शीर्षासन की मुद्रा में संघ ?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसवेक के सरसंघचालक मोहन भागवत के भाषण में मैं तीसरे दिन नहीं जा सका, क्योंकि उसी समय मुझे एक पुस्तक विमोचन करना था लेकिन आज बड़ी सुबह कई बुजुर्ग स्वयंसेवकों के गुस्से भरे फोन मुझे आ गए और उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मोहन भागवत ने संघ को शीर्षासन नहीं करा दिया ? क्या उन्होंने वीर सावरकर और गुरु गोलवलकर की हिंदुत्व की धारणा को सिर के बल खड़ा नहीं कर दिया ? सावरकरजी ने अपनी पुस्तक हिंदुत्व में लिखा था कि हिंदू वही है, जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि भारत है। इस हिसाब से मुसलमान, ईसाई और यहूदी हिंदू कहलाने के हकदार नहीं हैं, क्योंकि उनके पवित्र धार्मिक स्थल (पुण्यभूमि) मक्का-मदीना, येरुशलम और रोम आदि भारत के बाहर हैं। इसी प्रकार गोलवलकरजी की पुस्तक ‘बंच आॅफ थाॅट्स’ में मुसलमानों और ईसाइयों को राष्ट्रविरोधी तत्व बताया गया है। संघ की शाखाओं में मुसलमानों का प्रवेश वर्जित रहा है। 2014 के चुनावों में भाजपा ने कितने मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे ? वास्तव में संघ, जनसंघ और भाजपा की प्राणवायु रहा है- मुस्लिम विरोध ! जनसंघ के अध्यक्ष प्रो. बलराज मधोक ने 1965-67 में मुसलमानों के ‘भारतीयकरण’ का नारा दिया था। सर संघचालक कुप्प सी. सुदर्शनजी ने संघ-कार्य को नया आयाम दिया। वे मेरे अभिन्न मित्र थे। उन्होंने ही मेरे आग्रह पर ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ की स्थापना की थी, जिसे आजकल इंद्रेशकुमार बखूबी संभाल रहे हैं। सुदर्शनजी ने इसके स्थापना अधिवेशन का उदघाटन का अनुरोध भी मुझसे किया था। अब मोहन भागवत इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। इसीलिए उन्होंने गोलवलकरजी के विचारों के बारे में ठीक ही कहा है कि देश और काल के हिसाब से विचार बदलते रहते हैं। ज़रा हम ध्यान दें कि सावरकरजी और गोलवलकरजी के विचारों में इतनी उग्रता क्यों थी ? वह समय मुस्लिम लीग के हिंदू-विरोधी रवैए और भारत-विभाजन के समय देश में फैले मुस्लिम-विरोधी रवैए का था। अब 70 साल में हवा काफी बदल गई है। इन बदले हुए हालात में यदि मोहन भागवत ने हिम्मत करके नई लकीर खींची है तो देश में फैले हुए लाखों स्वयंसेवकों को उस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और उसके अनुसार आचरण भी करना चाहिए। संघ के स्वयंसेवक इस समय देश में सत्तारुढ़ हैं। यदि उन्हें सफल शासक बनाना है तो उन्हें भारतीयता को ही हिंदुत्व कहना होगा और हिंदुत्व को भारतीयता ! यह संघ को शीर्षासन करवाना नहीं, उसे संकरी पगडंडियों से उठाकर विशाल राजपथ पर चलाना है। उसे सचमुच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बनाना है l

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  1. मुझ बूढ़े गंवार ने सदियों से अधिकतर शांति से रहते लाखों निर्दोष हिंदू, सिख और मुसलमान मूल निवासियों को देश के रक्तपात-पूर्ण विभाजन की क्रूर चपेट में आये विश्व में सबसे बड़े जनसमुदाय के स्थानांतरण में जान-माल गंवाते देखा है| तत्पश्चात दशकों “बांटो और राज करो” और लूटमार की लगातार राजनीति खेलते कांग्रेस के कामकाज में देश के दो तिहाई जनसमूह को रियायती खाद्य-सामग्री प्रदान करने में उनके प्रगति-पत्र, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम २०१३ को भी मैंने देखा है|

    जब कि देश में १९४७ के रक्तपात-पूर्ण विभाजन से लेकर २०१३ में कांग्रेस के प्रगति-पत्र के बीच शासकीय मध्यमता और अयोग्यता के फलस्वरूप फैले भ्रष्टाचार और अराजकता के नासूर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा हिंदुत्व की मरहम लगाते ‘भविष्य का भारत’ विषयक तीन दिवसीय विचार अनुष्ठान पर श्री ललित गर्ग जी कि प्रस्तुति “संघ की दस्तक सुनें” हमें ‘सबका साथ-सबका विकास’ की ओर ले जाती है, यहाँ प्रवक्ता.कॉम पर ही कई बुजुर्ग स्वयंसेवकों की आड़ में देश के अभाग्यपूर्ण बंटवारे के इतिहास में फिर से कड़छी मारते लेखक महाशय हिन्दू, ईसाई और मुसलमान की उथल-पुथल में “शीर्षासन की मुद्रा में संघ?” प्रश्न पूछते हैं!

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