पुरस्कार लौटाने का औचित्य समझें

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

इन दिनों साहित्यकारों के पुरस्कार लौटाने के दिन चल रहे हैं, देश के मान्यधान साहित्यकारों को अपने मिले तमगे लौटाते देख लग ऐसा रहा है कि जैसे उनके बीच होड़ लगी है, पहले आप, पहले आप की कि कौन अपने पुरस्कार केंद्रीय सरकार को असफल बताते हुए पहले लौटाता है।

आश्चर्य होता है और गजब लगता है यह देखकर कि अपने पुरस्कार लौटा रहे साहित्कारों को हर बात के लिए एक व्यक्ति व उस व्यक्ति की राजनैतिक पार्टी में ही दोष क्यों दिखाई दे रहे हैं, ऐसे में जरूर जायज सा लगने वाला यह प्रश्न इस साहित्यकार जमात से पूछा जाना चाहिए कि प्रत्येक परिस्थिति के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ही दोषी कैसे हो सकती है। गुजरात में गोधरा हो तो दोष मोदी का है और यदि उत्तरप्रदेश के दादरी में अखलाक अहमद को सामुहिक भीड़ मार दे तो दोषी मोदी। वस्तुत: दादरी की घटना कोई देश में पहली मर्तबा नहीं हुई है, इस जैसी और इससे भी बदतर घटनाएं देश में घटती व निरंतर घट रही हैं। दादरी पर इस देश का हर देशभक्त यही कहेगा कि जो हुआ दुखद है, काश, वह दिन जल्द आयें जब देश में घटने वाली इस प्रकार की घटनाएं हमेशा के लिए बंद हो जाएं। किंतु आज इस स्यापा का औचित्य क्या है? क्या कभी इस प्रकार की पूर्व घटनाओं को लेकर यह साहित्यकार जमात एक नजर आई है, जब देश में बहुसंख्यक समाज के साथ आए दिन इस प्रकार की घटनाएं घटती हैं, तब क्यों नहीं इनका जमीर जागता?

सीधा सवाल यह है कि एक वर्ग विशेष को लेकर ही इनकी अंतस् चेतना जाग्रत क्यों हो जाती है? चलो मानवता के खातिर मान भी लेते हैं कि यह आज ऐसा कर रहे हैं। तब इन प्रश्नों के जवाब भी अपने पुरस्कार लौटाने वाले सभी साहित्यकारों को अवश्य देना चाहिए कि क्या वह उस सम्मान को वापस कर सकेंगे जो उन्हें यह सम्मान प्राप्त करते वक्त देश की जनता से मिला? वास्तव में ऐसे सभी साहित्यकार केवल अपना तमगा जरूर लौटा सकते हैं किंतु उससे जुड़ी ख्याति कभी नहीं वापस कर सकते। फिर यह दिखावा क्यों ? इन साहित्यकारों को अपने पुरस्कार लौटाते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए था कि पुरस्कार केवल एक तमगाभर नहीं होता है। न ही वह अपने लिए किसी राजनीतिक विरोध का मंच बनाने योग्य माध्यम है। साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लौटाने से पहले तमाम साहित्यकारों को यह जरूर ध्यान रखना था कि जनता सब जानती है। जनता को मूर्ख समझने की गलती कतई नहीं करें। सभी को साफ दिख रहा है कि साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करके ये सब महज केंद्र सरकार को घेरना चाह रहे हैं और कुछ नहीं। पुरस्कार वापसी महज दिखावा है।

साहित्यकार अशोक वाजपेयी का अपना पुरस्कार लौटाते हुए भगवा विचारधारा के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इस विचार के पोषक तत्वों को घेरने की बात भी कुछ समझ नहीं आई। क्या वाजपेयी जी अपना बयान देते वक्त यह भूल गए थे कि उत्तर प्रदेश में आर.एस.एस. विचार के पोषकों की सरकार नहीं है, वहां उन लोगों की सरकार है जो संघ और इस संगठन से जुड़े लोगों को कोसने में सबसे आगे रहते हैं। राज्य की रोजमर्रा की आंतरिक सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द्र बनाए रखते हुए समरसता कायम करने का काम दिल्ली से आकर केंद्र नहीं करेगा, वह तो राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने से अच्छा तब होता जब वे यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनकी सरकार को आड़े हाथों लेते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, इससे समझ में आता है कि पुरस्कार लौटाना आहत भावनाओं का परिणाम नहीं, सीधे तौर पर पुरस्कारों के नाम पर राजनीति करना है।

देश के महान साहित्कार अशोक वाजपेयी की यह बात भी पल्ले नहीं पड़ी कि वह किसे बांझ कह रहे हैं, भगवा के नाम पर अपना निशाना साधते हुए उनका यह कहना कि ‘‘यह बांझ विचारधारा है। इस विचार को मानने वालों की सबसे बड़ी समस्या यही है कि इन्हें साहित्य, इतिहास और संस्कृति की कोई समझ नहीं होती है।’’ वस्तुत: यहां वाजपेयी जी से पूछा जाना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा कब से बांझ हो गई, उन्हें यह तो पता ही होना चाहिए कि इस संगठन पर श्रद्धा रखने और मानने वालों की संख्या देश में इतनी अधिक है कि यदि यह अपने देश भारत में ही पंक्तिबद्ध खड़े हो जायें तो कई राज्यों की सीमा रेखा भी एक साथ पार हो जाए। 5 से 6 मिलियन संख्या है, देश में आर.एस.एस. के स्वयंसेवकों की। जहां तक साहित्य, इतिहास और संस्कृति का सवाल है, इसकी समझ रखने वालों की बात की जाए तो उनकी संख्या भी इतनी ही अधिक है कि यदि वे सभी सामुहिक रूप से सामने आ गए और यह जताने लगे कि भारत की सभ्यता और संस्कृति में हमारा इतना अमूल्य योगदान है वगैरह, वगैरह तो वाजपेयी जैसे लाख साहित्यकार भी आ जाएं तो उनका श्रम कम पड़ जाएगा।

वस्तुत: वाजपेयी जी को यह समझना चाहिए कि संघ जो शिक्षा अपने प्रत्येक स्वयंसेवक को देता है वह है ‘‘राष्ट्राय स्वाहा, राष्ट्राय इदं न मम्’’ सभी कुछ देश के हित में, देश के लिए मेरा कुछ नहीं। मैं कुछ नहीं, राष्ट्र सबकुछ। संघ की जो प्रार्थना आरंभ होती है नमस्ते सदा वत्सले… से उसका हिन्दी भावार्थ यही है कि

हे परम वत्सला मातृभूमि! तुझको प्रणाम शत कोटि बार।
हे महा मंगला पुण्यभूमि ! तुझ पर न्योछावर तन हजार॥
हे हिन्दुभूमि भारत! तूने, सब सुख दे मुझको बड़ा किया।
तेरा ऋण इतना है कि चुका, सकता न जन्म ले एक बार।
हे सर्व शक्तिमय परमेश्वर! हम हिंदुराष्ट्र के सभी घटक,
तुझको सादर श्रद्धा समेत, कर रहे कोटिश: नमस्कार॥

तेरा ही है यह कार्य हम सभी, जिस निमित्त कटिबद्ध हुए;
वह पूर्ण हो सके ऐसा दे, हम सबको शुभ आशीर्वाद।
सम्पूर्ण विश्व के लिये जिसे, जीतना न सम्भव हो पाये;
ऐसी अजेय दे शक्ति कि जिससे, हम समर्थ हों सब प्रकार॥

दे ऐसा उत्तम शील कि जिसके, सम्मुख हो यह जग विनम्र;
दे ज्ञान जो कि कर सके सुगम, स्वीकृत कन्टक पथ दुर्निवार।
कल्याण और अभ्युदय का, एक ही उग्र साधन है जो;
वह मेरे इस अन्तर में हो, स्फुरित वीरव्रत एक बार॥

जो कभी न होवे क्षीण निरन्तर और तीव्रतर हो ऐसी;
सम्पूर्ण र्ह्दय में जगे ध्येय, निष्ठा स्वराष्ट्र से बढे प्यार।
निज राष्ट्र-धर्म रक्षार्थ निरन्तर, बढ़े संगठित कार्य-शक्ति;
यह राष्ट्र परम वैभव पाये, ऐसा उपजे मन में विचार॥

काश, वाजपेयी जी, सुबह टहलते समय ही संघ की साखा में दूर खड़े होकर ही समझ लेते कि संघ क्या सिखा रहा है, अपने स्वयंसेवकों को। खैर, कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना लगा कर अशोक वाजपेयी और उनके साथी साहित्कारों ने आज यह स्पष्ट कर दिया है कि वे खेल सीधेतौर पर राजनीतिक का खेल रहे हैं और अपने अन्य साहित्यकार मित्रों से भी उन्होंने इस खेल में भाग लेने का आह्वान किया है। जिसका कि असर इन दिनों पूरे देश में दिखाई दे रहा है।

इसके अलावा कहना होगा कि सारा जोसफ, अशोक वाजपेयी, नयनतारा सहगल, उदय प्रकाश, रहमान अब्बास, शशि देशपांडे, के. सच्चिदानंद, वीरान्ना माडीवलार, टी सतीश जावरे गौड़ा, संगामेश मेनासिखानी, हनुमंत हालीगेरी, श्रीदेवी वी अलूर, चिदानंद जैसे तमाम साहित्कारों के द्वारा लौटाए गए पुरस्कारों और आक्रोश का कोई औचित्य इसीलिए नहीं रह जाता है, क्योंकि देश में सांप्रदायिक माहौल बिगड़ने के लिए इन सभी को अब तक दादरी जैसी घटना के होने का इंतजार करना पड़ा है। यदि ये आज आहत हुए हैं वह भी इतनी बड़ी संख्या में, तो सवाल सीधा सा यह है कि सिख नरसंहार पर ये लोग चुप क्यों रहे? उड़ीसा के कन्धमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद जी की ईसाइयों द्वारा हत्या की गई, तब चुप क्यों रहे? मुम्बई बम धमाकों में सैकड़ों निर्दोष मारे गए, तब क्यों चुप रहे? मकबूल फिदा हुसैन ने हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाये तब ये क्यों चुप रहे? 1990 में कश्मीरी पंडितों को मार-मार कर कश्मीर घाटी से निकाल दिया गया, जो आज भी शरणार्थियों का जीवन जी रहे हैं, तब भी ये चुप रहे। मिशनरी द्वारा लालच देकर धर्मान्तरण कराये जाने पर ये चुप रहते हैं। बंगाल में दुर्गा पांडालों में तोड़-फोड़ होती रहती है, तब भी ये चुप रहते हैं। उत्तर प्रदेश में महिलाओं को नग्न कर दौड़ा-दौड़ा कर मारा गया, मंदिर तोड़े गए। तब भी ये चुप रहे। साध्वी प्रज्ञा के जेल में रहने से इनका जमीर नहीं जागता? प्रश्न यह भी है कि जब गोधरा में कारसेवकों की ट्रेन को धर्मान्ध भीड़ ने जलाया, तब ये साहित्यकार कहां थे क्यों नहीं इन्होंने अपने पुरस्कार लौटाए? जब भरी संसद में वन्दे मातरम् का अपमान किया जाता है तब ये लोग कहाँ थे? विचार करें। वस्तुत: इसी मंशा से इन सभी के पुरस्कार लौटाने का औचित्य समझ में आ जाता है।

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

1 COMMENT

  1. चतुर्वेदी जी – यह तमगे वापिस करने की होड़ नहीं है वरन एक तरह से अपनो ही का दबाव है – ‘जब मैंने अपना तमगा वापिस कर दिया तो तू ने क्यों नहीं किया – मैंने ही तो तुझे दिलवाया था ‘।

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