सत्य बनाम हिंसा का संघर्ष

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 डॉ. शंकर शरण

देश में एक समुदाय के लोगों की चुन-चुन कर हत्याएं पुरानी चुनौती का ही नया रूप हैं। इसे नई प्रेरणा सत्ताधारी दल के एक विवेकहीन फैसले से मिली। वास्तव में यह दशकों से जारी अन्याय है कि राज्यतंत्र विभिन्न मतों के शिक्षण, प्रचार-प्रसार या मान-अपमान पर भी एक मानदंड नहीं रखता।

 फलतः संविधान के अनच्छेद 25 (1) में दी गई धार्मिक एवं धर्म प्रचार स्वतंत्रता का लाभ केवल मतांतरणकारी और विस्तारवादी मतवाद उठा रहे हैं। उन्हें अधिक राजकीय तवज्जो से देश के मूल धर्म के लोगों के लिए संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 19 भी व्यवहार में अनुपलब्ध से हो गए हैं। एक तरह से यह लगता है कि नागरिक समानता का अधिकार, पंथ के आधार पर भेदभाव न झेलने का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार उन्हें रह ही नहीं गया है। गत दो महीने का परिदृश्य इसका जीवंत प्रमाण है। न केवल सत्ताधारी दल की प्रवक्ता को बिना किसी जांच के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से वंचित किया गया, बल्कि उसके प्रति समर्थन व्यक्त करने वाले निरीह नागरिकों की हत्याएं तक हुईं। इस पर न राज्यतंत्र, न बौद्धिक वर्ग, न मीडिया के बड़े अंग ने कोई संवेदना दिखाई।

इसी कारण उस उग्रता को और बल मिला, जिसने समझ लिया कि उसकी मनमानी और जिद्द के सामने राज्यतंत्र झुक गया है। एक न्यायाधीश ने तो उल्टे पीड़िता को ही जली-कटी सुनाकर हिंसक प्रवृत्ति को उचित ठहराने जैसा काम कर दिया। तो क्या हिंसा का यह दौर अपनी मनमानी थोपने में सफल हो जाएगा? क्या मामूली सत्य कहना, जो सदियों से प्रतिष्ठित किताबों में ही लिखा है, असंभव हो जाएगा, क्योंकि एक उग्र समूह ऐसा नहीं चाहता? यह होना अब असंभव है।

आज का दृश्य तीन दशक पहले सलमान रुश्दी की किताब ‘सेटेनिक वर्सेज’ पर प्रतिबंध और लेखक पर मौत के फतवे के बाद के हालात की पुनरावृत्ति सी है। तब लंबे समय तक रुश्दी को सुरक्षा में रहना पड़ा और उनकी निंदा न करने वालों पर भी हमले हए। पिछले तीन दशक का घटनाक्रम साफ दिखाता है कि उस फतवे और हिंसक अभियान ने दुनिया में नई जागृति पैदा की। लाखों लोगों ने पहली बार इस्लामी सिद्धांत और इतिहास जानने का प्रयत्न आरंभ किया। फिर तालिबानी राज, अमेरिका-यूरोप में आतंकी हमले, अलकायदा और इस्लामी स्टेट के कारनामों ने भी यह प्रक्रिया तेज की। रुश्दी ने पूछा था कि ‘उस मतवाद में ऐसी कौन सी चीज है, जो हर कहीं इतनी हिंसक प्रवृत्तियां पैदा कर रही है?’ उनका यही प्रश्न सत्य बनाम हिंसा के संघर्ष को निरूपित करता है।

मानवीयता की सहज भावना को उपेक्षित करके मनमानी हिंसा किसी मतवाद के लिए सम्मान हासिल नहीं कर सकती। इसीलिए रुश्दी मामले के बाद दुनिया में राजनीतिक इस्लाम के प्रति नकारात्मक भाव ही फैला। यहां तक कि विचारशील मुस्लिम युवाओं में भी प्रश्नाकुलता पैदा हुई। इस प्रकार बहुतेरी छिपी बातें भी व्यापक रूप से फैलीं, जो चार दशक पहले लोग न के बराबर जानते थे-आम मुसलमान भी नहीं। निःसंदेह रुश्दी प्रसंग या अलकायदा और इस्लामी स्टेट के कारनामों से दुनिया में भय भी फैला, पर कोई नहीं कह सकता कि इससे इस्लाम की प्रतिष्ठा बढ़ी। उल्टे  मुस्लिम देशों में भी संदेह बढ़ा। सऊदी अरब में स्वयं शासक इसे महसूस कर रहे हैं कि शरीयत को हू-ब-हू लागू करना अब संभव नहीं। वे उसकी जकड़ से निकल, मानवता के साथ मिलकर चलने की जुगत कर रहे हैं। सऊदी अरब में लगभग पांच प्रतिशत लोगों ने अपने को नास्तिक बताया यानी वे इस्लाम नहीं मानते। ईरान में यह संख्या और अधिक है। तभी वहां कठोर इस्लामी कायदों के विरुद्ध आंदोलन तेज हुआ है।

लोकतांत्रिक देशों में भी मुसलमानों द्वारा इस्लाम से दूर हटने के मामले तेज हो रहे हैं। मौलाना बिलाल फिलिप्स के अनुसार, इस्लाम छोड़ने की सुनामी आ सकती है। यह सब क्यों हो रहा है? निश्चय ही लोगों के अनुभव, अवलोकन, मनन ही इसके कारण है। भारत और पाकिस्तान में ही अनेक मुस्लिम खुद को एक्स-मुस्लिम कहने लगे हैं। नुपुर शर्मा की अभिव्यक्ति के पक्ष में भारत और पाक के एक्स मुस्लिम बोल रहे हैं। एक एक्स मुस्लिम के यूट्यूब चैनल पर छह घंटे का कार्यक्रम लगातार चला, जिसका विषय था-क्या मुसलमान शर्मिंदा हैं? कई मुसलमानों ने इंटरनेट मीडिया पर लिखा कि नुपुर पर नाराज होने वाले उन किताबों का बुरा क्यों नहीं मानते, जिनमें वही बातें सगर्व लिखी हैं? ऐसे प्रश्नों का मुस्लिम नेता या मौलाना कोई सुसंगत उत्तर नहीं देते। इससे विवेकशील मुस्लिमों में भी संदेह बढ़ता है।

इस्लामी नेता तथ्यों पर निरुत्तर हैं। इसीलिए केवल हिंसा की भाषा बोलते हैं, किंतु हिंसा सच्चाई को दबा नहीं सकती। आज इस्लाम को लेकर वाद-विवाद होना बदलते समय का बैरोमीटर है। तीन दशक पहले सलमान रुश्दी ने जो संकेतों में कहा था, वह आज असंख्य मुसलमान खुल कर लिख-बोल रहे हैं। ऐसे में गैर मुसलमानों को धमकी से चुप रखना असंभव ही है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत समेत अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक दल ही गफलत में हैं। भारत में कोई दल नुपुर के बचाव में नहीं आया, जबकि उन्होंने कोई गैर-कानुनी काम नहीं किया था। इस तरह सभी ने किसी विवाद के कानूनी समाधान के बदले मनमानी हिंसा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बदले हिंसक तानाशाही को बल देने का काम किया। वर्तमान में जिहादी मतवाद के विरुद्ध संघर्ष में यही सबसे कमजोर कड़ी है। विडंबना है कि पीड़ितों के प्रतिनिधि ही उत्पीड़क मानसिकता को राजनीतिक मदद दे रहे हैं।

यदि दुनिया ने आलोचक मुसलमानों-रुश्दी, तसलीमा, अयान हिरसी, वफा सुलतान आदि को सहयोग-सम्मान दिया होता तो मुस्लिम समाज में आत्मावलोकन गतिवान होता। इसके बजाय कट्टरपंथियों को ही बढ़ावा दिया गया है। यह कुछ ऐसा है, मानो सरकारी वकील अभियुक्त की पैरवी कर रहा हो, परंतु जैसे भारत समेत सारी दुनिया में लोकतांत्रिक नेताओं द्वारा समाजवाद का झंडा उठा लेने के बावजूद उसका झूठ, हिंसा और नकारापन अंततः बेपर्दा हुआ, वैसा ही राजनीतिक इस्लाम के साथ भी होने वाला है। कालगति ‘सत्यमेव जयते’ ही स्थापित करने की दिशा में है। हिंसा या सत्ता का बल इसे अधिक समय तक नहीं रोक सकेगा।

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