तुलसी ने क्या नया लिखा जो पहले था उसका अनुवाद किया

—विनय कुमार विनायक
तुलसी ने क्या नया लिखा जो पहले था उसका अनुवाद किया
‘आभीर यवन किरात खल स्वपचादि अति अघ (पाप) रुप जे’
और ‘जे बरनाधम तेली कुम्हारा स्वपच किरात कोल कलवारा’
और भी कहा ‘स्वपच सबर खस जवन जड़ पांवर कोल किरात,
राम कहत पावन परम होत भुवन विख्यात’ ये तुलसी की बात!

वाल्मीकि रामायण में समुद्र ने कहा राम के बाण को देख के
‘उग्रदर्शनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः
आभीरप्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम’
तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः
अमोघ क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः’
(युद्धकाण्ड अ22-33/34)

अस्तु वहाँ आभीर आदि भयानक रुप कर्म के
पापी लुटेरे मेरे जल पीते, उनके पाप स्पर्श को
मैं सह नहीं सकता, आप अपने उत्तम बाण से
वहाँ प्रहार कर सफलता अर्जित करें पापियों पे!

‘एहिं सर मम उत्तर तट बासी, हतहु नाथ खल नर अघ रासी
सुनि कृपाल सागर मन पीरा,तुरतहिं हरी राम रणधीरा’-तुलसी

महाभारत मौसलपर्व में अर्जुन की सुरक्षा में जाती हुई
कृष्ण की वृष्णिवंशी नारियों और कुमारियों के अपहर्ता
आभीरों को अशुभदर्शी पापाचारी दस्यु लुटेरे कहा गया!

‘ततस्ते पापकर्मणो लोभोपहृतचेतसः
आभीरा मन्त्रयामासुः समेत्याशुभदर्शनाः अ7-47
अयमेकोऽर्जुनो धन्वी वृद्धबालं हतेश्वरम्
नयत्यस्मानतिक्रम्य योधाश्चेमे हतौजसः अ7-48
ततो यष्टिप्रहरणा दस्यवस्ते सहस्त्रशः
अभ्यधावन्त वृष्णीनां तं जनं लोप्त्रहारिणः अ7-49
मिषतां सर्वयोद्धानां ततस्ता: प्रमदोत्तमाः
समन्ततोऽवकृष्यन्त कामाच्चान्याः प्रवव्रजुः अ7-59

यानि लोभ से उनके चित्त की विवेक शक्ति नष्ट हो गई
उन अशुभदर्शी पापाचारी आभीरों ने परस्पर मंत्रणा की!

देखो वह अकेला धनुर्धर अर्जुन और हतोत्साहित सैनिक
असहाय वृद्ध और बाल समूह को लिए जा रहे हैं भाई!

ऐसा सोचकर लूट का माल उड़ाने वाले लट्ठधारी लुटेरे
वृष्णि वंशीय समुदाय पर हजारों की संख्या में टूट पड़े!

सब योद्धाओं के देखते देखते वे डाकू सुन्दर स्त्रियों को
चारों ओर से खींच करके ले जाने लगे शेष स्त्रियां उनके
स्पर्श भय से उनकी इच्छानुसार चुपचाप उनके साथ गई!

‘तुलसी नर का क्या बड़ा समय बड़ा बलवान
भीलां लूटी गोपियाँ वही अर्जुन वही बाण’ तुलसी भनई!

रामायण महाभारत के आभीर,कृष्ण के वृष्णिवंशी यादवों के लुटेरे थे
तुलसी ने आभीर व भील आदिवासी को एक जाति मानके उकेर दिए,
अब आभीर,अहीर, शिशुपाल-दमघोषवंशी घोषी गोप सब यादव हो गए,
कृष्ण का वृष्णिवंशी वार्ष्णेय वृष्णियाहूत वियाहुत वैश्य कहलाने लगे,
कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्र शूर के शौरि सुरी सुड़ी सुढ़ी सोढ़ी क्षत्रिय खत्री,
हैहयवंशी कलचुरी राजपूत हुए,सहस्रार्जुन पुत्र जयध्वज से तालजंघ हुए,
तालजंघ के पुत्र शौण्डिक सहस्रार्जुनवंशी क्षत्रिय,विप्र रोष से वृषल भए!

‘जयध्वजात्तालजंघास्तालजंघा ततः सुताः हैहयाना कुलाः पंच
भोजाश्चावन्तयस्तथा वीतिहोत्राः स्वयंजाताः शौण्डिकेयस्तथैव च
वीतिहोत्रादनन्तोऽभुदनन्ता दुर्जयो नृपः’ (अग्निपुराण 174/10-11)
जयध्वज के पुत्र तालजंघ थे, तालजंघ पुत्र से पांच हैहयकुल;
भोज अवन्ती वीतिहोत्र स्वयंजात और शौण्डिक क्षत्रिय निकले!

‘मेकला द्राविडा लाटाः पौण्ड्राः कान्वशिरास्तथा
शौण्डिका दरदा दर्बाश्वचौराः शबरबर्बराः
किराता यवनाश्चैव तास्ताः क्षत्रिय जातयः
वृषलत्वमनुप्राप्ता ब्राह्मणाममर्षणात्!
(अनुशासन दानधर्म पर्व अ 35-17/18)

यानि मेकल,द्राविड़,लाट,पौण्ड्र, कान्वशिरा, शौण्डिक
दरद, दार्व, चौर,शबर,बर्बर, किरात, यवन क्षत्रिय थे
ब्राह्मणों से अमर्ष के कारण हीन वृषल हो गए ये!

‘भृगवस्तालजंघांश्च नीपानाङ्गिरसोऽजयन्
भरद्वाजो वैहतव्यानैलांश्च भरतर्षभ!
(अनुशासन दानधर्म पर्व अ34/17 )

भृगुवंशी ब्राह्मणों ने तालजंघ(सहस्रार्जुन पौत्र) हैहय
क्षत्रियों(भोज अवंति वीतिहोत्र स्वयंजात शौण्डिक) को,
अंगिरा संतानों ने नीपवंशी राजाओं तथा भरद्वाज ने
वैतहव्य हैहयों व(मनुपुत्री)इला पुत्रों को पराजित किए!

‘तपबल बिप्र सदा बरियारा, तिन्ह ते कोप न कोउ रखवारा
जौं बिप्रन्ह बस करहू नरेसा,तौ तुअ बस विधि विष्नु महेसा’
चंद्रकुल यदुवंशी हैहय क्षत्रियों ने विप्र वंदना नहीं की, हारे,
परशुराम कोप से क्षत्रिय से खत्री बने खेतिहर वणिक बेचारे!

व्यास स्मृति में लिखा
‘वर्धकी नापितो गोपः आशापः कुम्भकारकः
वणिक किरात कायस्थ मालाकर कुटुम्बिनः
वेरटो मेद चाण्डालः दासो श्वपचकोलकाः
ऐतेऽन्त्यजाः समाख्याता ये चान्ये च गवाशनाः
एषां सम्भाषणात्स्नानं दर्शनादर्कबीक्षणम्’ अ11/12

बढ़ई नाई ग्वाला कुम्हार बनिया किरात कायस्थ मालाकर
भंगी चंडाल कोल ये अंत्यज कहलाते, इनसे बात करने से
स्नान करने और देखने पर सूर्य के दर्शन से शुद्धि होती!

परशुराम आज्ञा से दालभ्य ऋषि ने राजा चंद्रसेन के पुत्र को
क्षात्रधर्म से च्युत कर चंद्रसेनी कायस्थ कह चित्रगुप्तस्य किए
‘रामाज्ञायाये दालभ्येन क्षात्रधर्माद्वहिष्कृतः दतः ये कायस्थ
धम्मोऽस्मै चित्रगुप्तस्य यः स्मृतः’ (स्कन्दपुराण रेणुका महात्म्य)

‘पूजिय बिप्र शील गुन हीना सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रबीना
दुष्टा धेनु दुही सुनु भाई साधु रासभी (गधी) दुही न जाई’

‘पतितोऽपि द्विजः श्रेष्ठो न च शूद्रो जितेन्द्रियः’
निर्दुग्धा चापि गौः पूज्या न च दुग्धवती खरी’ (चाणक्य नीति)

‘शापत ताड़त परुष कहंता बिप्र पूज्य अस गावहिं संता’
‘पूज्य एक जग में नहिं दूजा मन क्रम वचन विप्र पद पूजा’

‘भूसुर बोलि भरत कर जोरे करि प्रणाम कर विनय निहोरे
ऊंच-नीच कारजु भल पोचू आयसु देव ना कर संकोचू’
भरत ने ब्राह्मणों को बुलाकर नम्रता पूर्वक प्रणाम कर कहा,
आपलोग ऊंच-नीच भला बुरा जो कार्य हो निःसंकोच आज्ञा दें!

मनुस्मृतिकार भृगु ने जैसा कहा तुलसी ने वैसा उपयोग किया
‘भृगुसुत समुझि जनेऊ बिलोकी, जो कछु कहहु सहउ रिस रोकी
सूर महिसुर हरिजन अरु गाई, हमरे कुल इन्ह पर न सुराई
बधे पाप अपकीरति हारे मारतहूं पां परिअ तुम्हारे’ राम ने कहा

आप भृगुवंशी परशुराम हैं और आप जनेऊ पहन रखे हैं, इसलिए
मैं राम क्रोध नहीं कर सकता, देवता ब्राह्मण भक्त और गाय पर
वीरता नहीं दिखाई जा सकती,क्योंकि वध करने पर पाप,हारने पर
अपकीर्ति होती, अस्तु आप मारें तो भी आपका पैर पड़ना चाहिए!

अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्’ 9/317
मूर्ख हो या विद्वान ब्राह्मण देवता से महान होते!

‘ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्याम अधिजायते’ 1/99
ब्राह्मण जन्म लेते ही पृथ्वी में सर्वश्रेष्ठ हो जाते!

‘ब्राह्मण संभवेनैव दैवानामपि दैवतम्’
ब्राह्मण जन्म लेते ही देवों के भी देव हो जाते!

एक जाति द्विजास्तु वाचा दारुण या क्षिप्रेत
जिह्वा या प्रन्पुवाच्छेद जघन्यप्रभवो हि सः’

सच में तुलसी के राम विप्र धेनु के हितकारी,
सूर के कृष्ण किसी खास जाति के अधिकारी,
भीम के बुद्ध अहिंसा छोड़के युद्ध करने लगे,
चौबीस जिन संख्याहीन सम्मेद शिखर सिमटे!

ये तो भला हो कबीर का जिन्होंने कहा
‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय’!

हां! ये कबीर के पूर्ववर्ती गुरु नानक देव वेदी की
परम्परा में उपजे गुरु गोविंद सिंह सोढ़ी ही तो थे,
जिन्होंने अपनी आत्मकथा विचित्र नाटक में लिखा
‘अब मैं कहूँ आपनी कथा सोढ़ी कुल उपज्या यथा’
दशमेशगुरु गोविंद सिंह ने एक कर दी सभी जाति!

‘मानस की जाति सबै एकै पहचानबो’
‘कलाल गुरु का लाल रंगरेज गुरु का बेटा’
‘अव्वल अल्ला नूर उपाया कुदरत के सब बंदे
एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले कौन मंदे’

ये संयोग नहीं सुयोग था कि गुरु गोविंदराय सोढ़ी सिंह के पंज-प्यारे
उन्हीं जातियों से चुने गए, जो स्मृति के वृषल क्षत्रिय व अंत्यज थे
दयाराम खत्री,धर्मदास जाट, हिम्मतराय धोबी, मोहकमचंद नाई दर्जी,
साहिबचंद कुम्हार कड़ा कच्छ केश कंघा कृपाण धारण कर सिंह बने!

भारतवर्ष में स्वायंभुवमनु पौत्र ऋषभदेव मनुर्भरती से चौबीस तीर्थंकर
राम कृष्ण बुद्ध जिन, दस गुरुवर सभी क्षत्रिय थे कोई नहीं वर्णसंकर,
मगर ईरानी शक मग भार्गव याजकों ने मनुस्मृति लिखे यहां आकर,
मनु के पुत्रों को हाथ पैर जांघ से पैदा कर बना दिए चतुष्पद जानवर,
खुद बन गए मुख और बेशुमार गालियां लिख गए जाति के नाम पर!

मनुस्मृति लिखने वाले नहीं थे कोई मनु या मानव जाति का पिता,
बल्कि मनुस्मृति प्रथम अध्याय उनसठवें श्लोक में लिखा गया पता
मनुस्मृतिकार का, जो थे भृगु, याजक शक मग संगी ईरानी आक्रांता,
रामायण में याजक वशिष्ठ और क्षत्रिय विश्वामित्र की है संघर्ष गाथा,
वरुण पुत्र वशिष्ठ थे ईरानी शक पह्लव हूण यवन सैन्य आश्रयदाता!

वशिष्ठ ने गौ के हुंकार से शक हूण पह्लव यवन बर्बर किया उत्पन्न,
क्षत्रिय विश्वामित्र ब्राह्मण वशिष्ठ की सेना शक पह्लव देख हुए सन्न,
मनुर्भरती विश्वामित्र ने तप किया पर ब्रह्मा ने माना नहीं उसे ब्राह्मण,
भार्गव परशुराम का आचरण आक्रांता जैसा इक्कीसबार किया आक्रमण,
मनुवंशी क्षत्रियों को मारकर पांच कुण्ड मानव रक्त से किया पितृतर्पण!

वशिष्ठ पौत्र पराशर पुत्र व्यास ने लिखा वेद पुराण महाभारत कथा,
ये भृगु वशिष्ठ पुत्र वरुण के,जो कहलाते ईरानी अहूर माजदा ब्रह्मा,
इन्द्र वरुण ब्रह्मा कोई पूज्य नहीं भारत में,इन्द्र निषिद्ध मांस भक्षी,
भारतीय संस्कृति में स्वायंभुव मनुपौत्र ऋषभदेव से महावीर व बुद्ध
सारे क्षत्रिय अहिंसक श्रमण, पर ब्रह्मावंशी ब्राह्मण समांस मधुपर्की,
भवभूति उत्तररामचरितम में वशिष्ठ ने समांस मधुपर्क किया सेवन!

निश्चय ही ये भृगु वशिष्ठ अभारतीय थे,रोजनामचे की तरह रोज-रोज
नई-नई स्मृति लिखे,वेद पुराण रामायण महाभारत में रद्दोबदल किए,
लेखनी विहीन क्षत्रिय वणिक किसान श्रमिक को कभी शूद्र कभी वृषल,
साहित्यिक साक्ष्य है कि आक्रांताओं की तरह ब्रह्मा पुत्र वशिष्ठ भृगु ने
अपने साथ स्त्रियाँ नहीं लाए भारत की स्थानीय कन्या से रिश्ता बनाए!

शास्त्रों में वशिष्ठ वंशावली लिखी गई जिसमें कोई मां ब्राह्मणी नहीं
‘गणिक गर्भ संभूतो वशिष्ठश्च महामुनिः
तपसा ब्राह्मणो जातः संस्कारस्तत्र कारणम्,
अक्षमाला वशिष्ठेन संयुक्ताधम योनिजा
जातो व्यासस्तु कैवर्त्या श्वपाक्यास्तु पराशरः
वहवोऽन्येऽपि विप्रत्यं प्राप्ताये पूर्वमद्विजा’

वशिष्ठ गणिका उर्वशी गर्भ से उत्पन्न हुए,उनकी जाति
ब्राह्मण संस्कार के कारण हुई, उन्होंने अधम योनिजा
अक्षमाला से संपर्क कर शक्ति को,शक्ति ने श्वपाकी से
पराशर को, पराशर ने कैवर्त्या से व्यास को पैदा किए थे
इस तरह बहुत सारे विप्र हुए हैं, जो पूर्व में अद्विज थे!

ये अधम योनिजा श्वपाकी;स्वपच;चाण्डाली,कैवर्त्या;किराती
थी वशिष्ठ पराशर वंशज ब्राह्मणों की आदि मातृ शक्ति,
जिसे तुलसी ने तेली कुम्हार कलवार संग वर्णाधम कही!

भृगुवंशी च्यवन ऋचिक जमदग्नि परशुराम की माताएं भी
नहीं थी ब्राह्मणी बल्कि स्थानीय क्षत्रिय कृषक कन्याएँ थी
च्यवन ने शर्याति राजा की कन्या सुकन्या से शादी की थी,
ऋचिक ने आठ सौ ईरानी श्यामकर्णी श्वेतवर्णी अश्व देकर
विश्वामित्र के पिता राजा गाधी की पुत्री सत्यवती मांग ली!

ऋचिक पुत्र जमदग्नि ने सूर्यवंशी प्रसेनजित की पुत्री रेणुका
दान में मांगी जो हैहयवंशी सम्राट सहस्रार्जुन की वाक्दत्ता थी,
जमदग्नि पुत्र परशुराम ने राजा दिवोदास पुत्री लोमहर्षिणी की
हाथ थाम ली बिना विधिवत विवाह किए जो उम्र में थी बड़ी!

आरंभ में इन ईरानी याजकों ने वंश वृद्धि हेतु सभी वर्ण की
कन्या से विवाह किए, संतति को अनुलोमज ब्राह्मण संज्ञा दी,
पर क्षत्रिय कृषक बीच ऐसे संबंध से उत्पन्न संतति प्रतिलोम
वर्णसंकर वृषल जारज शूद्र कहकर घृणित जातियां घोषित की!

स्पष्ट: ब्रह्मावंशी ब्राह्मणों और मनुवंशी मानवों में बहुत भेद था,
वैवाहिक सम्बन्ध के बावजूद दोनों मध्य घृणा द्वेष मतभेद था,
ये आर्य अनार्य सिद्धांत कृण्वन्तो विश्वं आर्यम में भी विभेद था,
किसी मंत्रद्रष्टा ब्राह्मण ने स्वयं को आर्य कहा कहाँ ऋग्वेद में?
आर्य संज्ञा ब्राह्मणों द्वारा मनुर्भरती मानवों पर थोपी गई लगती!

‘कृण्वन्तो विश्वं आर्यम’ विश्व को आर्य करो वशिष्ठ का अभियान,
यद्यपि आर्य जाति नहीं, आक्रांता नहीं, बल्कि आर्य शब्द सम्मान,
राम कृष्ण जिन व चार आर्य सत्य बतानेवाले बुद्ध के आर्य नाम,
मगर किसी वैदिक ब्राह्मण ने किया नहीं धारण आर्य का उपनाम!

यहां तक कि आर्य समाज संस्थापक दयानंद आर्य नहीं, रहे ब्राह्मण,
किन्तु आर्य उपाधि से मनुवंशी क्षत्रिय,हो गए आर्य आक्रांता बदनाम,
जैसे भृगु ने मनु नाम से मनुस्मृति रचके लगा दिए मनुवादी इल्जाम,
कोई भी ब्राह्मण पहले खुद को आर्य नहीं कहते,वसुंधरा के मानव को
‘कृण्वन्तो विश्वं ब्राह्मण’ करना नहीं ठानते,जातिवाद कैसे हो अवसान?

बीस-बीस स्मृतियाँ लिखी गई,जिसे जो मन भाया मनगढ़ंत लिखते रहे,
पर सारे संस्कृत ग्रंथ मुहम्मद गोरी आक्रमण के बाद लिखे गए लगते
ग्यारह सौ वेरानबे के बाद गोरी के बख्तियार खिलजी ने भारत वर्ष के
सारे विश्वविद्यालय नालंदा, विक्रमशिला, उदंतपुरी आदि जला डाले थे,
धू-धू कर छः माह तक जलते रहे थे सारे पाली प्राकृत अपभ्रंश धर्मग्रंथ,
फिर ये चार वेद अठारह पुराण रामायण महाभारत बीस स्मृति कहां से?

ऐसे ब्राह्मण ग्रंथ पर गैर ब्राह्मण कैसे गर्व करे जातीय घृणा जिसमें?
जिनके हाथ में लेखनी थी, वो मनुपुत्रों को पशु से बदतर बता रहे थे,
वशिष्ठ से व्यास गणिका दासी श्वपाकी कैवर्त्या पुत्र कैसे ब्राह्मण थे?
मगर इनके नाम पर न जाने कौन भेदभाव और जातिवाद फैला रहे थे,
ऐसे में एकमात्र सिख धर्म जो मानवता की बात करे, जातिवाद से परे!
—विनय कुमार विनायक

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