हैदराबाद के बाद उन्नाव, कब रूकेगा सिलसिला!

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लिमटी खरे

हैदराबाद में घटी जघन्य घटना के बाद देश भर में पुलिस की कार्यप्रणाली को जायज ठहराने का प्रयास सोशल मीडिया से लेकर हर तरफ किया जाने लगा था। हैदराबाद के बलात्कार फिर हत्या के मामले के उपरांत चार आरोपियों की गिरफ्तारी से लोग काफी हद तक संतुष्ट नजर आने लगे थे। इसके बाद अचानक ही चारों आरोपियों के एनकाऊॅटर को लेकर देश भर में जश्न का माहौल दिखाई देने लगा। इसी बीच उन्नाव की रेप पीड़िता के दम तोड़ देने से एक बार फिर लोगों में मायूसी पसरी दिख रही है। आज जरूरत इस बात की है कि इस मुद्दे पर विचार किया जाए कि बलात्कार के मामलों में कितने लोग दोषी साबित हुए हैं और माननीय न्यायालयों के द्वारा उन्हें दी गई सजा को किस स्तर पर मुकम्मल किया है!

हैदराबाद में बलात्कार और उसके बाद नृशंस तरीके से हत्या के मामले ने पहले तो मीडिया ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। बाद में जब इस मामले के चार आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया उसके बाद मीडिया का ध्यान इस ओर गया। अचानक ही जैसे यह खबर आई कि चारों आरोपियों ने भागने की कोशिश की और पुलिस के द्वारा उनका एनकाऊॅटर कर दिया तब मीडिया ने चीख चीखकर इस मामले को सर पर उठा लिया था। इसी बीच उन्नाव की रेप पीड़िता के दम तोड़ने की खबरों से देश में मायूसी पसर गई है। यह सच है कि जब भी इस तरह की घटनाएं घटती हैं समाज उद्वेलित तो होता है पर लोगों की उद्वेलनामहज दो चार दिनों की ही होती है और कुछ ही दिनों में यह सब समाप्त होकर जीवन पुराने ढर्रे पर लौटता दिखता है। इसी के चलते हुक्मरान भी इस बात को भांप जाते हैं कि जो कुछ हो रहा है वह चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात की तर्ज पर ही हो रहा है। अर्थात लोगों के इस गुस्से के बाद भी समाज और व्यवस्थाओं को आज के समय के हिसाब से बेहतर बनाने के लिए हुक्मरान भी कोई ठोस कदम नहीं उठा पाते हैं।

1978 में सोशल मीडिया का अता पता नहीं था। इस दौर में रंगा और बिल्ला के द्वारा संजय और गीता चौपड़ा के साथ जिस तरह की हैवानियत की थी उसके बाद देश भर में गुस्सा तेजी से उभरा था। उस दौर में सियासी बियावान में ईमानदारी, नैतिकता और मूल्य परक राजनीति अस्तित्व में हुआ करती थी। यही कारण था कि लोगों के गुस्से को देखते हुए सरकारों ने इसकी चिंता करते हुए कानून और व्यवस्था की स्थिति में काफी हद तक ठोस सुधार किए गए थे। इसके बाद लगभग दो दशकों तक छिटपुट घटनाएं तो घटीं पर दुर्दांत तरीके से किसी के साथ बलात्कार या हत्या के मामले प्रकाश में नहीं आए।

देखा जाए तो सरकारों के द्वारा समाज के विरोधियों के साथ बरती जाने वाली सख्ती से एक संदेश समाज के अंदर जाता है। सरकारों की ढीली पोली कार्यशैली का फायदा जरायपेशा लोग उठाते नजर आते है। जबसे सियासी हल्कों में अपराधियों की आमद हुई है और मसल तथा मनी पावर की पूछ परख बढ़ी है उसके बाद से सियासी बियावान को अपराधियों की शरण स्थली भी माना जाने लगा है। आज के समय में देश में कितने फीसदी सांसद, विधायक एवं अन्य जनप्रतिनिधियों पर संगीन मामले विचाराधीन हैं! क्या देश में संगीन मामलों के आरोपियों को चुनाव लड़ने से रोकने का कानून नहीं बन सकता है। सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर भी बहस चल पड़ी है कि जेल में निरूद्ध एक अपराधी को वोट देने का अधिकार नहीं होता है पर जेल में निरूद्ध व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है!

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आरंभ में 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया काण्ड के बाद देश वासियों का गुस्सा जमकर उबला था। निर्भया के साथ हुए घटनाक्रम ने देश के नागरिकों विशेषकर युवाओं को जमकर झझकोर कर रख दिया था। देश में इस दौर में एक जागृति महसूस की जा रही थी। इसके बाद अब तक इस मामले के दोषियों को फांसी पर नहीं लटकाया जा सका है। कहा जा रहा है कि देश में जल्लादों की कमी है। अगर देश में फांसी देने का प्रावधान है तो फिर जल्लादों की भर्ती जेलों में क्यों नहीं की जाती रही है! इस तरह के प्रश्न न तो किसी सांसद ने न ही किसी विधायक ने लोकसभा या विधान सभा में उठाए हैं। जब देश के महामहिम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या रेल मंत्री के लिए सर्वसुविधायुक्त रेल के रैक आज भी दिल्ली के रेल्वे यार्ड में खड़े रखे गए हैं। इनकी नित्य साफ सफाई आदि की जाती है, जबकि जिनके लिए ये खड़े हैं उन माननीयों ने इनमें सालों से यात्रा न की हो तो फिर हर राज्य में कम से कम चार पांच केंद्रीय करागारों में जल्लादों की भर्ती क्यों नहीं की गई है। हमारा कहने का तातपर्य महज इतना है कि जब फांसी की सजा का प्रावधान देश के कानून में है तो फांसी देने वाले जल्लादों के पद रिक्त क्यों हैं!

महिलाओं के साथ उत्पीड़न के मामले आज नए नहीं हैं। सदियों से महिलाओं के साथ इस तरह का दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। महिलाओं के साथ उत्पीड़न के मामले जब ज्यादा चर्चित होते हैं तब सरकारों के द्वारा कुछ कदम उठाए जाने की बात पर विचार किया जाता है पर जैसे ही इस तरह के मामले अखबारों के तीसरे चौथे पन्ने में सिंगल कॉलम की खबर बनकर दम तोड़ने लगते हैं तो सरकारों के द्वारा भी इन्हें बिसार ही दिया जाता है।

पिछले साल मी टू का मामला उछला। जो पीढ़ी आज अठ्ठारह साल की हो रही होगी उनके लिए इस तरह के मामले अभी ताजे ही होंगे। उमर दराज हो रही पीढ़ी ने इससे ज्यादा देखा सुना होगा। इस तरह के मामले निश्चित तौर पर युवा पीढ़ी के दिल दिमाग पर कुछ न कुछ असर तो डाला ही जाता होगा। क्या सरकारों का यह दायित्व नहीं है कि इस तरह के मामलों से युवा पीढ़ी पर क्या असर पड़ रहा है इसका अध्ययन कराया जाए। अगर सरकार इस तरह का जतन करती है तो निश्चित तौर पर सरकारों को कठोर कानून बनाने में मदद मिल सकती है।

देश में अनेक मामले इस तरह के भी प्रकाश में आ चुके हैं जिनमें रसूखदार या ताकतवर आरापी सदा ही प्रशासनिक तंत्र पर हावी होते नजर आए हैं। सरकार में शामिल लोग (प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों) की आयु कम नहीं है। इस लिहाज से माना जा सकता है कि देश में घटने वाले घटनाक्रमों को बार बार उन्हें याद दिलाने की जरूरत शायद नहीं ही है। पता नहीं सरकारों के द्वारा इस तरह के घटनाक्रमों में कठोर कदम उठाने के बजाए इस तरह की घटनाओं को तात्कालिक उद्वेलना या सनसनी के रूप में क्यों देखा जाता है।

यह सही है कि समाज की सोच रातों रात नहीं बदली जा सकती है। समाज की सोच बदलने में पीढ़ियां लग जाती हैं। सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त होने में दशकों लग गए। इसका कारण यह था कि जब इस तरह की कुप्रथाएं अस्तित्व में थीं, उस दौर में संचार तंत्र बहुत ही कमजोर हुआ करता था। आज के संचार क्रांति के युग में सुधारों को अगर लागू किया जाए तो पहले की अपेक्षा कम समय में ही सुधार लाए जा सकते हैं।आज जरूरत इस बात पर विचार करने की है कि बलात्कार सहित अन्य जघन्य अपराधों में सुनवाई और फैसले के लिए समय सीमा तय की जाए। इस तरह के मामलों के अन्वेषण के लिए विशेष दस्ते बनाकर साक्ष्य जुटाने और उन्हें सुरक्षित रखने की प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जाए। इससे ज्यादा जरूरी तो यह है कि बलात्कार सहित यौन हिंसा के मामलों में हर माह जनता के समक्ष राज्यवार घटे अपराध एवं उन अपराधों में समय सीमा में दिए गए फैसलों और फैसलों को अमली जामा पहनाए जाने का लेखा जोखा रखा जाए। इस आधार पर राज्यों में पुलिस की व्यवस्था भी करना हुक्मरानों का नैतिक दायित्व ही है।

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