समाज

कब दूर होगी अछूत की शिकायत

-संजय कुमार

”जनगणना 2011” में जातिगत जनगणना की चर्चा से ही भूचाल सा आ गया है। मीडिया में एक तरह का अघोषित युद्ध लेखकों ने छेड़ रखा है। कोई विरोध में खड़ा है तो कोई समर्थन में। हाल आरक्षण वाला है। तर्क पर तर्क दिये जा रहे हैं। सच्चाई को दरकिनार कर हर कोई अपनी बात मनवाने में लगा है कि वह जो कह रहा है वहीं सच है बाकि सब गलत? लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जातिगत जनगणना का विरोध आखिर क्यों? तर्क दिया जा रहा है कि इससे मानव-मानव में दूरी बढ़ेगी? जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा? सच यह है कि आज के भारतीय वर्ण व्यवस्था वाले समाज में हर कोई इसके घेरे में हैं। मजेदार बात यह है कि इस वर्ण व्यवस्था में कई जगहों पर लोगों को आवेदन फॉम आदि दस्तावेजों पर अपनी जाति भरनी पड़ती है। वैसे कोई भी इसका विरोध नहीं करता है। मसला जनगणना का है और बौखलाहट शायद इसके कथित परिणाम से?

आजादी के इतने साल बाद भी सवर्ण सामाजिक व्यवस्था में किसी ने दलितो को अपनाने व बराबरी का दर्जा नहीं किया? आज भी उनके मंदिर में घुसने पर अघोषित रोक है, हक की बात करने पर दलित की जीभ काट ली जाती है, सरेआम मारा-पिटा जाता है, उनके लिए अलग से कुंआ…..और न जाने क्या-क्या? दलितों के साथ होते अन्याय की चर्चा आये दिन मीडिया में होती रहती है। कहने के लिए उन्हें आरक्षण मिला है, जिस पर समाज का एक तबका नाक-भौं सिकोड़ता रहता है। वर्षो से समाज के अंदर जो बराबरी-गैरबराबरी का मामला है-बरकरार है। सवाल उठता है कि क्या सवर्ण समाज ने दलितों को बराबरी का दर्जा दिया है? आश्‍चर्य है कि आज हम जाति का विरोध कर रहे है। विराध करने वालों ने कभी जाति आधारित समाज के खात्मे की बात की है? किया भी तो हलके ढंग से। जातिगतसूचक सरनेम को हटा नहीं पाये। बात केवल दलितों के लिए नहीं है यही बात ओबीसी के साथ भी है। खतरा सवर्ण समाज को दिखने लगा है। समाज की बागडोर अपने पास रखने वाले सवर्ण समाज की जब जातिगत व्यवस्था को तोड़ने में कोई भूमिका नहीं रही तो आखिर जातिगत जनगणना से उनके पेट में गुदगुदी क्यों। चलिये 1914 में एक डोम की लिखी कविता पर नजर डालते हैं जो आज भी देश के कई क्षेत्रों में इसकी प्रासंगिकता साफ नजर आती है।

”अछूत की शिकायत”

हीरा डोम

हमनी के राति दिन दु:खवा भोगत बानी

हमनी के सहेब से मिली सुनाइबि।

हमनी के दु:ख भगवानओ ने देख ताजे,

हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।

पादरी सहेब के कचहरी में जाइबजां,

बेधरम होके रंगरज बनी जाइबि।

हाय राम! धरम न छोड़ते बनत बाते

बेधरम होके कैसे मुहंवा देखाइबि।

खंभवा के फारि पहलाद के बचवले जां,

ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले।

धोती जुरजोधना कै भइया छोरत रहै,

परगट होके तहां कपड़ा बढ़बले।

मरले रवनवां के पलले भभिखना के,

कानी अंगुरी पै धैके पथरा उठवले।

कहवां सुतल बाटे सुनत न बाटे अब,

डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले ।

हमनी के राति दिन मेहनत करीलेजां,

दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।

ठाकुर के सुखसेत घर में सुतल बानीं,

हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।

हाकिमे कै लसकरि उतरल बानीं,

जेत उहओं बेगरिया में पकरल जाइबि।

मुंह बान्हि ऐसन नोकरिया करत बानीं,

ई कुलि खबरि सरकार के सुनाइबि।

बभने के लेखे हम भिखिया न मांगबजां,

ठाकुरे के लेखे नहि लउरी चलाइबि।

सहुआ के लेखे नहि डांडी हम मारबजां,

अहिरा के लेखे नहि गइया चोराइबि।

भंटउ के लेखेन कवित्ता हम जोरबजां,

पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइबि।

अपने पसिनवां के पइसा कमाइबजां,

घर भर मिली जुली बांटि चोंटि खाइबि।

हड़वा मसुइया कै देहियां है हमनी कै,

ओकरै के देहियां बभनओं कै बानी।

ओकरा के घरै-घरै पुजवा होखत बाजे,

सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।

हमनी के इनरा के निगिचे न जाइलेजां,

पांके में से भरि भरि पियतानी पानी।

(‘सरस्वती’ के सितम्बर,1914 में प्रकाशित)

हीरा डोम ने उस समय के दलित संवेदना को जिस ढंग से कविता में रखा उसका स्वरूप आज भी बरकरार है। दलित के दु:ख दर्द और उसके पीड़ा के प्रति समाज ही नहीं भगवान द्वारा आंख मूंद लेने पर उन्हें कोसते हुए, उस पीड़ा से निकलने के लिए धर्मान्तरण की तरफ मुखतिब होता है लेकिन अंतिम क्षण में उसे खारिज कर देता है। और इसके पीछे दलित का आत्म सम्मान (कैसे मुहंवा देखाइबि) सामने आ जाता है। हीरा डोम कहते हैं-

हमनी के दु:ख भगवानओं ने देख ताजे,

हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।

पादरी सहेब के कचहरी में जाइबजां,

बेधरम होके रंगरज बनी जाइबि।

हाय राम ! धरम न छोड़ते बनत बाते

बेधरम होके कैसे मुहंवा देखाइबि।

ऐसा नहीं कि हीरा डोम भगवान से डर कर धर्मान्तरण को खारिज करते हैं बल्कि अगले ही क्षण उनकीकविता डोम को छूने से डरे भगवान के सामने खड़ा हो जाता है।

खंभवा के फारि पहलाद के बचवले जां,

ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले।

धोती जुरजोधना कै भइया छोरत रहै,

परगट होके तहां कपड़ा बढ़बले।

मरले रवनवां के पलले विभीषण के,

कानी अंगुरी पै धैके पथरा उठवले।

कहवां सुतल बाटे सुनत न बाटे अब,

डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले ।

खंभा फांड कर प्रह्लादद को, ग्राह के मुंह से गजराज को, द्रोपदी को बचाने के लिए कपड़ा देने, रावण को मारने व विभीषण को पालने, कानी उंगली पर पहाड़ उठाने वाले भगवान से हीरा डोम साफ शब्दों में कहते हैं कहां सोये हैं, सुनते नहीं या डोम को छूने से डरे हैं? डोम से डरे भगवान अपने आप कई सवाल छोड़ जाता है। भगवान और समाज डोम के स्पर्श से भले ही कतराते हो। लेकिन कहा जाता है कि इसी सामाजिक व्यवस्था में डोम के बिना मरने वालों को मोक्ष नहीं मिलता है। श्मसान घाट पर डोम राजा के हाथों दी गयी अग्नि से चिता को आग के हवाले किया जाता है। कैसी विडंबना है कि जीते जी डोम के स्पर्श से कतराने वालों को जीवन के अंतिम क्षण में डोम की याद आती है। दूसरी ओर हीरा डोम की भगवान से शिकायत आज भी प्रासंगिक है। आये दिन खबर आती है कि समाज के ठेकेदारों ने गाहे-बगाहे मंदिर में ताला जड़ कर दलितों को पूजा पाठ व भगवान के दर्षन से रोका। तभी तो हीरा डोम कहते है कि भगवान प्रह्लाद को, ग्राह को, द्रौपदी आदि को बचाने आते लेकिन डोम को छूने से डरते हैं ?

कविता में हीरा डोम ने श्रम को भी मुद्दा बनाया है। दलितों के काम को गंदा व घिनौना माना जाता रहा है। इसके जवाब में हीरा डोम अन्य जातियों के श्रम पर सवाल उठाते हैं। और कहते हैं-

बभने के लेखे हम भिखिया न मांगबजां,

ठाकुरे के लेखे नहि लउरी चलाइबि।

सहुआ के लेखे नहि डांडी हम मारबजां,

अहिरा के लेखे नहि गइया चोराइबि।

भंटउ के लेखेन कवित्ता हम जोरबजां,

पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइबि।

अपने पसिनवां के पइसा कमाइबजां,

घर भर मिली जुली बांटि चोंटि खाइबि।

मतलब, ब्राह्मणों की तरह हम भीख नहीं मांगेंगे, ठाकुरों की तरह लाठी नहीं चलायेगे, बनियों की तरह डंडी नहीं मारेंगे, अहीरों की तरह गाय नहीं चरायेगे……….। हाँ हम अपने पसीने से पैसा कमायेगे और मिल बांट कर खाएंगे। यह बात आज के तथाकथित स्वर्ण समाज के गाल पर तमाचा भी है। जब-जब आरक्षण का सवाल उठा तब-तब स्वर्णों ने आंदोलन चला कर विरोध किया। आंदोलन के दौरान झाडू लगाने, जूता में पॉलिस लगाने आदि श्रम को अपनाते हुए विरोध करते हैं। मानो यह काम बहुत ही घिनौना है और जैसे कि यह सिर्फ दलितों का ही काम हो! ऐसा करके तथाकथित स्वर्ण समाज आज भी सदियों पुरानी दृष्टिकोण रखता है। ऐसे में हीरा डोम की शिकायत उनके वैचारिक सोच पर भारी पड़ जाता है।

अंत में हीरा डोम एक बड़ा ही मानवीय सवाल उठाते हैं जो आज भी यथावत है। देखिये इसकी बानगी-

हड़वा मसुइया कै देहियां है हमनी कै,

ओकरै के देहियां बभनओं कै बानी।

ओकरा के घरै घरै पुजवा होखत बाजे,

सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।

हमनी के इनरा के निगिचे न जाइलेजां,

पांके में से भरि भरि पियतानी पानी।

कवि इसमें आदमी-आदमी के बीच के विभेद को सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं एक ही हाड़ मांस को देह हमारा भी है और ब्राह्मण का भी, फिर भी ब्राह्मण पूजा जाता है। पूरे इलाके में ब्राह्मण की जजमानी है और हम दलितों को कुआं के पास भी नहीं जाने दिया जाता है, किंचड़ से पानी निकाल कर पानी पीते हैं। सच भी है आज भी दलितों को उन कुओं से पानी नहीं भरने दिया जाता है जहां स्वर्ण जाति के लोग पानी भरते हैं। गलती से कोई दलित कुआं के पास चला भी गया तो उसका हाथ-पैर तोड़ दिया जाता है।

करीब एक सौ साल पूर्व लिखी हीरा डोम की यह कविता आज भी जीवंत व प्रासंगिक है। हीरा डोम ने कविता के माध्यम से अपनी जाति की संवेदनशीलता को सामने लाया साथ ही अपने आत्म-सम्मान को स्थापित भी किया, जो अपने आप में बड़ी बात है। महादलित विमर्श की जब-जब चर्चा होती है तब-तब बिहार के हीरा डोम की वह शिकायत सामने आती है। जो उन्होंने 1914 में की थी। डोम जाति की पीड़ा को हीरा डोम ने शब्दों में वर्षों पूर्व पिरोया था। देश आजाद हुआ, हालात बदले, लेकिन हीरा डोम के लिखे एक-एक शब्द आज भी प्रासंगिक है। भगवान, समाज, व्यवस्था व सरकार से की गई भोजपुरी में उनकी शिकायत को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘अछूत की शिकायत’ नाम से कविता के रूप में ”सरस्वती” के सितम्बर,1914 के अंक में प्रकाशित किया था। दलित विमर्श में हस्तक्षेप करती हीरा डोम की कविता ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने वाली संभवत: पहली और एकमात्र भोजपुरी कविता थी। और वह भी एक दलित की। भोजपुरी में लिखी गयी कविता ने वर्षों से भारतीय समाज में उपेक्षित और अछूत रहे डोम जाति के उस दर्द को सामने लाया है जिसे देख हर कोई अपनी आंखें मूंद लेता है। जिसमें इंसान तो शामिल हैं ही भगवान भी पीछे नहीं हैं।