गर्भपात की आजादी पर अमेरीका फैसले से बरपा हंगामा

0
456

-ः ललित गर्गः-

गर्भपात पर अमरीकी सुप्रीम कोर्ट के एक चौंकाने वाले फैसले को लेकर अमेरिका में जहां हंगामा बरपा है वहीं समूची दुनिया में बहस का वातावरण छिड़ गया है। फैसला इसलिए चौंकाने वाला है कि अमरीका में नारी स्वतंत्रता एवं उसकी आजादी को मंत्र की तरह जपा जाता है। वहां ‘स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी’ इसी आजादी का प्रतीक है। अमेरिका में स्त्री-पुरुषों के बीच अवैध शारीरिक संबंधों का चलन इतना बढ़ गया है कि गर्भपात की सुविधा के बिना उनका जीना दूभर हो सकता है। इसके अलावा गर्भपात की सुविधा की मांग इसलिए भी बढ़ गई है कि चोरी-छिपे गर्भपात करवाने पर गर्भवती महिलाओं की मौत हो जाती है। इस संवेदनशील एवं नारी अस्मिता से जुड़े मुद्दे पर दुनियाभर में नए सिरे से बहस छिड़ने का कारण इस पर दो तरह की विचारधाराओं का होना एवं अमरीकी जनमत का विभाजित होना है। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जहां इस गर्भपात के पक्ष में हैं वहीं राष्ट्रपति जो बाइडन इसे भयंकर विडम्बना एवं दुखद मान रहे हैं।
अमरीकी सुप्रीम कोर्ट ने 50 साल पहले अपने ऐतिहासिक फैसले से गर्भपात को महिलाओं का संवैधानिक अधिकार करार दिया था। अब उस फैसले को पलटते हुए उसने अमरीकी महिलाओं से यह संवैधानिक अधिकार छीन लिया है। कोर्ट के फैसले को अमरीका का एक बड़ा वर्ग महिलाओं की आजादी पर ग्रहण बता रहा है और इस वर्ग की दलील है कि अगर महिला को गर्भवती होने का अधिकार है तो उसे इस फैसले का अधिकार भी होना चाहिए कि वह गर्भपात कराये या नहीं। राष्ट्रपति जो बाइडन खुलकर इस वर्ग का समर्थन कर रहे हैं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दुखद बताया और कहा, ‘अदालत ने वह किया, जो पहले कभी नहीं हुआ। यह फैसला अमरीका को 150 साल पीछे धकेलने वाला है।’
अमेरिका के लगभग एक दर्जन राज्यों ने गर्भपात पर प्रतिबंध की घोषणा कर दी है। कोई भी महिला 15 हफ्तों से ज्यादा के गर्भ को नहीं गिरवा सकती है। अदालत के इस फैसले से सारे अमेरिका में इसके विरुद्ध विक्षोभ फैल गया है। वहां कई प्रांतों में प्रदर्शन हो रहे हैं और उनका डटकर विरोध या समर्थन हो रहा है। दरअसल, कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट से गर्भपात कानून का नया मसौदा लीक होने के बाद वहां के कई शहरों में विरोध-प्रदर्शन चल रहे थे। फैसले के बाद यह सिलसिला और तेज हो गया है। यूरोपीय राष्ट्रों के प्रमुख नेताओं ने इस फैसले की कड़ी निंदा की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख टेड्रोस ग्रेब्रेयेसस भी फैसले से चिंतित हैं। उनके मुताबिक यह महिलाओं के अधिकारों और स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच को कम करता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अपनी बड़ी जीत बताते हुए गर्भपात विरोधी वर्ग ने कई शहरों में ‘जश्न’ मनाया। अमरीका के सबसे बड़े प्रोस्टेंट समुदाय दक्षिणी बैपटिस्ट कन्वेंशन के अध्यक्ष बार्ट बार्बर समेत कई ईसाई नेताओं ने फैसले का स्वागत किया, तो कई यहूदी संगठनों ने कहा कि फैसला उन यहूदी परम्पराओं का उल्लंघन करता है, जो गर्भपात की पक्षधर है। अमेरिका की नामी-गिरामी कंपनियों ने उनके यहां कार्यरत महिलाओं से कहा है कि वे गर्भपात के लिए जब भी किसी अन्य अमेरिकी राज्य में जाना चाहें, उन्हें उसकी पूर्ण सुविधाएं दी जाएंगी। चिंताजनक यह है कि जब कई देशों में एक निश्चित अवधि के भ्रूण तक गर्भपात की इजादत देने वाले कानून हैं, अमरीकी सुप्रीम कोर्ट ने अपने यहां गर्भपात पर प्रतिबंध लगाने के रास्ते खोल दिए हैं। अब अमेरिका में जो भी राज्य रूढ़िवादी या रिपब्लिकन या ट्रंप-समर्थक हैं, वे इस कानून को तुरंत लागू कर देंगे। इसका नतीजा यह होगा कि महिलाओं को अपने शरीर के बारे में ही कोई मौलिक अधिकार नहीं होगा।
गर्भपात की सुविधा की मांग इसलिए भी बढ़ गई है कि उन्मुक्त सैक्स में अमेरिकी जनता की गहरी रूचि है और चोरी-छिपे गर्भपात करवाने पर गर्भवती महिलाओं की मौत हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के अनुसार हर साल 2.5 करोड़ असुरक्षित गर्भपात होते हैं, जिनमें 37000 महिलाओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। अब गर्भपात पर प्रतिबंध लगने से इस संख्या में वृद्धि ही होगी। यूरोप के कई देश गर्भपात के अधिकार को कानूनी रूप देने के लिए तत्पर हो रहे हैं। भारत में 24 हफ्ते या उसके भी बाद के गर्भ को गिराने की कानूनी अनुमति है बशर्ते कि गर्भवती के स्वास्थ्य के लिए वह जरूरी हो। भारतीय कानून अधिक व्यावहारिक है। भारत में गर्भपात कानून 1971 से लागू है। पिछले साल इसमें संशोधन कर गर्भपात कराने की सीमा गर्भधारण के 20 हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते की जा चुकी है। गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ को भ्रूण से खतरे, बच्चे के विकृति के साथ जन्म की आशंका और बलात्कार पीड़िताओं के अवांछित गर्भधारण के मामलों में गर्भपात की इजाजत मानवीय दृष्टिकोण से जरूरी है। जबकि भारत में एक वर्ग गर्भपात को एक बहुत क्रूर कर्म मानता है, इसे कराने की बात तो दूर, सोचना भी गलत एवं अमानवीय मानता है। इस वर्ग की मान्यता है कि इस कार्य को करने, कराने और सहयोग देने वाले पाप के भागी होते हैं। गर्भपात एक जीते-जागते जीव की हत्या है। अपने ही कलेजे के टुकड़े की हत्या है, अपने ही हिये के लाल की हत्या है। इसी का दुष्परिणाम है कि हमारे समाज में लड़के-लड़कियों का लिंगानुपात बिगड़ रहा है। इसी कारण आज लड़कों की शादियां नहीं हो पा रही हैं। भारत में अगर महिला की जान बचाने के लिए गर्भपात नहीं किया गया है तो यह भारतीय दंड संहिता की धारा 312 के तहत एक अपराध है। मेडिकल टरमिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के तहत डॉक्टर्स को कुछ विशिष्ट पूर्व निर्धारित स्थितियों में गर्भपात करने की अनुमति होती है। अगर डॉक्टर्स इन नियमों का पालन नहीं करते हैं तो उन पर आईपीसी की धारा 312 के तहत केस चलाया जा सकता है।
गर्भपात के कानूनी हक का तब कोई मायने नहीं रह जाता, जब देश में मातृत्व मृत्यु का सबसे बड़ा कारण असुरक्षित गर्भपात हो। 2015 की स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 56 प्रतिशत गर्भपात असुरक्षित तरीके से किए जाते हैं जिसके कारण हर दिन करीब 10 औरतों की मौत हो जाती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार सर्वेक्षण (2015-16) के अनुसार, सिर्फ 53 प्रतिशत गर्भपात रजिस्टर्ड मेडिकल डॉक्टर के जरिए किए जाते हैं और बाकी के गर्भपात नर्स, ऑक्सिलरी नर्स मिडवाइफ, दाई, परिवार के सदस्य या खुद औरतें करती हैं। अखिल भारतीय ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी (2018-19) में बताया गया है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 1,351 गायनाकोलॉजिस्ट और अब्स्टेट्रिशियन्स हैं और 4,002 की कमी है, यानी क्वालिफाइड डॉक्टरों की 75 प्रतिशत कमी है। जाहिर सी बात है- क्वालिफाइड मेडिकल प्रोफेशनल्स की कमी से महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात सेवाएं उपलब्ध नहीं होतीं। यानी औरतों को अबॉर्शन का हक मिले, इसके लिए सिर्फ कानून को लागू करने से काम चलने वाला नहीं है। इसके लिए अबॉर्शन को किफायती, अच्छी क्वालिटी वाला होना चाहिए और सभी तक उसकी पहुंच होनी चाहिए। इसलिए इससे जुड़ी कानूनी बाधाएं दूर करने के अलावा परंपरागत बाधाएं दूर करने की भी जरूरत है। ये परंपरागत रुकावटें परिवारवाले पैदा करते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 4 के डेटा का कहना है कि देश की हर सात में से एक औरत को प्रेग्नेंसी के दौरान अस्पताल नहीं ले जाया गया क्योंकि उनके पति या परिवार वालों ने इसे जरूरी नहीं समझा। न्यूयार्क के एशिया पेसेफिक जरनल ऑफ पब्लिक हेल्थ में छपे एक आर्टिकल में कहा गया है कि भारत में 48.5 प्रतिशत औरतें अपनी सेहत के बारे में खुद फैसले नहीं लेती। फिर भी अगर हमारा कानून आधुनिक सोच वाला है तो अमेरिका के किसी फैसले का भारत पर क्या असर होगा? गर्भपात के इस मुद्दे पर कानूनी दृष्टि के साथ-साथ मानवीय दृष्टि से विचार करने की अपेक्षा है, विशेषतः नारी संवेदनाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,673 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress