हिन्दू काफिरों के रक्त रञ्जित इतिहास की त्रासद कथा : द कश्मीर फाईल्स

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

फ्लैश बैक में चलती हुई कहानी जब संस्मरणात्मक किस्सागोई के माध्यम से इतिहास के क्रूर भयावह खंदकों में धीरे-धीरे उतरती जाती है तो इतिहास चीत्कार करता हुआ हम सबके समक्ष प्रकट होने लगता है। आँखों में क्रोध व आँसुओं के सिवाय कुछ भी नजर नहीं आता है।
काश्मीर फाईल्स के अभिनय की धुरी में पुस्करनाथ के तौर पर अनुपम खेर,कृष्णा पंडित के रुप में दर्शन कुमार, ब्रम्हदत्त रुप में मिथुन चक्रवर्ती सरकारी आईएएस अधिकारी, डीजीपी हरिनारायण के तौर पर पुनीत इस्सर के, प्रोफेसर ए.एनयू(जे.एन.यू) राधिका मेनन के तौर पर पल्लवी जोशी, पत्रकार विष्णु राम के तौर पर अतुल श्रीवास्तव व डॉक्टर महेश कुमार के तौर पर प्रकाश बेलावाडी तथा आतंकी कमांडर ; बिट्टा के तौर पर चिन्मय माण्डलेकर ने अपने किरदारों की भूमिका के तौर पर पूरी फिल्म को बाँधे रखा है।

इस फिल्म में सन् 1989 – 1990 के दौरान काश्मीरी हिन्दुओं की वीभत्स मारकाट व उन्हें काश्मीर छोड़कर जाने के लिए विवश करने की त्रासदी पूर्ण कथा है। वी.पी.सिंह सरकार में केन्द्रीय गृहमन्त्री रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद, काश्मीर के तत्कालीन मुख्यमन्त्री फारुख अब्दुल्ला की सत्ता के संरक्षण में किस प्रकार से राजनीति ने खुलेआम काश्मीर हिन्दुओं का कत्लेआम मचा दिया। फारुक के इस्तीफा देने के बाद राज्यपाल शासन में कैसे आँखें बन्द करके हिन्दुओं का नरसंहार त्रासदी बन गया। और पूरा देश अनभिज्ञ बना रहा। सत्ता व मीडिया सिर्फ खानापूर्ति करता रह गया। हिन्दुओं के नरसंहार को रचने वाले खुलेआम घूमते रहे। और आतंकियों को पनाह देकर काश्मीर को नर्क में तब्दील कर दिया।

मस्जिदों से अल जिहाद के फतवों के बीच हिन्दुओं के बीच – धर्मान्तरित होने, मृत्यु व महिलाओं के बिना काश्मीर छोड़कर जाने के निर्विकल्पों की त्रासदी है। इस फिल्म ने भाईचारे की तकरीरों के नंगे सच को पर्दे पर इस तरह उतार दिया है कि आँखों से खून उतर आए।काश्मीर में उस समय कैसे हिन्दुओं का नरसंहार हो रहा था और मुफ्ती मोहम्मद सईद,फारुख अब्दुल्ला सहित तमाम मुस्लिम नेता अपने संरक्षण में हिन्दुओं के नरसंहार की पटकथा रच रहे थे,यह उस वीभत्स दौर की गाथा है। इस फिल्म ने बताया है कि जब भी इस्लामिक तलवारें उठी हैं तब उन्होंने – गैर मुस्लिमों को सिर्फ काफिर करार दिया है और उन काफिरों की हत्या, लूटपाट, महिलाओं के साथ बलात्कार,लूटपाट व मतान्तरण प्रमुख उद्देश्य रहा है।

कैसे सारे खुफिया इनपुट्स के बावजूद सरकार आँख मूँदे रही आई, काश्मीर की सच्ची खबरों को कैसे मीडिया सेंसर करके वहाँ की हकीकत को छुपाता रहा। कैसे वहाँ के डाक्टरों को सिर्फ आतंकियों का इलाज करने के लिए विवश किया गया। कैसे एक हिन्दू शिक्षक पुस्करनाथ
पढ़ाया हुआ विद्यार्थी बिट्टा जब आतंकवादी बन जाता है तो वह – सबकुछ भूलकर हिन्दुओं के नरसंहार में लग जाता है। कैसे वह पुस्करनाथ के बेटे को गोलियों से भून देता है और उसकी पत्नी (शारदा) व पिता (पुस्करनाथ) को उसके खून से सने चावल खिलाता है। कैसे वह खुलेआम शारदा पण्डित को अपनी पत्नी बनाने की धमकी देता है। काश्मीर में आतंकवाद कैसे सर चढ़कर बोल रहा था कि – पुलिस आतंकियों की कठपुतली बनी हुई थी। वायुसेना के अधिकारियों, बच्चों को खुलेआम भून दिया जाता है।

आतंकी कैसे काश्मीर में खड़े होकर उसे पाकिस्तान बनाने का दम्भ भरते हैं। काश्मीरी हिन्दुओं के पड़ोसियों के रुप में रहने वाले सारे मुसलमान कैसे चुप हो जाते हैं? और इतना ही नहीं सारे मुसलमान पड़ोसी ही हिन्दुओं के घर जलाने, लूटपाट, बलात्कार करने के लिए अमादा हो जाते हैं। यह सबकुछ पर्दे में उतरता चला जाता है। औपचारिकता के नाम पर बनाए गए शरणार्थी कैम्प में कैसे भोजन पानी,इलाज के अभाव में हिन्दू घुट;घुटकर मरने को विवश होते हैं,और सरकार आँख मूँदकर बैठी रहती है। कैसे आर्मी की यूनिफॉर्म पहनकर आए आतंकियों ने मौलवी के इशारे पर एक बेटे (शिवा पण्डित) के सामने उसकी माँ ( शारदा पण्डित) को भरी भीड़ में निर्वस्त्र कर दिया और उसे आरा मशीन में चीरकर दो टुकड़े कर दिया।आतंकी कमांडर बिट्टा जिसे कभी पुस्करनाथ ने पढ़ाया था वह सब इस प्रकार की क्रूरता करता रहा। अपने शिक्षक के परिवार को वीभत्स मौत के घाट उतारने,शिक्षक को बन्दूकों से मारने। और कैसे सभी काश्मीरी पण्डितों को एक लाईन में खड़े कर उन्हें गोलियों से भून डाला। और कैसे मौलवी ने हिन्दू महिला के ऊपर थूकते हुए उसकी मौत का इस्लामी फरमान सुनाया।

काश्मीर में सन् 1989 -1990 के बीच काश्मीर में इस्लामिक जिहाद का नारा बुलन्द करते हुए आतंकियों ने यह सब ठीक वैसे ही किया जैसा इसके पूर्व का इस्लामिक तलवारों का खौफनाक रक्तरंजित इतिहास रहा है। पन्ने दर पन्ने पलटती कहानियाँ इतिहास के उस काले-क्रूर दर्दनाक सच से दर्शकों को जोड़ती हैं जिसे इतिहास की किसी किताब,कहानी या फिल्म में आजतक नहीं बताया गया।

सिलसिलेवार ढँग से चलती कहानी में कैसे राधिका मेनन के तौर पर वामपंथी – इस्लामिक गठजोड़ की प्रोफेसर ने ए.एन.यू(जे.एन .यू.) में आजादी के नारों के साथ ब्रेनवॉस्ड विद्यार्थियों का जमावड़ा बना लिया। कैसे एक यूनवर्सिटी को देशद्रोह के अड्डे में बदल लिया। और भारत विरोधी होकर के – ‘नरेटिव’ की लड़ाई लड़ने में लगी रहीं। और इतना ही नहीं प्रेसीडेंट इलेक्शन के नाम पर अपने नैरेटिव चलाने के लिए उस कृष्णा पण्डित को चुना जिसके पिता को आतंकी बिट्टा ने गोलियों से भूनकर उसके दादा पुस्करनाथ व उसकी माँ शारदा पण्डित को खून से सने चावल खाने के लिए विवश कर दिया था। और बाद में उसकी माँ शारदा पण्डित को निर्वस्त्र कर आरा मशीन में दो टुकड़े कर दिया। अन्य
सभी काश्मीरी पण्डितों सहित उसके बड़े भाई शिवा पण्डित को गोलियों से भून डाला। कैसे वामपंथी गैंग – आजादी के मतलब बदल देते हैं। वे कैसे संघवाद ,मनुवाद के नाम पर देश के विभाजन के लिए रुपरेखा तैयार करने लगते हैं,सबकुछ इस फिल्म में दिखाया जाता है।

अनेकानेक अन्तर्द्वन्दों में उलझे हुए कृष्णा पण्डित को जब उसके दादा पुस्करनाथ के मरने के बाद उनकी अन्तिम इच्छा पूरी करने वह काश्मीर जाता है – तब उसे पुस्करनाथ के सभी साथियों – ब्रम्हदत्त (आईएएस अधिकारी), हरिनारायण(डीआईजी), विष्णु राम(पत्रकार), डॉक्टर – महेश कुमार से सच का पता चलता है। काश्मीर में ही धारा-370 की समाप्ति के बाद वामपंथी इस्लामिक गठजोड़ वाली प्रोफेसर राधिका मेनन के आतंकी बिट्टा से सम्बन्धों व बिट्टा को शान्ति का मसीहा सिध्द करने वाली मुलाकात भी काफी रोचक व देश विभाजकारी शक्तियों के सारे षड्यन्त्रों से पर्दा उठा देती है। प्रो. राधिका मेनन की मीठी चासनी वाला जहर इतना प्रभावकारी होता है कि – काश्मीर सिर्फ मुसलमानों व उसकी आजादी यानि भारत से आजादी के नारों में ही सिमट जाता है। उसका कृष्णा पण्डित से यह कहना – ‘ सरकार भले उनकी सिस्टम तो हमारा है’ वामपंथी-इस्लामिक गठजोड़ का वह काला सच है जिससे पूरा देश अभिशप्त है। वामपंथ कैसे इस्लाम की ढाल बनकर खड़ा होता है। कैसे मीडिया व तथाकथित बुध्दिजीवी वर्ग देशद्रोह में खुलेआम लगा रहता है,इस फिल्म ने धीरे-धीरे सारे मुखौटे नोंच दिए हैं। नरेटिव के लिए देश को आग में झोंकने के लिए तैयार बैठे ‘अर्बन व बौध्दिक नक्सलियों’ के दरिन्दगी भरे असल चेहरों को इस फिल्म ने सबके सामने खींचकर ला दिया है।

द काश्मीर फाईल्स में भारत व हिन्दुओं के दुर्भाग्य की ऐसी झाँकी चित्रित की गई है,यदि केवल उससे ही सबक ले लिया जाए तो भारत के भविष्य को बचाया जा सकता है।.फिल्म के अन्तिम में सत्य का ज्ञान होने पर अभिनेता दर्शन कुमार (कृष्णा पण्डित) का ए.एन.यू ( जे.एन.यू) में दिया गया भाषण इतिहास की असल सच्चाई बताता है। और भारत विरोधी – हिन्दू विरोधी एजेण्डों की बखियाँ उधेड़ता हुआ – सत्य का शंखनाद करते हुए भारत से काश्मीरी हिन्दुओं के लिए न्याय का यक्ष प्रश्न खड़ा करता है।

काश्मीर में जो कुछ घटित हुआ वह सब स्वतन्त्र भारत में घटित हुआ है। लेकिन मजाल क्या कि किसी को दु:ख दर्द से कोई वास्ता रहा हो। काश्मीर में जो हुआ वह सब उसी इस्लामिक खूनी तलवारों की पुनरावृत्ति है जिसने मध्यकाल के इतिहास में अपनी बर्बरता की सारी सीमाएँ लाँघ दी। यह मोपला नरसंहार, बंगाल के डायरेक्ट एक्शन डे, भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से आने वाली ट्रेनों में लदी हुई हिन्दुओं की लाशों की मूक चीत्कार की भयावहता के खूनी मंजर की पुनरावृत्ति थी। वह भी इसलिए हुआ क्योंकि अतीत की उस इस्लामिक बर्बरता से सबक नहीं लिया गया।बल्कि इस्लामिक दरिन्दों आक्रांताओं को इतिहास में महान शासक के तौर पर दर्ज कर पढ़ाया जाता रहा है और यह क्रम अब भी जारी है। इस फिल्म की कहानी ने भारत के मर्म व जनमानस के अन्दर इस क्रूर सच को पर्दे में दिखाने की हिम्मत की है जिसे छुपाने के षड्यन्त्र
वर्षों से किए जाते रहे हैं। जनसांख्यिकी असन्तुलन की स्थिति में किस प्रकार की त्रासदी निर्मित होती ,उसे इस फिल्म में बेहद सलीके से दिखाया गया है।

भारत के भाग्य की नियति पर विवेक रंजन अग्निहोत्री ने ‘ द काश्मीर फाईल्स’ के रुप में ऐसी फिल्म बनाने का दुस्साहस किया है,जिसे प्रत्येक भारतीय को अनिवार्य तौर पर देखना चाहिए ताकि भारत को बचाया जा सके। अनेकानेक सेंसरशिप, कम स्क्रीन मिलने के बावजूद भी जिस प्रकार से इस फिल्म ने भारतीय जनमानस के दिलों में जगह बनाई है,वह विवेक अग्निहोत्री के दुस्साहस का प्रतिफल है। द काश्मीर फाईल्स केवल फिल्म नहीं है बल्कि – भारत के इतिहास-वर्तमान-भविष्य का ऐसा आईना व दस्तावेज बन चुकी है,जिसे प्रत्येक भारतीय व हिन्दुओं के नरसंहारों की त्रासदी देखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य ही देखना चाहिए। यह फिल्म सबक है कि जो इतिहास से सबक नहीं लेते उनका क्या हश्र होता है।

छद्म सेकुलरिज्म व भारत विभाजनकारी शक्तियों के सारे मिथ्यालाप प्रलापों व काश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार के पन्नों को बहुत कम समय में समेटते हुए भी यह फिल्म क्रूर इतिहास के सच को लाने व सारे मुखौटों को नोंचकर उनकी असलियत दिखाने में सफल होती है।जहाँ तक इस फिल्म के रिलीज होने के पहले धार्मिक भावनाओं के आहत होने व सौहार्द बिगड़ने का दावा करने वालों की बात है,तब उन सौहार्द प्रेमियों को भी यह फिल्म इसलिए देखनी चाहिए ताकि असलियत से साक्षात्कार कर चुल्लू भर पानी में डूब मरें। असल काश्मीरियत क्या थी इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। यह फिल्म आईना है जिसकी हिम्मत हो वे इस फिल्म से नजर मिला लें। यह फिल्म भारत के भविष्य के लिए चेतावनी है कि चेत जाइए और भारत को बचा लीजिए। वर्ना देश भर में तुष्टिकरण व जहर भरी मीठी चासनी से परोसे गए इतिहास ने किस प्रकार से अतीत में बर्बरता दिखलाई है,उसके छुटपुट उदाहरण देश भर के विभिन्न दंगों में दिखाई देने के साथ ही। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में ‘यह मकान बिकाऊ है’ के रुप में स्पष्ट दिख रहे हैं। शुतुरमुर्ग की भाँति रेत में सिर छिपाने से काम नहीं चलता है!!

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

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