं, कम से कम हम तो अपने बच्चों को बाजार की कमोडिटी ना बनाएं। मेधा जीवन की थाती बने ना कि शोषक। निश्चित ही इंसान बने रहने के लिए ये एकमात्र आवश्यकता है, बाकी तो नई पीढ़ी स्वयं अपना रास्ता खोज ही लेगी।