विविधा

पारदर्शिता के लिए क्रांति का दौर

प्रमोद भार्गव

देशव्यापी असंतोष ने यह तय कर दिया है कि देश एक और करबट लेने को आकुल है। लिहाजा न केवल राजनीति, प्रशासन, न्यायपालिका, रक्षा,स्वयंसेवी संगठन बल्कि कारोबारी और पत्रकार घरानों से भी यह अपेक्षा की जा रही है, कि वे उस चौहद्दी को पारदर्शी बनाएं जो भ्रष्टाचार और आय के स्त्रोत्रों को गोपनीय बनाए रखने का काम कर रही है। हालांकि इस हकीकत को भांप तो तमाम नेता रहे हैं, लेकिन वे इसे नकारने में ज्यादा उर्जा खफा रहे हैं, जिससे उनके चेहरे का नकाब न उतरने पाए। अलबत्ता रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी के साहस को जरुर दाद देनी होगी कि उन्होंने देश की नब्ज पर हाथ रखा और धारा के विपरीत चल रहे जनांदोलनों को पारदर्शिता क्रांति की संज्ञा दी। इस क्रांति के दबाव के चलते ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने सभी मंत्रियों से अपनी संपत्ति और कारोबारी हितों को सार्वजनिक करने की अपील के साथ अपनी संपत्ति का भी खुलासा कर एक आदर्श स्थिति पेश की। दिग्विजय सिंह ने भी अपना प्रचलित सुर बदलते हुए प्रधानमंत्री, न्यायपालिका, स्वैछिक संगठन और औद्योगिक घरानों को लोकपाल के दायरे में लाने की पैरवी की। ये संकेत साबित करते हैं कि तमाम मुश्किलें पैदा करने के बावजूद अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों का दबाव व असर काम कर रहा है। भले ही उन्हें नकारने की सामानांतर मुहिम में भी चल रही हों।

यह एक शुभ संकेत है कि पारदर्शिता के मुद्दे को सत्ता पक्ष के एक कद्दावर ईमानदार व निष्पक्ष नेता का राजनीतिक समर्थन हासिल हुआ है। एके एंटनी ने उस राजनीतिक पूर्वग्रह को तोड़ने का काम किया है, जो बदलाव की दलीलों को ठुकरा रहा था। हालांकि इस बदलाव की यह पृष्ठभूमि राजनीतिक स्तर पर ही रची गई होती तो लोकमानस में राजनेताओं के प्रति आस्था का भाव जागता। क्योंकि प्रशासनिक ढांचे से तो इस इस्पाती रक्षा कवच को तोड़ने की उम्मीद की ही नहीं जा सकती। नौकरशाह तो गोपनीयता कानून को अंग्रेजी हुकूमत के समय से सुरक्षित बनाए हुए हैं। गोपनीयता कानून की साधना उनकी सर्वोच्च ढाल है। इसीलिए वे गोपनीयता को भंग करने वाला कोई पारदर्शी कानून वजूद में आए इसके हिमायती कभी नहीं रहे। यही वजह है कि प्रशासनिक अधिकारी लोकपाल के दायरे से बाहर रहें, इस मकसद पूर्ति में एकमत से जुटे हैं।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की आग पर पानी पड़े इस नजरिये से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मजबूर होकर अपने मंत्रियों को निर्देश देना पड़ा कि वे 31 अगस्त तक न केवल अपनी संपत्ति का ब्यौरा दें बल्कि व्यावसयिक हितों का भी खुलासा करें। केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा भी राज्यसभा सचिवालय के माध्यम से सभी सांसदों से आग्रह किया गया है कि वे अपने निजी व अन्य कारोबारी हितों को सार्वजनिक करें। ब्रिटेन में यह परिपाटी है कि संसद का नया कार्यकाल शुरु होने पर सरकार मंत्री और सांसदों की संपत्ति की जानकारी और उनके व्यावसायिक हितों को सार्वजनिक करती है।

अमेरिका में तो राजनेता किसी भी प्रकार के प्रलोभन से दूर रहें, इस दृष्टि से और मजबूत कानून है। वहां सीनेटर बनने के बाद व्यक्ति को अपना व्यावसायिक हित छोड़ना जरुरी होता है। जबकि भारत में यह परिपाटी उलटबांसी के रुप में देखने को मिलती है। यहां सांसद और विधायक बनने के बाद राजनीति धंधे में तब्दील होने लगती है। ये धंधे, प्राकृतिक संपदा, भवन निर्माण, सरकारी ठेके और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के राशन का गोलमाल कर देने जैसे गोरखधंधाें से जुड़े होते हैं। संवैधानिक अधिकारों के बेजा इस्तेमाल की हदें यहीं तक सीमित नहीं हैं, बल्कि कार्यकत्ताओं को लाभ पहुंचाने के लिहाज से एक पूरी ऐसी नाजायज कारोबारों की श्रृंखला तैयार कर ली जाती है, जो परस्पर सहयोग देते हुए मजबूती के वाहक बनें। ऐसे ही हालातों के नतीजतन आज विधायिका में शराब भवन निर्माण और खनिज ठेकों से जुड़े कारोबारियों की संख्या में लगातार वृध्दि हो रही है। इस राजनीतिक ताकत का दुरुपयोग विभिन्न धंधों में पूंजी का बेनामी निवेश करके आर्थिक हैसियत बेतहाशा बढ़ाने में लगे हैं। इसलिए अब वक्त का तकाजा है कि मंत्री, सांसद, विधायकों और उनके परिजनों के कारोबारों की पूरी जानकारी सार्वजनिक तो हो ही, उनके संवैधानिक दायित्व और व्यावसायिक हितों को भी अलग-अलग रेखांकित किया जाए। जिससे एक नैतिक मर्यादा दिखाई दे और संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के गोरखधंधों पर लगाम लगे।

हालांकि राजनीतिक इच्छाशक्ति मजबूत नहीं होने के कारण फिलहाल ऐसा कतई नहीं लगता कि विधायिका निकट भविष्य में कारोबार से निजात पा लेगी। क्योंकि निर्वाचन आयोग की सख्ती के चलते उम्मीदवारों के लिए यह तो पहले से ही जरुरी है कि वे नामांकन पेश करते वक्त अपनी चल-अचल संपत्ति, नकदी और उपलब्ध सोना-चांदी का ब्यौरा दें। लेकिन हम यदि लगातार दो या इससे अधिक मर्तबा पेश कर चुके उम्मीदवारों की संपत्ति की तुलना करें तो पाएंगे कि उनकी संपत्ति में आशातीत इजाफा तो हुआ, लेकिन यह धन-संपदा आय के किन स्त्रोतों से बढ़ी इसका कोई व्यावसायिक लेखा-जोखा वे पेश नहीं करते। शायद इसी परिप्रेक्ष्य में ए के एंटनी को कहना पड़ा है कि इस बदलाव की गूंज को राजनेता, नौकरशाह, न्यायपालिका, सेना और व्यापारी सुनना नहीं चाहते। कानों में हम अंगुली भले ही ठूंस लें लेकिन यह स्थिति अब यथावत रहने वाली नहीं है। जनतांत्रिक क्रांति की यह अनुगूंज थमेगी तो है ही नहीं, बल्कि इसकी तरंगों का और विस्तार होगा। गृहमंत्री पी.चिंदबर्म भले ही इस लोकशाही की आवाज को संसदीय लोकतंत्र का शत्रु मानें, किंतु ये थमने वाली नहीं है। बुलंदी की इन आवाजों में जहां सुर में सुर मिलाने की कवायद हो रही है, वहीं इन्हें ठेंगा दिखाने के परिप्रेक्ष्य में सीबीआई को सूचना के अधिकार से बाहर रखने का केंद्रीय केबिनेट ने हाल ही में फैसला लिया है। लेकिन ऐसे दुराग्रहपूर्ण फैसलो से नागरिक समाज का संकल्प टूटने वाला नहीं है, क्योंकि अब बदलाव के लिए सतत का्रंतियों का दौर शुरु होने जा रहा है। कालांतर में मानव समाज को परिर्वतन के लिए संघर्ष के दौरों से निरंतर गुजरना होगा। हालांकि यह एक नया विचार व तथ्य है, जिसे सत्ता की कमान संभाल रहे लोगों को मंजूर करने में समय जरुर लगेगा, लेकिन आखिरकार इस तथ्य को उन्हें मंजूर करना ही होगा।