बीसवीं सदी के चालीस के दशक के दिन

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बीसवीं सदी के चालीस के दशक के दिन काफी दिलचस्प थे।   यह काल-खण्ड अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर द्वितीय विश्व-युद्ध का था, राष्ट्रीय स्तर पर स्वतन्त्रता संग्राम चरमावस्था में था; साम्प्रदायिक दंगों का, देश के विभाजन का और विदेशी हुकूमत से आज़ादी हासिल करने का काल-खण्ड था यह । सन 1942 ई में “करो या मरो” तथा “अंगरेजो भारत छोड़ो” के आन्दोलन की आग देश भर में फैली हुई थी। सन 1943 ई में बंगाल का भीषण अकाल,  साथ में चेचक, हैजे जैसी बीमारियों की महामारी से बड़ी संख्या में बच्चों की मौतें, सन 1943 ई में स्ट्रेप्टोमायसिन के आविष्कार के साथ यक्ष्मा जैसे असाध्य मारक रोग से निवृत्ति का आश्वासन। विज्ञान की चरम उपलब्धि नाभिकीय ऊर्जा को परम विध्वंसक परमाणु बम का उपयोग मानवीय समस्याओं को सुलझाने के लिए किए जाने का दृष्टान्त भी इसी कालखण्ड में मिला।

           भारत में इस कालखण्ड ने अकाल, महामारी, मिलावट और कालाबाज़ारी को भोगा था; आदमी के नृशंस और क्षुद्र रूप के निर्लज्ज प्रदर्शन के साथ साथ अपनी व्यक्तिगत चिन्ताओं के ऊपर दस और देश के हित को तरज़ीह देने वालों के बीच जिन्दगी की अभिव्यक्ति हो रही थी। समाज और परम्परा में मौजूद कुसंस्कारों के विरूद्ध चेतना उभाड़ने के प्रयास काफी मुखर थे । सती प्रथा और बाल विवाह के विरोध तथा विधवा विवाह के पक्ष में राजा राममोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर और स्वामी दयानन्द सरस्वती  तथा अन्य अनेकों द्वारा किए गए आन्दोलनों से प्रेरणा पाई थी ।  

        सन १९४२ में अंगरेजो भारत छोड़ो, सन १९४५ में परमाणु बम द्वारा नागासाकी-हिरोशिमा का नाश और विश्व युद्ध की समाप्ति। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ, लेकिन शान्ति का माहौल नहीं आया। अच्छे दिन नहीं आ पाए। शीत युद्ध का दौर शुरु हुआ। 

     सन १९४७ में एक साथ देश का विभाजन और विदेशी हुकूमत का खात्मा — इन सब के साक्ष्य ने हमारी संवेदनशीलता को गढ़ा था ।  एक ही देश के नागरिकों में से एक वर्ग आजादी के जश्न में डूबा था, तो एक दूसरा वर्ग था जो वतन और देश के फर्क की यन्त्रणा झेल रहा था। उनका वर्तमान निःस्व का था और भविष्य का कोई रोडमैप उनके पास नहीं था। उनकी संज्ञा विस्थापित और शरणार्थी थीं। उन्हें इस पहचान से मुक्त होकर समाज की मुख्य धारा में मिल जाने की लड़ाई लड़नी थी। 

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