स्वयं के रुतबे की खातिर विश्वविद्यालय की बलि !

माखनलाल चतुर्वेदी (राष्ट्रीय) पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय आज कुछ ज्यादा ही चर्चा में है। चर्चा और विवादों में तो यह शुरु से ही रहा है। आज कुछ लोगों की व्यक्तिगत आशा, अपेक्षा और महत्वाकांक्षा के कारण यह विश्वविद्यालय कुछ अधिक चर्चा में है। पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र के कार्यकाल पूरा होने और नए कुलपति के लिए नामों की चर्चा ने विश्वविद्यालय को और अधिक चर्चित किया। वर्तमान में विश्वविद्यालय का विवाद अपने चरम पर है। ताजा विवाद रीडर के पद कार्यरत पुष्पेन्द्रपाल सिह को पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष पद से हटाने को लेकर है।

उल्लेखनीय है कि पीपी सिंह एक आरोप की जांच के मददेनज़र तात्कालिक तौर पर विभागाध्यक्ष की कुर्सी से हटाया गया है। विवि के अधिकारियों के अनुसार पत्रकारिता के विभाग की एक शिक्षिका श्रीमती ज्याति वर्मा की शिकायत और महिला आयोग की नोटिस के कारण उन्हे यह कदम उठाना पड़ा है। यह सब निष्पक्ष जांच के लिए जरूरी है। शिकायतकर्ता के अनुसार मांगे जाने पर पीपी सिंह अपने ही खिलाफ दस्तावेज कैसे उपलब्ध करायेंगे। इसलिए जांच होने तक किसी अन्य को विभागाध्यक्ष का दायित्व देना लाजिमी है। दरअसल विवाद का कारण जो बताया जा रहा है वह नहीं, उसके बजाए कुछ और है। शुरू से ही विवादों को कई दिशाओं में फैला दिया गया। ताकि कोई भी विवादों की तह तक नहीं जा सके।

गौर करें, प्रो. कुठियाला के आने के नाम से ही उनका विरोध शुरु हो गया। उनके विरोध में तरह-तरह की दलीलें पेश की गई। मसलन- कुठियाला संघी हैं, उन्हें पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है, वे बाहरी हैं। कुलपति बनने की फिराक में लगे कुछ लोगों ने विवि के लिए अपनी मर्जी से योग्यताएं और अनुभव तय करना शुरू कर दिया। काई कहने लगा यहीं, मध्यप्रदेश का या भोपाल का कुलपति चाहिए। कोई कहने लगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति काई पत्रकार होना चाहिए। किसी ने नहीं पूछा कि जब सुमित बोस, शरदचन्द्र बेहार, अरविन्द जोशी और भागीरथ प्रसाद कहां से पत्रकारिता का अनुभव लेकर आए थे। पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र भी पीएचडी नहीं थे, लेकिन कइयों को उन्होंने उपाधि प्रदान की। राज्य शासन द्वारा गठित एक समिति ने जब प्रो. कुठियाला का नाम कुलपति के लिए तय कर दिया तो विरोध करने वाले देखते रह गए। बाद में इन्हीं विरोधियों ने सुनियोजित रूप से मीडिया का दुरुपयोग कर कुठियाला का चरित्र हनन करने का प्रयास भी किया। एक संघी की चरित्र हत्या करने के लिए कांग्रेसी, कम्युनिस्ट और समाजवादी सब भाई-भाई हो गए।

प्रो बृजकिशोर कुठियाला कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के विभागाध्यक्ष रहे हैं। वे पत्रकारिता के शीर्षस्थ संस्थान भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से संबद्ध रहे हैं। कार्यभार ग्रहण करते हुए प्रो. कुठियाला ने कहा िकवे विश्वविद्यालय की अकादमिक परंपरा का निर्वहन करते हुए कोशिश करेंगे कि वर्तमान संदर्भ में मीडिया की आवश्यकताओं के अनुरुप जनसंचार के क्षेत्र में कार्य करने वाले मूल्यनिष्ठ और राष्ट्रनिष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण हो।

कुठियाला को शायद विवि की गुरु-शिष्य परंपरा और अकादमिक परंपरा का सही अनुमान न रहा हो। लेकिन कुछ ही समय में उन्हें यहां की अकादमिक और प्रशासनिक स्थिति का अंदाजा हो गया। आते ही उन्हें विरासत में शोध परियोजना में बेहिसाब घपले, विधानसभा की समिति द्वारा जांच और आग में ध्वस्त कम्प्युटर सेंटर मिला। कुठियाला के आने के पूर्व ही रेक्टर ओपी दूबे विवादों के कारण इस्तीफा देकर चले गए थे। कुछ ही समय बाद डारेक्टर आईटी जेआर झणाने भी सेवा मुक्त होकर चली गई। मीडिया, बुद्धिजीवी और राजनीतिक दल सब चुप रहे। इतना सब कुछ शांति से चल रहा था। सब चैन की बंशी बजा रहे थे।

कुठियाला के आते ही सब बेचैन हो गए। सबकी बेचैनी वाजिब भी थी। पत्रकारिता का एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय विना किसी प्रोफेसर के वर्षों से संचालित हो रहा था, विश्वविद्यालय के सैकड़ों सेंटर धड़ल्ले से अपनी दुकान शांतिपूर्ण तरीके से चला रहे थे। शोध परियोजना के नाम पर विचारों और राशि की रेवड़ियां बंट रही थी। छात्रों को फर्जी तरीके से मनमाने अंकों से उपकृत किया जा रहा था। आपका जुगाड़ हो तो परीक्षा कॉपियों के भीतर के पन्ने मनमाफिक अंक और उत्तर सामग्री के साथ बदले जा सकते थे। राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का विकास इतनी शांति से हो रहा था, जैसे सुप्त बौद्धिक क्रंाति घट रही हो मध्यप्रदेश की धरा पर। कुठियाला ने इस सुप्त क्रांति में हलचल पैदा करने की कोशिश की। कुठियाला आंखों की किरकिरी बन गए। बस क्या था, विश्वविद्यालय की सुप्त बौद्धिक क्रांति के वाहकों ने तय किया कि आंख रहे या जाए इस किरकिरी को खत्म करो।

कुठियाला ने आते ही हिदायत दी – अध्यापन और शिक्षण का काम करना है तो अपने को अपडेट रखो। कम्प्यूटर सीखो, इंटनेट का इस्तेमाल करो। खुद भी स्वाध्याय करो, छात्रों को भी प्रेरित करो। उन्होंने मंशा जाहिर की इस राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को सही में राष्ट्रीय दर्जा दिलाना है। यूजीसी की मान्यता और अनुदान प्राप्त करना है। जरूरत पड़े तो राष्ट्रीय स्तर के ख्याति प्राप्त प्रोफेसर और विशेषज्ञों की सेवाएं प्राप्त की जाए। वर्षों से एकाधिकार और वर्चस्व स्थापित किए कुछ लोगों को यह सब नागवार गुजरा। अपनी दुकान और एकाधिकार की सत्ता पर खतरा देख कुछ स्वनामधन्य गुरु उठ खडे हुए। ‘इस्लाम खतरे में’ की तर्ज पर ‘विश्वविद्यालय खतरे में’ का नारा बुलंद कर दिया गया। कुठियाला के खिलाफ जेहाद छेड़ दिया गया। लडाई का तरीका भी गुरिल्ला! मीडिया, प्रशासन, सरकार और विश्वविद्यालय के मोर्चे पर लडाके तैनात कर दिए गए। पहले शिक्षकों का लामबंद किया गया, फिर छात्रों और कर्मचारियों कोे। जब तक एक को छले जाने का अनुभव होता तब तक दूसरा मोर्चा खुल चुका होता। जब तक कर्मचारियों और कुछ शिक्षकों और छात्रों को मामला समझ में आता तबतक लड़ाई के राजनैतिक मोर्चे खेल दिए गए। एनएसयूआई का प्रदर्शन और कांग्रेस का बयान इसी जेहाद का हिस्सा था।

लेकिन ये जेहादी पत्थरबाजी और छापामारी में यह भूल गए कि उनके भी घरौंदे कांच के हैं। शुरुआती दिनों से ही कुठियाला का विरोध करने वालों में पीपी सिंह और श्रीकांत सिंह का नाम सरगना के तौर पर लिया जा रहा था। बाद में यह बात चर्चा में आई कि श्रीकांत सिंह मजबूरी और दबाव में उपयोग कर लिए गए। जैसे पहले कर्मचारियों का उपयोग कर लिया गया। पीपी सिंह के कृत्यों का भांडा तब फूटा जब पत्रकारिता विभाग की एक शिक्षिका ने उन पर मानसिक प्रताड़ना की शिकायत की। गौरतलब है कि काफी पहले ही उस शिक्षिका ने विवि की महिला समिति के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज करायी थी। लेकिन कोंई कार्यवाई न होने के कारण मजबूरन पीड़ित शिक्षिका को राज्य महिला आयोग का सहारा लेना पड़ा। अब चर्चा यह हो रही है कि चूंकि पुष्पेन्द्रपाल विभागाध्यक्ष है और महिला समिति की दो सदस्यों से उनके भावनात्मक संबंध है इसलिए मामले को टाला जा रहा था। जब महिला आयोग ने जांच की और पीपी सिंह को नोटिस दिया तब भंाडा फूटा। पीपी सिंह ने कुलपति से महिला आयोग को दस्तावेज उपलब्ध कराने की अनुमति मांगी। उन्हें अनुमति दे दी गई। लेकिन जब यह सवाल उठा कि संबंधित पीडित शिक्षिका को अगर दस्तावेज चाहिए तो वह किससे आग्रह करेगी। प्रशासनिक जरुरतों के मददेनजर पीपी सिंह से विभागाध्यक्ष की जिम्मेदारी जांच होने तक वापस लेकर जनसंचार विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी को दे दी गई। बस क्या था- पीपी सिंह के इशारे पर पत्रकारिता विभाग के छात्रों-गुंडों ने हंगामा खड़ा कर दिया। कुलपति कार्यालय में तोड़-फोड़ और उत्पात मचाया गया। विश्वविद्यालय के सुरक्षाकर्मियों के अनुसार कुलपति अगर उस समय मौके पर होते तो उनके साथ भी कांेई हादसा भी हो गया होता। बाल-बाल बचे कुलपति। बाद में पत्रकारिता विभाग के ही कुछ छात्रों ने अपने विभागाध्यक्ष के साथ मिलकर संजय द्विवेदी के साथ हाथापाई और बद्तमीजी की। अब कुछ नए पुराने छात्र हटाये गए विभागाध्यक्ष की बहाली के लिए धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं।

जुगाड़, नेतागिरी और प्रबंधन-जनसंपर्क के मामले में पीपी सिंह का लोहा सब मानते हैं। एससी बेहार और अच्युतानंद मिश्र जैसे कुलपति पीपी सिंह के नियंत्रण में काम करते रहे। कुठियाला पर भी वे अपना नियंत्रण चाहते थे। ऐसा न होने और कुलपति द्वारा अन्य विभागों, विभागाध्यक्षों को तरजीह देने तथा कुछ नए प्रयोग करने के कारण पीपी सिंह का एकाधिकार टूट कर बिखड़ गया। अधिकारों का विकेन्द्रीकरण एकाधिकारवादियों को रास नहीं आया। कुठियाला को चुनौति दी गई और परिणाम भुगतने की धमकी भी। उन्हे सुधर जाने का अल्टीमेटम दिया गया। कुठियाला ने कुछ अन्य गलतियों के साथ एक और गलती की। वे डरे नहीं। वे विश्वविद्यालय को ठीक करने का ख्वाब देख रहे थे, उनके विरोधी उन्हे ठीक करने का ताना-बाना बुनते रहे।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में जारी संघर्ष अब काफी आगे निकल चुका है। विश्वविद्यालय छात्रो-शिक्षको व कर्मचारियों के बीच से निकल कर संघर्ष का सिलसिला मीडिया, एनएसयूआई, पत्रकार संगठन, और वामपंथी नेताओं के बीच पहुच गया है। पहले संघ और भाजपा इसे विश्वविद्यालय का मामला समझ कर हल्के में ले रहा था। लेकिन ताजा घटनाक्रम जिसमें श्रमजीवी पत्रकार संघ के शलभ भदौरिया और लज्जाशंकर हरदेनिया ने पीपी सिंह को समर्थन देने की घोषणा की है भाजपा और संरकार के कान खडे़ कर दिए हैं। मामले से दूरी बनाकर चल रहे संघ ने भी इसे गंभीरता से लिया है।

पीपी सिंह समझौता और संघर्ष की दोतरफा रणनीति अपना रहे हैं। कुलपति कुठियाला भी सधे अंदाज में अपनी चालें चल रहे हैं। अब चुनौती कुठियाला के अस्तित्व को है। पीपी सिंह के साथ उनके कुछ छात्र तो हैं ही। मीडिया में उनके कुछ जातीय और क्षेत्रीय मित्र भी हैं। राजनीति के संघ और भाजपा विरोधी खिलाड़ी भी उनकी मदद के लिए आगे आ सकते हैं। पीपी सिंह अवसरवादी हैं इसलिए वे कांग्रेस, समाजवादी, कम्युनिस्ट और अन्य पार्टियों से मदद की काशिश करेंगे ही। यह मदद उन्हे मिल भी सकती है। लेकिन प्रो. कुठियाला अपने मिशन के प्रति संकल्पित दिखते हैं। इसे वे लड़ाई नहीं अपने बड़े उद्देश्य के रास्ते में छोटी अड़चन मानते हैं। लेक्चरर, रीडर, प्रोफेसर और कुलपति की नियुक्ति एक प्रशासनिक और अकादमिक प्रक्रिया है। किसी भी तरह के धरना-प्रदर्शन या समर्थन-विरोध के आधार पर न विभागाध्यक्ष बना जा सकता है और ना ही बने रहा जा सकता है। नियुक्ति और पदोन्नति की भी अपनी एक पक्रिया है। विरोध या अपनी मांगों के लिए भी कुछ जायज तरीके हैं। सभी को उसका पालन और सम्मान करना चाहिए। निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं होगा तो अराजकता फैलेगी। छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों को विश्वविद्यालय के हित के लिए आंदोलन करना चाहिए न कि किसी के व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए। पीपी सिह ने स्वय के रुतबे के लिये समूचे विवि को दांव पर लगा दिया है.

5 COMMENTS

  1. चापलूसी और कुठियाला की कुटिल चालों को समर्थन देने वाले तुम लोग किसी भी व्यक्ति के चरित्र को जाने बिना उस पर कीचड़ उछल रहे हो मूर्खों

  2. इस प्रकार के हंगामे करना वामपंथियों और कांग्रेसियों की आदत रही है… ये चाहते हैं कि सारे विश्वविद्यालयों पर इनका ही कब्जा रहे और उसे वे जमकर लूटते रहें… 🙂

  3. कई विश्वविद्यालयों मैं विभागध्यक्ष्यों को हटा दिया जाता है ट्रान्सफर कर दिया जाता है पर इतना हंगामा नहीं होता| उनका तो किसी को पता तक नहीं चलता| यंहा की गतिविधियों का भी कुछ समय पूर्व तक कोई पता नहीं चलता था| मसलन नियुक्तियों और घोटालों का जो कई समय से जारी था, हाँ एक बार कंप्यूटर लैब मैं सुनियोजित आग की काफी चर्चा रही थी| भूतपूर्व छात्रों का तो ये हाल था बिचारे कभी संस्थान पहुँच जाएँ तो उनको कोई पूछता भी नहीं था| और परिसर मैं ऐसा सन्नाटा छाया रहता था की जैसे की ये कोई फर्जी विश्वविद्यालय हो| और कर्मचारी ऐसी दृष्टि से देखते हैं जैसे कोई उनकी कुर्सी छीन लेगा| यंहा नियुक्तियों का तो ये आलम है की यंहा काम करने वाले चपरासी भी पिछले कुछ सालों मैं अधिकारी बन गए हैं|

    इस संस्थान मैं इतनी गड़बड़ियां थी की कभी अगर छात्र अगर विरोध करते थे तो उनको फ़ैल करने की धमकी मिलती थी| फेकल्टी स्नातक हैं और पीजी की क्लास लेते हैं.

    अब समय आ गया है संस्थान का पुनर्निर्माण हो एशिया का पहला पत्रकारिता विश्वविद्यालय और ऐसी हालत| आईआईएम की छवि उसके भूतपूर्व छात्रों के कारन है जो करोड़ों का पैकेज पाकर संस्थान का नाम रोशन करते हैं| यंहां के सफल छात्र कभी इस संस्थान का रुख नहीं करते न ही यंहा की घटिया राजनीती मैं पड़ते हैं|

  4. माखनलाल चतुर्वेदी (राष्ट्रीय) पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय

    विवाद: रीडर के पद कार्यरत पुष्पेन्द्रपाल सिह को पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष पद से हटाना.

    कारण: पीपी सिंह का एक आरोप की जांच के मददेनज़र तात्कालिक तौर पर विभागाध्यक्ष की कुर्सी से हटाया जाना.

    इस छोटे मसले पर इतना शोर, समझ नहीं आता.

    सम्बंधित भाईयो, बहनों, विद्यार्थी – क्यों इतनी बदनामी कमा रहे हो ? Declare cease fire.

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