उ.प्र. का निराशाजनक राजनीतिक परिदृश्य

1
173

सुनील अमर

लोकतांत्रिक प्रणाली में प्रबल बहुमत क्या सत्तारुढ़ राजनीतिक दल के भविष्य के लिए बहुत मुफीद नहीं होता ? क्या ऐसा होना उन्हें प्रशासनिक निरंकुशता और सांगठनिक उदासीनता की दिशा में ले जाता है ? या राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का समाप्त हो जाना ही इन सारी समस्याओं का कारण है ? देश के सबसे बड़े प्रदेश में जो मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य इन दिनों है, उसका विश्लेषण तो यही बताता है। कॉग्रेस को अगर जरा देर के लिए किनारे कर दें तो भाजपा की बोलती बंद है, सपा गहरी हताशा में है, बसपा चार साल के निर्बाध शासन के बावजूद एक शून्य जैसी स्थिति में है और उसके पास ऐसे चार मुद्दे भी नहीं हैं जिन्हें वह मतदाताओं के सामने रखकर उन्हें बसपा को वोट देने को विवश कर दे !

जहॉं तक कॉग्रेस की बात है, वह पार्टी में बैलेट के जरिए आंतरिक लोकतंत्र बहाल करने में योजनाबद्ध ढंग से लगी हुई है। उसका एक राष्ट्रीय महासचिव पिछले कई वर्षों से घूम-घूम कर देश की भौगोलिक, सामाजिक व आर्थिक स्थितियों को समझने की कोशिश कर रहा है। लोगों के बीच इस तरह जाकर उनकी बात सुनना देश के राजनीतिक दलों के लिए इतिहास की बात हो चुकी है। प्रदेश में 2012 में चुनाव होने हैं और अभी गत सप्ताह मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी ने यहॉ का दौरा कर मतदान-तिथि निर्धारित करने की जॉच-पड़ताल की है। उनके आगमन ने प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों को रफ्तार पकड़ा दी है लिहाजा प्रत्याशी घोषित करने में सुस्त पड़ी कॉग्रेस और भाजपा ने भी सूची जारी करनी शुरु कर दी है।

देश में दूसरे नम्बर की राष्ट्रीय पार्टी भाजपा प्रदेश में तीसरे स्थान पर है। बीते कुछ उप चुनावों – पंचायत चुनावों के नतीजों पर ध्यान दें तो वह इस तीसरे स्थान से भी नीचे खिसक चुकी है। केन्द्र और प्रदेश की सत्ता से हटे उसे आधा दशक से ज्यादा समय हो रहा है, लेकिन इस अवधि में वह न तो सांगठनिक मजबूती बना पाई है और न ही उसने जन समस्याओं को लेकर ऐसा कोई आंदोलन-अभियान चलाया कि वह जनता का विश्वास जीत सके। उल्टे पड़ोसी राज्य उत्तराखंड से लेकर हिमाचल व कर्नाटक आदि में चल रही अपनी राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार व अन्य हास्यास्पद कारनामों के नित नये खुलासों के कारण वह जनता की अदालत में हमेशा कटघरे में खड़ी दिखती है। श्री नितिन गड़करी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। यद्यपि वे अपना कार्यकाल पूरा करने के चरण में हैं बावजूद इसके वे न तो पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई को समझ पाये और न प्रदेश के नेता-कार्यकर्ता उनकी कार्य शैली को। एक अनुभवहीन नेता की तरह वे नाना प्रकार के प्रयोग यहॉं करते रहे और तमाम छॅटे यानी रिजेक्टेड तथा बड़े नेताओं को एक के उपर एक लादकर सांगठनिक तौर पर उन्होंने यहॉं ऐसी हास्यास्पद स्थिति बना दी है कि अब ‘‘ज्यादा जोगी, मठ उजाड़’’ वाली कहावत चरितार्थ होने को है।

इन बड़े नेताओं ने अब अपने कुनबे को टिकट दिलाने के लिए अपना सारा प्रभाव लगाना शुरु कर दिया है जिससे पार्टी के समर्पित नेताओं में गहरी हताशा और क्षोभ है और इसी वजह से प्रत्याशियों की सूची जारी करने में चुनाव प्रभारियों को पसीने छूट रहे हैं। जहॉ तक मुद्दे की बात है, भाजपा अपनी प्रतिद्वन्दी पार्टियों- बसपा और कॉग्रेस से भ्रष्टाचार और मॅंहगाई जैसे मुद्दों पर नहीं लड़ सकती क्योंकि इन दोनों मसलों पर उसका स्वयं का अतीत और वर्तमान दोनों बहुत ही दागदार है। बहुत गूढ़ कूटनीतिक मुद्दे जैसे परमाणु अप्रसार, विदेश नीति, परमाणु रियेक्टरों की स्थापना, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को नाना प्रकार के व्यापार की अनुमति, जनलोकपाल, महिला आरक्षण आदि-आदि, हो सकता है कि पढे़-लिखे वर्ग में कुछ हलचल पैदा करें लेकिन आम मतदाताओं के लिए तो ये सब अबूझ बातंे होती हैं। उस पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ता। भाजपा के स्थाई मुद्दे जैसे राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 की समाप्ति और समान नागरिक संहिता आदि अब मजाक के विषय सरीखे हो चुके हैं जिन पर पार्टी के दोयम दर्जे के नेता और कार्यकर्ता कभी-कभी आपस में ही चुहलबाजी कर लेते हैं। पार्टी किस तरह मुद्दा विहीन और असमंजस का शिकार है, इसका पता इसी से चल जाता है कि अभी तमाम लटके-झटके के बाद पार्टी में वापस हुई उमा भारती को जब अपनी मौजूदगी दिखाने की सूझी तो कार्यक्रम बनाया गया गंगा आरती और सफाई अभियान का! मानों देश-प्रदेश में आज की तारीख में सबसे बड़ी आवश्यकता गंगा आरती की ही है!

प्रदेश का मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी है। अभी एक दशक पूर्व गजब का राजनैतिक तेवर रखने और दिखाते रहने वाली इस पार्टी में लगता है कि सुप्रीमो मुलायम सिंह की उम्र बढ़ने से साथ-साथ ठहराव सा आ गया है। अपने तीसरे मुुख्यमंत्रित्वकाल में वे न सिर्फ समाजवादी क्रियाकलापों व सिद्वांतों से विचलित दिखायी पड़े बल्कि कॉग्रेस के कथित परिवारवाद की कभी जमकर मुखालफत करने वाले मुलायम सिंह आज परिवारवाद के प्रतीक बन गये हैं। समाजवादी पार्टी में भी आंतरिक चुनाव के बजाय मनोनयन प्रक्रिया ही लागू है और राष्ट्रीय अध्यक्ष का पूरा परिवार यानी भाई-भतीजा और बेटा-बहू यही सब पार्टी के सर्वोच्च पदों पर विराजमान हैं। महज संतुलन साधने की गरज़ से मोहन सिंह व बृजभूषण तिवारी जैसे नेताओं को महासचिव बनाया गया है। अपने स्थापना काल से ही सपा ने सिर्फ पिछड़ों व मुस्लिम मतों की राजनीति की थी। मुस्लिम राजनीति में भी उनका लक्ष्य महज बाबरी मस्जिद विवाद ही था। इसमें कोई शक़ नहीं कि मुलायम सिंह ने अयोध्या विवाद के संदर्भ में मुसलमानों की जमकर तरफदारी की लेकिन अब समस्या यह है कि अयोध्या विवाद ही ठंडे बस्ते में चला गया है। यहॉं यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इस विवाद की चरम अवस्था यानि वर्ष 1992 में जिस बच्चे का जन्म हुआ रहा होगा वह भी आज लगभग 20 साल का नौजवान होगा। इस नयी पीढ़ी को चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लिम, अब अपने मौजूदा स्वरुप में अयोध्या विवाद प्रभावित नहीं करता। उनकी प्राथमिकताएंे और सोच अब कुछ और हैं।

दूसरे, अपने पॉच साल के मौजूदा कार्यकाल में मुख्यमंत्री मायावती ने भी पिछड़ों को प्रभावित करने के लिए उनके बाबूराम कुंशवाहा तथा स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं को न सिर्फ अपना दॉया-बॉया हाथ बनाया बल्कि मुस्लिम मतों को भी प्रभावित करने के लिए नसीमुद्दीन सिद्दीकी सरीखे व्यक्ति को अपने सबसे विश्वसनीय मंत्री का तमगा दे रखा है। यह दोनांे चालें भी सपा के लिए नुकसानदेह हैं। असल में बसपा और कॉग्रेस की मजबूती सपा और भाजपा को कमजोर बनाती है क्यांेकि जो तीन-चार किस्म के तथाकथित वोट बैंक बताये जाते हैं उन्हीं को ये सब अपनी-अपनी तरफ खींचने का प्रयास करते हैं। कॉग्रेस का राहुल फैक्टर अगर दलितों और किसानों-जवानों को आकर्षित कर रहा है और मुसलमान पार्टी के मुख्य एजेन्डे पर हैं तो अभी-अभी हुआ केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार बताता है कि पिछड़े तथा ब्राह्मण मतदाता भी उसके निशाने पर हैं।

इस प्रकार बसपा और कॉग्रेस चूॅकि प्रदेश व केन्द्र की सत्ता में हैं तथा मतदाताओं को प्रभावित करने का तंत्र इनके पास है इसलिए ये दोनो दल भविष्य का झुनझुना मतदाताओं को थमा सकते हैं। सपा और भाजपा के पास अभी सिर्फ अतीत का गुणगान ही है। आज का मतदाता निःसन्देह बीस साल पहले का मतदाता नहीं है। वह पहले की अपेक्षा और जागरुक है चाहे वह जिस भी वर्ग से सम्बन्धित हो। ऐसे मंे वह देखता है कि जिसे वह वोट दे रहा हैं वह उसके लिए क्या कर सकने की स्थिति में रहेगा। अभी तो राजनीतिक वातावरण बड़ा सुस्त और धुुंधला सा है और कई प्रकार के गठबंधन बनाने की कोशिशें चल रही हैं लेकिन इतना तो तय है कि आने वाला चुनाव हंगामाखेज नहीं होगा।

1 COMMENT

  1. उत्तर प्रदेश में भाजपा की जो हालत है वह उतनी भी बुरी नहीं है जितनी इस रिपोर्ट में बताई गयी है.प्रत्याशी चयन का काम चल रहा है.मुलायम सिंह व मायावती का रंग ढंग पिछले आठ सालों में प्रदेश की जनता देख भुगत चुकी है. भाजपा के शाशन में भी भ्रष्टाचार था लेकिन उसे मुलायम माया की तुलना में अनदेखा ही किया जा सकता है. उत्तर प्रदेश की जनता को मुलायम के गुंडा राज ने जब सताया तो माया में उम्मीद की किरण दिखाई दी.लेकिन माया ने पब्लिक को मुलायम से भी ज्यादा लूटा है. ऊपर से भीषण जातिवाद.कानून व्यवस्था के मामले में आज भी लोग कल्याण सिंह के पहले मुख्यमंत्री काल को याद करते हैं जब माफिया अपनी अपनी जमानतें तुड़वाकर जेल में सुरक्षा महसूस करने लगे थे अन्यथा उन्हें एनकाउन्टर का डर सताने लगा था.यदि भाजपा ने सही ढंग से प्रत्याशियों का चयन किया और आपसी गुटबाजी को थोडा काबू मार्के चुनाव लड़ा तो भाजपा के लिए इससे अच्छा मौका नहीं होगा. क्योंकि मुलायम माया दोनों को अजमाने के बाद लोग विकल्प तलाश रहे हैं. कांग्रेस केंद्र में ही भ्रष्टाचार के आरोपों में घिर कर अपनी साख लगातार खो रही है. २००९ के चुनाव में जिस किसान कर्ज माफ़ी की योजना और मनरेगा ने कांग्रेस की सीटों में बढ़ोतरी करायी थी जबकि अब मनरेगा में घोटाले आमने आ रहे हैं.अतः भाजपा ही एकमात्र विकल्प दिखाई दे रही है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here