गहराता जा रहा था मन,
मन में लिए लग्न,
आंखों में चमक,
पथ सूझ नहीं रहा था तब,
क्योंकि,
छप्पर था तंग ।
शांत है मन,लग्न वही,
चमक वही ,
पथ दिख रहा है स्पष्ट,
अब नहीं कोई कष्ट ।
फिर भी…
रात हो या दिन, है मन में, वही उमंग,
वही लग्न, वही चमक,
जो जगाना नहीं चाहते थे मुझे,
उनको सुलाउंगा अब ।
सोउंगा न अब ।
लोग मेरे गांव के
लोग मेरे गांव के,
जब पिछडे थे,
अंधेरे घरों में रहते थे,
नंगे पांब चलते थे,
फटे कपउे पहनते थे,
पशुपक्षियों की बोली जानते थे ।
अब वे सभ्य हो गए हैं,
सतरंगी रौशनी वाले आलीशान घरों में रहते हैं,
जूते भी पहनते हैं,
अच्छे से अच्छे कपउे पहनते हैं,
पर वे आदमी की बोली नहीं जानते ।
यह पाए बौराए नर वह खाए बौराय……
भौतिक संसाधनों की उन्नति यदि विज्ञान के सहयोग से हुई है तो कोई बुराई नहीं ..
किन्तु मानवीय मूल्यों का क्षरण अवश्य रोका जाना चाहिए ….