वाणिनी

0
2209

कुछ ताख की मजबूरी
तो, कुछ लाख की मजबूरी
कुछ छड़ और खनक जा
कुछ पल और सह ले तू इन रोब के उष्णता को
सुन ले ए नृत्यकार , कुछ न कहना रहजा सहन कर संसार के आहट को
समाज के स्वरों की गूंजे गिनाती
मेरी समय को ,के देख यही बिसात तेरी
के तू लाख कर ले प्रयत्न
रहेगी एक साख नाच की पेरी
समझ ले मेरी बेकसी को
करदे त्याग अपने दूरियों को
कुछ छड़ और खनक जा
छोड़ ना देना मेरा साथ कही
इस बिड़ला पल के समय में
तोड़ दे हर बंधन संबंध
तू कुछ देर और खनक जा
पाज़ेब बनकर पैरो में संभल जा
तू खुद को एक बगैर समझ जा
कुछ छड़ तो और खनक जा
लेकर कलंक कृत सौम्य काया
कुछ छड़, कुछ तो कह जा
अपने यातना में तू बह जा
के पाज़ेब के घुंघरू बनकर
कुछ छड़ और खनक जा
रख ले मेरी उस शाश्वत को
दबे अपने आंच में
मैं हूं बेगैरत जाया
बनाले किंजडो से हिस्से
कुछ देर और खनक जा
खत्म हुई मेरी सब हया
अब नहीं कोई भरम
कागा भी कहे है तू एक नचनिया
बनकर हिज्र की सौगात
कुछ देर और खनक जा
समझ ले ए नचनिया रुपाकार
नही स्थान तेरा घुंघरू के उस पार
खुश रह तू अपने पाज़ेब के खनखनाहटो के खन में
नहीं है मुग्ध ये समाज तेरे पग घुंघरू कंकड़ में
कागा भी तुझे कराए स्मरण कोकिला के भांति
के अपने प्राणों के मोहताज़ बख्श खातिर
कुछ देर और थिरक जा
ओ पग घुंघरू,
कुछ छड़ और खनक जा
नही खनकी तो खत्म हो जाएगी
तेरे पग घुंघरू कंकड़
के,
सुन ले ओ नादान वारांगना
क्यों कर रही करबत पर सहनाई
कुछ देर और थिरक जा
अपने प्राणों का तो नहीं, कम से कम मालकिन के आबरू का तो सोच जा
कुछ छड़ और खनक जा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here