यात्रा संस्मरण/ एक अजनबी

-रा. रं. दरवेश

एक अंतहीन यात्रा….

बहुत पुरानी चीनी कहावत है, “दस हज़ार किताबों को पढने से बेहतर , दस हज़ार मील की यात्रा करना है”

रात के 10 :30 हो चुके है और मै अपनी खिड़की में बैठा , दूर-सुदूर तक फैले हुए खेतों को देख रहा हूँ…बाहर घुप्प अँधेरा है…और शायद भीतर भी…आकाश में काले बादल छाए हुए हैं…हवा तेज़ और ठंडी मालूम पड़ती है…और इस घुप्प अँधेरे के बीच रह – रह कर जब बिजली चमकती है तो दूर तक खेतों के निशान दिख जाते हैं…..

खेत की फसलें काटी जा चुकी हैं और परती ज़मीन, किसी विधवा के सूनी मांगों की तरह उजाड़ लग रही है….. सुनसान खेतों में खड़े विशालकाय पेड़ों के झुंड , बांसों के झुरमुट , किसी मौनव्रत संन्यासी की तरह चीर मुद्रा में लट बिखराए हुए पीछे की ओर भाग रहे हैं …जैसे, किसी अघोषित यातना की सज़ा मिली हों उन्हें, ताउम्र भागते – भटकते रहने की सजा… !!

रेल की रफ़्तार धीमी हो रही है…कुछ यात्री ‘ कम्पार्टमेंट ‘ में इधर – उधर टहल रहे हैं…बाकी यात्रियों के चेहरे एक से लग रहे हैं…..ऊंघते हुए…. लेकिन मैं अपनी खिड़की में बैठा हुआ हूँ , और मेरी नज़रें खिड़की से दूर….बहूत दूर शायद कुछ तलाश कर जाही हैं….क्या तलाश कर रही है..???

……शायद कोई ‘स्टेशन ‘ आने वाला है…गाडी बहुत धीमी हो चुकी है…रूठ जाने के अंदाज़ में…..ऑर पास ही ‘आउटर सिग्नल’ पर, फाटक के दूसरी तरफ कुछ लोग मूर्तिवत खड़े हैं,….देखने पर कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा…किसी इंतज़ार में खड़ी कुछ मनुष्य छायाएं मात्र, बिजली कौंधने पर दिख जा रही हैं …..शायद, इन्हें उस पार जाना है….

…ऑर इस पार ….जिधर से ये लोग आ रहे हैं, कश्बे का कोई बाज़ार लगा हुआ है….कतार में लगे बल्बों का झुंड, यहाँ – वहां पीली – पीली रौशनी फेंक रहा है….नर मुंडों की भीड़ कम होती जा रही है….कुछ अपने दुकानों को समेटने में लगे हुए हैं….ऑर बाज़ार से वापस लौटती हुई, ये छायाएं मशीनी ज़िन्दगी ज़ीने के बाद , इस फाटक पर आकर मूर्तिवत खड़ी हो गई हैं….ठहर गई हैं…

शायद, यह एक कटु सत्य है , जिसे हम मनुष्यों में सबसे ज्यादा देख ऑर समझ सकते हैं…सारी ज़िन्दगी हम चाहे कितना क्यूँ ना भागें, लेकिन एक उम्र के बाद हम ठहर से जाते हैं….निर्मल वर्मा ने भी कहीं लिखा है…”जब हम जवान होते हैं, हम समय के खिलाफ भागते हैं, लेकिन ज्यों – ज्यों बूढ़े होते जाते हैं, हम ठहर जाते हैं, समय भी ठहर जाता है, सिर्फ मृत्यु भागती है, हमारी तरफ I”

…ऑर उस पार….जिधर इन्हें जाना है, चारों तरफ घना अँधेरा है…ऑर उस अँधेरे के बीच से गुज़रती हुई , कच्चे सड़क की एक संकड़ी पगडण्डी , जो सुदूर खेतों तक आरी – तिरछी जा कर, कहीं गुम हो गई हैं….बिजली कौंधने पर ये पगडण्डी, किसी विशालकाय अजगर की भाँति दिखता मालूम हो रहा है….

…सोचता हूँ , कितनी अजीब बात है…एक तरफ बाज़ार है, जहाँ से पक्की सड़कें गुज़र रही हैं….शहर की सुविधाएं मौजूद हैं …तो दूसरी तरफ एक कच्ची पगडण्डी …..जिनसे होकर लोग वापस अपने घरों की ओर लौट रहे हैं…..

….सोचता हूँ, आखिर ऐसा क्यों होता है,. कि ज़िन्दगी भर भागते रहने के पश्चात, एक समय के बाद, हम वापस अपने जड़ों की ओर लौटने लगते हैं….???

….बारिश की हल्की – हल्की बूँदें गिरने लगी हैं. और तेज़ हवाओं के साथ चेहरे पर बिखर रही हैं…..आहा! कितना शीतल एहसास…

….इस एहसास के साथ ही , अँधेरे से निकलता हुआ कोई चेहरा, धीरे – धीरे दिल की गहराइयों में उतरने लगा है…और मै , अपने हाथों में ” गुनाहों का देवता ” लिए, पन्ने पलट रहा हूँ …इन पन्नों से, वो बाहर निकल आई है…..मुस्कुरा रही है…और मुस्कुराती ही रहेगी ….मुस्कुराना आदत है उसकी…नहीं – नहीं , मुस्कुराना पेशा है उसका….रिसेप्सनिस्ट है वो…यहीं से मुस्कुराने की बुरी आदत लगी है उसको ….मै जब उससे कहूँगा , ” पालक, तुम इतना मुस्कुराती क्यूँ हो?? ” मेरी ओर देखेगी, फिर मुस्कुराएगी और किसी बच्चे की तरह इठलाते हुए, प्यार भरे गुस्से से बोलेगी , ” मेरा नाम पलक है, पालक नहीं ” और फिर मुस्कुराने लगेगी …

….वह ऊंचे ‘हील’ की सेंडल पहनती है, और उसके पास एक बड़ा – सा ‘स्टाइलिश’ बैग है… लोग कहते हैं, उस बैग में वो अपने आशिकों को छुपा कर रखती है….मै जब पूछता हूँ उससे की, ” तुम मुझे इस बैग में क्यों नहीं छुपाती हो ” वह फिर मुस्कुराती है…,और मझसे कहती है., ” तुम मेरे आशिक नहीं हो, तुम पागल हो…पागल …” और जोर से खिलखिलाकर हंसने लगती है , इतनी जोर से की आस – पास के सारे लोग हमे देखने लगते है….उसे इस बात का ज़रा भी ख्याल नहीं रहता….कोई उसे देख रहा है, या कई लोग उसे देख रहे है….लेकिन वह हँसेगी , और हंसती ही रहेगी …. वह जब ऐसे हंसती है तो आस – पास के कई लोग डर जाते हैं….जैसे, कभी ‘ भूखी पीढ़ी ‘ के लोग डर जाया करते थे….लेकिन मै डरता नहीं हूँ……उसके ऊपर लॉर्ड बायरन की तरह एक कविता लिखना चाहता हूँ …

“” सितारों भरी चांदनी रात की तरह

सुन्दर है वह

उसका चेहरा और आँखें उसकी

संगम हैं धूप – छांव का

ऐसी कोमलता है इस प्रकाश में

नहीं मिल सकती जो दोपहरी के आकाश में….””

चलती हुई रेल के सफ़र में आँखें बंद कर सोना भी एक कला है शायद….मै इस कला में माहिर नहीं हूँ ….लेकिन, नक़ल तो कर ही सकता हूँ…..

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