बाघों के इलाके में पर्यटन

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संदर्भ- सुप्रीम कोर्ट का बाघों के कोर एरिया में पर्यटकों के प्रतिबंध संबंधी आदेश।

प्रमोद भार्गव

सर्वोच्च न्यायालय की रोक के चलते अब सैलानी राष्ट्र्रीय उद्योगों और अभयारण्यों में स्थित बाधों के प्राकृतिक आवास स्थलों के निकट नहीं धूम सकेंगे। न्यायालय ने सभी राज्यों को बाघ्यकारी आदेश देते हुए कहा है कि बाघों के भीतर क्षेत्र ;कोर एरियाद्ध को 10 किलोमीटर के दायरे तक अधिसूचित किया जाए और यह क्षेत्र पूरी तरह पर्यटकों के लिए प्रतिबंधित रहे। यह आदेश न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार और इब्राहिम खलीफुल्लाह की खंडपीठ ने वन्यजीवन संरक्षण अधिनियम 1972 की धारा 38 ;बीद्ध के तहत दिया।

पीठ ने यह आदेश बाघों के संरक्षण के लिए प्रयासरत अजय दुबे की ‘प्रयत्न’ संस्था की ओर से दाखिल जनहित याचिका पर सुनाया। यचिका में दलील दी थी कि बाघ के आवास, आहार और प्रजनन जैसे क्रियाकलापों से अंदरुनी क्षेत्रों में पर्यटन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि मानव हलचल से बाघ के स्वाभाविक जीवन पर विपरीत असर पड़ता है और उनका प्रजनन प्रभावित होता है। मुख्य रुप से यह याचिका पन्ना और मध्यप्रदेश के अन्य बाघ संरक्षित क्षेत्रों में पर्यटन पर रोक की दृष्टि से उच्च न्यायालय जबलपुर में लगाई गई थी, लेकिन पर्यटन से प्रदेश में हो रहे राजस्व लाभ को धयान में रखते हुए न्यायालय ने इसे अस्वीकार कर दिया था। हालांकि शीर्षस्थ न्यायालय के आदेश के बाद विरोध के स्वर भी उभरना शुरु हो गए हैं। प्रदेश का प्रमुख हिल स्टेशन पचमढ़ी एक दिन के लिए न केवल बंद रहा बल्कि नागरिकों ने लामबंद होकर रैली निकाली। स्थानीय लोगों का मानना है कि इस प्रतिबंध से पचमढ़ी में बेरोजगारी बढ़ेगी और वे रोजी-रोटी के लिए मोहताज हो जाएंगे।

सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद यह उम्मीद जगी है कि देश के उद्यान व अभयारण्य यदि अंदरुनी क्षेत्रों का सीमाकंन कर देते हैं तो बाघ और तेंदुए जैसे दुर्लभ प्राणियों की संख्या में वृद्धि होगी। दरअसल बाघ संरक्षित क्षेत्रों के दायरे में आने वाला यह अंदरुनी वनखण्ड वह क्षेत्र होता है, जहां बाघ चहल-कदमी करता है। आहार के लिए शिकार करता है। जोड़ा बनाता है और फिर इसी प्रांत की किसी सुरक्षित खोह में आराम फरमाता है। यह क्षेत्र 10 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में हो सकता है। न्यायालय ने इसे ही बाघों का अंदरुनी इलाका मानते हुए, इसे अधिसूचित करने के साथ, इस क्षेत्र को पर्यटन के लिए प्रतिबंधित किया है।

दरअसल अभी तक हमारे यहां उद्यानों और अभयारण्यों को लेकर विरोधाभासी व पक्षपाती रवैया अपनाया जाता रहा है। इस नजरिये से उन व वनवासियों को तो वन व वन्यप्राणियों के संरक्षण के बहाने लगातार विस्थापित किया जाता रहा, जबकि जिनके जीवन का आधार जंगल ही रहे हैं। किंतु दूसरी तरफ पर्यटन को बढ़ावा देने तथा उसे नवधनाढ्यों के लिए सुविधा संपन्न बनाने की दृष्टि से राज्य सरकारें होटल, मोटल, रिजाॅर्ट और मनोरंजन पार्क बनाने की खुली छूट देती रहीं। यदि उद्यानों में तालाब हैं तो उनमें नौका विहार की खुली छूटें दी गई हैं। इस छूट के चलते बाघ संरक्षित जिन क्षेत्रों से ग्राम और वनवासियों को बेदखल किया गया था, उन क्षेत्रों में देखते पर्यटन सुविधाओं के जंगल उगा दिए गए। अकेले मध्यप्रदेश की ही बात करें तो बाघ दर्शन के प्रेमी सैलानियों से ही सालाना 400 करोड़ रुपये का पर्यटन उद्योग संचालित है। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 2010 – 11 में केवल छह बाघ संरक्षित उद्यानों में 12 लाख देशी और एक लाख विदेशी सैलानी घूमने आए। इनमें भोपाल का वन विहार भी शामिल है। जहां दुर्लभ सफेद शेर सैलानी देखने आते हैं। इस उद्योग से राज्य सरकार को शुद्ध मुनाफा 15.41 करोड़ का हुआ।

इन बाघ अभयारण्यों में आदिवासियों को उजाड़कर किस तरह होटल व लाॅजों की श्रृंखला खड़ी की गई है, इसकी फेहरिश्त इस तरह है। कान्हा राष्टीय उद्यान में 60 होटल, रिजाॅर्ट व लाॅज हैं। बांधवगढ़ में 40, पन्ना में 4, पेंच में 30, सतपुड़ा राष्टीय उद्यान पचमढ़ी 200 रिजाॅर्ट और करीब 50 होटल हैं। अकेला संजय गांधी राष्टीय उद्यान ऐसा अपवाद है, जिसमें पर्यटकों को ठहराने के लिए कोई सुविधा नहीं है।

हालांकि वनक्षेत्रों में व्यापारिक गतिविधियों के संचालन के विरुद्ध बाकायदा कानून हैं। बावजूद पर्यटन को बढ़ावा देने की दृष्टि से पर्यटन कारोबारियों को लगातार प्रोत्साहित किया जाता रहा है। यही नहीं राज्य सरकारें अपने चहेतों को लाभ पहंुचाने की दृष्टि से भू-उपयोग संबंधी नियमों को बदलकर खनन और कारोबार की इजाजत देती रही हैं। जाहिर है सरकारों को बाघ और विस्थापित वनवासियों की बजाए पर्यटन और उससे होने वाली आय की चिंता ज्यादा रहती है। ऐसी ही गतिचिधियों की ओट में शिकारी अपना जाल आसानी से जंगल के अंदरुनी इलाकों में फैला लेते हैं और वन्य जीवों का शिकार आसानी से कर लेते हैं। रणथंभौर, सारिस्का, कान्हा, बांधवगढ़ और पन्ना में ऐसे ही हालातों के चलते बाघ का शिकार आसान हुआ और इनकी संख्या घटी।

हालांकि बाघों की संख्या घटने के लिए केवल पर्यटन उद्योग को दोषी ठहराना गलत है। खनन और राजमार्ग विकास परियोजनाओं भी बाघों की वंश वृद्वि पर अंकुश लगाने का कारण बनी हैं। बहुराष्टीय कंपनियों को प्राकृतिक संपदा के दोहन की छूट जिस तरह से दी जा रही है, उसी अनुपात में बाघों के प्राकृतिक आवास भी सिकुड़ रहे हैं। ऐसी ही वजहों से बाघ यदाकदा रिहाइशी इलाकों में दाखिल होकर हल्ला बोल देते हैं। खनन और राजमार्ग परियोजना के बाबत, जितने ग्राम और वनवासियों को उजाड़ा गया है, उससे चार गुना ज्यादा नई मानव बसाहटें बाघ व वन आरक्षित क्षेत्रों में बढ़ी है। पन्ना में हीरा खनन परियोजना, कान्हा में बाॅक्साइट, राजाजी और शिवपुरी में राष्टीय राजमार्ग, तड़ोबा में कोयला खनन और उत्तर प्रदेश, हिमाचल व उत्तराखण्ड के तराई वन क्षेत्रों में इमारती लकड़ी व दवा माफिया बाघों के लिए जबरदस्त संकट बने हुए हैं।

इसके बावजूद खनिज परियोजनाओं के विरुद्ध बुलंदी से न तो राजनीतिज्ञों की ओर से आवाज उठ रही है और न ही वन अमले की तरफ से ? हां, इसके उलट सर्वोच्च न्यायालय का आदेश जारी होने के बाद पचमढ़ी से जरुर इस आदेश के विरुद्ध आवाज मुखर हुई है, चह भी पर्यटन लाॅबी की ओर से। दरअसल पचमढ़ी में यदि यह आदेश अमल में लाया जाता है तो 200 होटल तो नेस्तनाबूद होंगे ही, 42 ग्रामों को भी विस्थापित किया जाएगा। इसलिए मध्यप्रदेश सरकार की ओर से शीर्षस्थ न्यायालय में अर्जी लगाई है कि पचमढ़ी को कोर एरिया से बाहर किया जाए। जाहिर है राज्य सरकारों को बाघ संरक्षण से ज्यादा पर्यटन उद्योग और उससे जुड़े कारोबारियों की चिंता है।

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