इस उबाल को समझना ही होगा…

आशीष वशिष्ठ

कुख्यात दिल्ली रेप काण्ड के खिलाफ देश भर में धरना, प्रदर्शन, कैण्डल मार्च हो रहे हैं और जिस तरह से युवा प्रदर्शनकारी रायसीना के सीने पर चढ़े जा रहे हैं वो सत्ता के शीर्ष पर आसीन महानुभावों और कानून के रखवालों के लिए सीधी चेतावनी है कि अब कान में तेल डालकर बैठने, आंखें मूंदने और मौन रहकर काम चलने वाला नहीं है. स्वत: स्फूर्त जनता जिस तरह सडक़ों पर उतर आयी उससे सरकार सन्न रह गयी है. नेता और जिम्मेदार हर बार की भांति रटे रटाए बयान देकर मामले पर मिट्टïी डाल देते थे लेकिन दिल्ली में पैरामैडिकल की छात्रा के साथ हुइ बर्बरता ने देश के आम आदमी की आत्मा को झकझोर दिया और क्रोध और अव्यवस्था से नाराज लाखों प्रदर्शनकारियों को दिल्ली में प्रदर्शन वो ऐतिहासिक घटना है जिसे आने वाले समय में याद किया जाएगा.

जनता का क्रोध बलात्कारियों और सरकार दोनों के प्रति एक समान है. सरकार और जिम्मेदार महानुभावों का मौन और ढीले-ढाले आश्वासन, पुलिस का प्रदर्शनकारियों से बुरा बर्ताव आग में घी का काम कर रहा हैं. कुल मिलाकर जनता उबल रही है, जनता सडक़ों पर है, जनता समस्या का स्थायी समाधान चाहती है,जनता गुनाहगारों के लिए फांसी की सजा चाहती है, लेकिन सरकार अपने रवैये पर कायम है. अहम् बात यह है कि दिल्ली की सडक़ों पर डटे प्रदर्शनकारी किसी राजनीतिक दल के सदस्य व कार्यकर्ता नहीं है. ये भाड़े की भीड़ नहीं है. ये घूमने -फिरने या तमाशा देखने के लिए घर से नहीं निकले हैं. इनकी कोई राजनीतिक महत्वकांक्षा भी नहीं है. ये भीड़ आरोपियों के फांसी की सजा की मांग पर कर रही है. सरकार के सामने दुविधा यह है कि मौजूदा कानून में फांसी की सजा का प्रावधान नहीं है, प्रदर्शनकारी फांसी की मांग पर अड़े हुए हैं. लेकिन सरकार ने अभी तक प्रदर्शकारियों को ऐसा आश्वासन भी नहीं दिया है कि जिससे सुलह का रास्ता निकलता. सरकारी मशीनरी आम जनता को यह समझाने में भी असफल रही है कि भविष्य मे ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए सख्त कदम उठाए जाएंगे और कानून में आवश्यक संशोधन किए जाएंगे. सरकार हठधर्मिता और बेशर्मी पर उतारू है. लबोलुबाब यह है कि सरकार जनाक्रोश और गुस्से में उबलती जनता को समझ पाने में असमर्थ और असफल दिख रही है.

सरकार के रवैये से यह भी अनुभव हो रहा है कि महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध और उन पर प्रभावी रोक लगाना सरकार के एजेण्डे में शामिल ही नहीं है. देश में महिलाएं कितनी असुरक्षित हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देशभर प्रत्येक 22 मिनट में एक बलत्कार की घटना घटती है. जब देश की राजधानी दिल्ली में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं, तो ऐसे में दूर-दराज क्षेत्रों में जहां पुलिस-प्रशासन नाम की चिडिय़ा कभी कभार ही उड़ान भरती है वहां की स्थिति को सहज ही समझा जा सकता है. दिल्ली रेप काण्ड में भी शुरूआती दौर में दिल्ली सरकार, पुलिस और प्रशासन का रवैया बेहद ढीला-ढाला और टालू था, लेकिन सोशल मीडिया ने देश की जनता विशेषकर युवाओं को जोडऩे का काम किया और रायसीना हिल की शक्ल तहरीर चौक में बदल गई. लेकिन सरकार प्रदर्शनकारियों की आवाज को सुनने को तैयार नहीं दिख रही है. प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधिमण्डल ने यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी, कांग्रेस कोई ठोस आश्वासन न मिलने की सूरत में उन्होंने प्रदर्शन जारी रखने का निर्णय लिया है.

सरकार ने प्रदर्शनकारियों के कदमों को रोकने के लिए मेट्रो की सेवाएं बंद कर रखी है बावजूद इसके भीड़ कम होने का नाम नहीं ले रही है. मीडिया का ध्यान बंटाने के लिए सचिन के सन्यास की घोषणा को भी सरकार की चाल के रूप में देखा जा रहा है. लेकिन दिल्ली के सीने पर प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों को अनदेखा करने की हिम्मत मीडिया भी नहीं जुटा पा रहा है. आजादी के बाद शायद ये ऐसा पहला मौका होगा जब बगैर किसी नेतृत्व और संगठन के देश के युवा के लाखों युवा सरकार और व्यवस्था के विरूद्घ सडक़ पर उतरे हैं. इन युवाओं के इरादे इतने बुलंद हैं कि दिल्ली की हाड कंपाती सर्दी में पानी की ठंडी बौछार भी उनके कदम पीछे नहीं धकेल पा रही है. पुलिस की लाठियों के डर से भागने की बजाय युवा जब चिल्लाकर और मारो, और मारो कहते है तो उनके हौसले, इरादो, भावनाओं और अंदर जल रही क्रोध की अग्नि के ताप को समझा जा सकता है.

असल में जनता में सरकार, सरकारी मशीनरी और लुंज-पुंज व्यवस्था और निकम्मे पुलिस-प्रशासन के प्रति गहरी नाराजगी और गुस्सा भरा हुआ है. पिछले दो वर्षों में अन्ना और रामदेव के आंदोलनों को जिस तरह से सरकार ने कुचलने और दबाने का काम किया है उसे देश की जनता विशेषकर युवाओं ने बेहद करीब से देखा, समझा है. अन्ना और रामदेव के आंदोलन भले ही चाहे किसी अंजाम तक न पहुंचे हो लेकिन उन्होंने आम आदमी को संघर्ष और आंदोलन करने का तरीका तो सिखाया ही है,इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. दिल्ली के विजय चौक, रायसीना हिल्स,रामलीला मैदान, रेल भवन, जंतर-मंतर पर जुटे लाखों प्रदर्शनकारियों का नेतृत्व किसी राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन के हाथों में नहीं है बल्कि ये देश के आम आदमी का गुस्सा है जो सडक़ों पर दिखाई दे रहा है. लेकिन सरकार अभी भी इस गुस्से को हलके में ले रही है और सोच रही है कि दो-चार दिन के हो-हल्ले के बाद जनता अपने घरों में लौट जाएगी और फिर व्यवस्था और मशीनरी अपने ढर्रे पर चलने लगेगी लेकिन सरकार यह भूल रही है कि इस भीड़ को किसी ने आंमत्रित नहीं किया है बल्कि वो हर दिशा और चौखट से निराशा झेलने के बाद खुद ही व्यवस्था परिवर्तन में जुट गयी है. प्रदर्शनकारियों की भीड़ सत्ता के ऊंचे सिंहासन पर बैठे महानुभावों के लिए गंभीर चेतावनी और खतरे की घंटी है कि अब देश की जनता जाग चुकी है और अब बहुत समय तक उसकी आवाज को अनसुना नहीं किया जा सकता है. क्योंकि प्रजातंत्र में प्रजा ही किंग मेकर होती है और चूंकि जनता सडक़ों पर अपने आप उतर आई है जो स्वस्थ लोकतंत्र के शुभ संकेत है और सत्ता के लिए चेतावनी भी. इस मौके पर मशहूर जनकवि अदम गोंडवी का शेर याद आ रहा है..

“सब्र की इक हद भी होती है, तवज्जो दीजिए,

गर्म रखें कब तलक नारों से दस्तरख्वान को.”

 

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