ऋतेश पाठक
अनाथों के नाथ विश्वनाथ के देश में अनाथों की लगातार बढ़ती संख्या आज चिंता का सबब बन रही है। गंभीर हालातों के मद्देनजर सरकारी स्तर पर खूब कागजी घोड़े दौड़ाये जा रहे हैं। ऐसे एकाकी और बेसहारा लोगों के बीच काम कर रही तमाम संस्थाओं में एक नाम है परमशक्ति पीठ का।
पीठ ने उत्तर प्रदेश के मथुरा और वृन्दावन के बीच वात्सल्य ग्राम की स्थापना की है। ‘वात्सल्य ग्राम’ की कल्पना अन्य प्रयासों से बिल्कुल अलग स्वरूप लिए हुए है। इस कल्पना की सूत्राधार साध्वी ऋतंभरा कहती हैं, ‘हमारे यहां पशुपतिनाथ की पूजा होती है। जहां पशुओं के भी नाथ हों उस देश में भला कोई इंसान अनाथ कैसे रह सकता है।’ अपने इसी कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने वात्सल्य ग्राम की योजना को मूर्त रूप दिया।
यहां अनाथ बच्चे भी हैं, परित्यकता भी और वृद्ध महिलाएं भी, लेकिन कोई अकेला या अकेली नहीं। ‘वात्सल्य परिवार’ की व्यवस्था इन सभी को एक सूत्र में बांधकर रखती है। इस व्यवस्था के तहत दस सदस्यों का एक परिवार बनाया जाता है जिसमें पांच बच्चियां, दो बालक, एक माता, एक चाची और एक दादी शामिल हैं। यही परिवारिक माहौल इन लोगों को जीवन की लय से ताल मिलाने का मौका देता है। हर वात्सल्य परिवार को वात्सल्य आवास के रूप में वात्सल्य ग्राम में ही एक घर उपलब्ध कराया जाता है। यहां ऐसा नहीं है कि अगर बेसहारा बच्चे को लाया गया तो सिर्फ उनके खाने-पीने या रहने की व्यवस्था की जाती है।
माता के ममतामयी आंचल का आनंद सिर्फ नौ वर्ष की उम्र तक मिल पाता है। उसके बाद बच्चों को गुरुकुल के कड़े अनुशासन में आना पड़ता है। इसके लिए परिसर के अंदर ही आवासीय विद्यालय बनाया गया है। यहां खास बात है कि यहां अध्ययन-अध्यापन अन्य विद्यालयों की तरह एक खास पाठयक्रम में नहीं सिमटा है बल्कि, आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा को विशेष तरजीह दी जाती है। इस प्रकार इसे शिक्षा के क्षेत्र में भी अभिनव प्रयोग माना जा सकता है।
प्रयोगों का यह दौर यहीं नहीं रुकता। चूंकि बच्चों को संस्कारों और मूल्यों से युक्त करने की बात होती है। इसलिए उनके प्रेरणा स्रोत के रूप में देश के शहीदों को प्रस्तुत किया जाता है। इसके लिए वात्सल्य परिसर में ही अमर शहीद संग्रहालय का निर्माण विचाराधीन है। इस संग्रहालय में लगाये जाने वाले चित्र, अन्य चित्रों से अलग इसलिए हैं क्योंकि उन्हें एक इंसान ने अपने खून से बनाया है। सौ से ज्यादा संख्या में ऐसे चित्र बनाने वाले शख्स हैं दिल्ली के रविचन्द्र गुप्ता।
आम तौर पर देखा जाता है कि नारी निकेतनों में आने वाली महिलाएं कुछेक व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त कर कमाने-खाने लगती हैं और वहीं रह जाती हैं। लेकिन वात्सल्य परिसर में एक अनूठे प्रशिक्षण की योजना है। यहां प्रशिक्षणार्थ आदिवासी लड़कियां आएंगी जरूर, लेकिन प्रशिक्षण के बाद वह अपने क्षेत्रों में लौटकर काम करेंगी। फिलहाल आवास की व्यवस्था न हो सकने के कारण सिर्फ स्थानीय लड़कियां ही इस प्रशिक्षण योजना का लाभ ले रही हैं। वात्सल्य परिसर के अंदर ही अस्पताल, माता प्रशिक्षण केंद्र, आध्यात्मिक प्रशिक्षण केंद्र आदि की उपस्थिति परिसर को एक संपूर्ण गांव का रूप देती है।
सबसे बड़ी बात यह है कि ये तमाम व्यवस्थाएं सिर्फ दान की राशि से संचालित हो रही हैं। इस परियोजना के आरंभ की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। परम शक्ति पीठ के सचिव अरुण शर्मा बताते है कि साध्वी ऋतम्भरा को एक बार एक अनाथ बालक मिला। उन्होंने सोचा कि अकेली रहने वाली कोई माता इस बालक को स्वीकार ले तो दोनों का एकाकीपन भी दूर हो जाएगा और कोई बेसहारा भी नहीं रहेगा। श्री शर्मा कहते हैं, ‘सभी वंचित एक दूसरे के पूरक हैं’ के सिद्धांत को आधार बनाकर यह परियोजना तैयार की गयी। उस बालक के लिए उपयुक्त माता की खोज करके दिल्ली के शाहदरा स्थित वात्सल्य मंदिर में योजना का श्रीगणेश हुआ।
इसके बाद योजना को इतना समर्थन मिला कि ‘वात्सल्य मंदिर’ ‘वात्सल्य ग्राम’ में बदल गया। आज भी इसमें लगातार नये आयाम जुड़ते जा रहे हैं। इस समय कुल बारह वात्सल्य परिवार यहां रह रहे हैं। लगभग एक दशक के सफर के बाद अब माताएं स्वेच्छा से यहां योगदान के लिए आ रही हैं। इतना ही नहीं, यहां रहने वालों की जिंदगी अन्य पुनर्वास केन्द्रों की तरह चारदीवारी में सीमित नहीं है। उन्हें सामाजिक तौर पर अनुकूलित भी किया जा रहा है। यहां पाली गयी सबसे बड़ी बेटी की शादी एक संपन्न परिवार में कर दी गयी है और वह सामान्य जीवन जी रही है।
मीडिया की चमक-दमक और आंकड़ों के खेल से भले ही यह परिसर दूर हो लेकिन जिस तरह इसने बेसहारा लोगों को ही सहारा बनाने का काम शुरू किया है वह सराहनीय है। कम से कम इतना तो कहा जा सकता है कि वात्सल्य ग्राम सामाजिक संस्कारों व मूल्यों की प्रयोगशाला साबित हो रहा है।
जिस देश प्रेम के नाम पर भोग ही शेष रह गया वहा अनाथो की संख्या बढ़ जाए तो क्या बढ़ी बात haii