वसिष्ठ के ब्रहम ज्ञान व बसावट से सम्बन्धित गाथा

*डा. राधेश्याम द्विवेदी *
वसिष्ठ यानी सर्वाधिक पुरानी पीढ़ी का निवासी:- महर्षि वसिष्ठ का निवास स्थान से सम्बन्धित होने के कारण बस्ती और श्रावस्ती का नामकरण उनके नाम के शब्दों को समेटते हुए पड़ा है। दोनो स्थान आज दो रूप में देखे जा सकते हैं , परन्तु प्राचीन काल में ये एक ही इकाई रहे हैं।इसी क्रम में आज वशिष्ठ के विकास यात्रा के कुछ अनछुये पहलुओं एवं कुछ प्रमुख स्थलों की कहानी का अनावरण करने की कोशिस करूंगा। वसिष्ठ के दो मुख्य आश्रम थे। पहला हिमाचल प्रदेश के मनाली से करीब चार किलोमीटर दूर लेह राजमार्ग पर स्थित है वशिष्ठ नाम का गांव दूसरा राजस्थान के पुष्कर में जहां यज्ञ कराकर उन्होने अनेक क्षत्रियों की उत्पत्ति किया था। हिमाचल स्थित आश्रम से वे कोशल राज्य में आये थे जहां उन्होंने अपना एक आश्रम और बनाया था। वे ईक्ष्वाकु वंश के राजगुरु बने थे। यह आश्रम उत्तर प्रदेश के बस्ती और श्रावस्ती के आसपास के क्षेत्र में कही स्थित था। वसिष्ठ से सम्बन्धित होने के कारण यह क्षेत्र बस्ती और श्रावस्ती के नाम से प्रसिद्ध हुआ था।अफगान और मुगलों के आक्रमण से ये आश्रम पूर्णतः विलुप्त हो चुके होंगे । इस विषय में गहन शोध की जरुरत है।वसिष्ठ मूलतः ‘वस’ शब्द से बना है जिसका अर्थ – रहना, निवास, प्रवास, वासी आदि होता है । इसी आधार पर ‘वस’ शब्द से वास का अर्थ निकलता है। वरिष्ठ, गरिष्ठ, ज्येष्ठ, कनिष्ठ आदि में जिस ष्ठ का प्रयोग है, उसका अर्थ – सबसे ज्यादा यानी सर्वाधिक बड़ा होता है। ‘वसिष्ठ’ का अर्थ सर्वाधिक पुराना निवासी होता है।
महर्षि वशिष्ठ का तपस्या स्थल को वशिष्ठ कहा गया है:- हिमाचल प्रदेश के मनाली से करीब चार किलोमीटर दूर लेह राजमार्ग पर वशिष्ठ एक ऐसा गांव स्थित है ,जो अपने दामन में पौराणिक स्मृतियां छुपाये हुए है। महर्षि वशिष्ठ ने इसी स्थान पर बैठकर तपस्या किये थे । कालान्तर में यह स्थल उन्हीं के नाम से जाना जाने लगा। ऋषि का यहां भव्य प्राचीन मन्दिर बना है। वशिष्ठ पहुंच कर ऐसा लगता है मानो सौन्दर्य, धर्म, पर्यटन, परम्पराएं, आधुनिकता, ग्रामीण शैली व उपभोक्तावादी चमक-दमक आपस में एक हो रहे हैं।
वसिष्ठ के बारे में जितनी तरह की कथाएं और विवरण हमें मिलती है वे सभी एक वसिष्ठ के लिए नहीं है, अलग-अलग वसिष्ठों के लिए हैं। यानी वसिष्ठ वंश में पैदा हुए अलग-अलग मुनि-वसिष्ठों के हैं। वसिष्ठ एक जातिवाची नाम है आजकल भी जातिवादी नाम पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहकर चलता रहता है। वैसी ही परम्परा पुराने काल से चलती आ रही है। पौराणिक उल्लेख -वेद, इतिहास व पुराणों में वसिष्ठ के अनगिनत कार्यों का उल्लेख किया गया है। महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। “पुरानिक इनकाइक्लोपीडिया” नामक सन्दर्भ ग्रंथ (पृ.834-36 पर) वसिष्ठ के तीन जन्मों की बातें कही गयी हैं।
प्रथम जन्म में अनाम आद्य वसिष्ठ:- हिमालय में ही रहते थे और जिनके नाम का ठीक-ठीक पता नहीं था, को खतरा महसूस हुआ कि इतना शक्तिशाली और ऐश्वर्य सम्पन्न राजा उन्मत्त हो सकता है। राजदंड कहीं उन्मत्त और आक्रामक न हो जाए, इसलिए उस पर नियंत्रण आवश्यक है। ऐसे राजदंड पर नियंत्रण करने के लिए कोई बड़ा राजदंड काम नहीं आ सकता था, बल्कि ज्ञान का, त्याग का, अपरिग्रह का, वैराग्य का, अंहकार-हीनता का ब्रह्मदण्ड ही राजदंड को नियमित और नियंत्रित कर सकता था। वसिष्ठ के अलावा यह काम और किसी के वश का नहीं था। यह वसिष्ठ ने अपने आचरण से ही आगे चलकर सिद्ध कर दिया। एक बड़े विचार या आदर्श की स्थापना जितनी मुश्किल होती है, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल उस पर आचरण होता है। अगर वसिष्ठों का खूब सम्मान इस देश की परम्परा में है तो जाहिर है कि इस आदर्श का पालन करने में वसिष्ठों ने अनेक कष्ट भी सहे होंगे। कुछ कष्ट हमारे इतिहास में भी दर्ज हैं। प्रथम जन्म में वे ब्रह्मा के मानस पुत्र कहे गये हैं। जो ब्रहमा के सांस (प्राण) से उत्पन्न हुए हैं। पुराणों में इनकी पत्नी का नाम अरुन्धती देवी प्राप्त होता है। पूर्व जन्म में अरुन्धती का नाम सन्ध्या था। प्रथम जन्म के वसिष्ठ की मृत्यु दक्ष के यज्ञ कुण्ड में हुई थी। माना जाने लगा कि वसिष्ठ जैसा महान व्यक्ति सामान्य मनुष्य तो हो नहीं सकता। उसे तो लोकोत्तर होना चाहिए। इसलिए उन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र मान लिया गया और उनका विवाह दक्ष नामक प्रजापति की पुत्री ऊर्जा से बताया गया जिससे उन्हें एक पुत्री और सात पुत्र पैदा हुए। अपने महान नायकों को दैवी महत्व देने का यह भारत का अपना तरीका है, जिसे आप चाहें तो पसंद करें, चाहें तो न करें, पर तरीका है। यही वह तरीका है जिसके तहत तुलसीदास को वाल्मीकि का तो विवेकानंद को शंकराचार्य की तरह शिव का रूप मान लिया जाता है। ऐसे ही मान लिया गया कि वसिष्ठ जैसा महा प्रतिभाशाली व्यक्ति ब्रह्मा के अलावा किसका पुत्र हो सकता है? पर चूंकि ब्रह्मा का परिवार नहीं है, इसलिए मानस पुत्र होने की कल्पना कर ली गई।
द्वितीय जन्म: इक्ष्वाकु वंश के पुरोहित:- ब्रहमा के हवन कुण्ड से ही उन्होने दूसरी बार जन्म लिया थ। इस बार उनकी पत्नी का नाम अक्षमाला था। जो अरुन्धती का पुनर्जन्म था।इस कारण इन्हें अग्निपुत्र भी कहा गया है। इस जन्म में वह इक्ष्वाकु राजा निमि के पुरोहित हुए थे। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा सूर्यवंश का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- ‘इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।’ फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव-शरीर में आना स्वीकार किया।निमि राजा के विवाह के बाद वसिष्ठ ने सूर्य वंश की दूसरी शाखाओं का पुरोहित कर्म छोड़कर केवल इक्ष्वाकु वंश के राजगुरु पुरोहित के रूप में कार्य किया। सामाजिक अव्यवस्था से निजात पाने के लिए ही जन समाज ने मनु को अपना पहला राजा बनाया और मनु ने समाज और शासन के व्यवस्थित संचालन के लिए नियमों की व्यवस्था दी। वे दशरथ से ऋष्यश्रृंग की देखरेख में पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया, राम आदि का नामकरण किया, शिक्षा-दीक्षा दी और राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए दशरथ का मन बनाया। पर इनका अलग से नाम नहीं मिलता।आद्य वसिष्ठ, सबसे पुराने वसिष्ठ थे। वे कोशल देश की राजधानी अयोध्या में आकर बसे वे स्मृति परम्परा के मुताबिक हिमालय से वहां आए थे और अयोध्या में आकर रहने से पहले का विवरण चूंकि हमारे ग्रंथों में खास मिलता नहीं, इसलिए उन्हें ब्रह्मा का पुत्र मानने की श्रद्धा से भरी तो कभी ऋग्वेद के मुताबिक ‘वरूण-उर्वशी’ की सन्तान मानने की रोचक कथाएं मिल जाती हैं। हिमालय से उतरकर वसिष्ठ जब अयोध्या आए, तब मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य कर रहे थे। इक्ष्वाकु ने उन्हें अपना कुलगुरू बनाया और तब से एक परम्परा की शुरूआत हुई कि राजबल का नियमन ब्रह्मबल से होगा और एक शानदार तालमेल और संतुलन का सूत्रपात शासन व्यवस्था में ही नहीं समाज में भी हुआ। यहां तक कि क्रमश: एक सामाजिक आदर्श बन गया कि जब भी रथ पर जा रहे राजा को सामने स्नातक या विद्वान मिल जाए तो राजा को चाहिए कि वह अपने रथ से उतरे, प्रणाम करे और आगे बढ़े। वे दशरथ से पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे राम आदि चार पुत्र हुए। अनेक बार आपत्ति का प्रसंग आने पर तपोबल से उन्होंने राजा प्रजा की रक्षा की। राम को शस्त्र शास्त्र की शिक्षा दी। वसिष्ठ के कारण ही ‘रामराज्य’ की स्थापना संभव हुई। महर्षि वसिष्ठ ने सूर्यवंश का पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न किया। इन्हीं के उपदेश के बल पर भगीरथ ने प्रयत्न करके गंगा-जैसी लोक कल्याणकारिणी नदी को हम लोगों के लिये सुलभ कराया। दिलीप को नन्दिनी की सेवा की शिक्षा देकर रघु-जैसे पुत्र प्रदान करने वाले तथा महाराज दशरथ की निराशा में आशा का संचार करने वाले महर्षि वसिष्ठ ही थे। इन्हीं की सम्मति से महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया और भगवान श्री राम का अवतार हुआ। भगवान श्री राम को शिष्य रूप में प्राप्त कर महर्षि वसिष्ठ का पुरोहित-जीवन सफल हो गया। भगवान श्री राम के वन गमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरु वसिष्ठ ने श्री राम के राज्यकार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये। वसिष्ठ ने दशरथ से कहा कि राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दो, उन्होंने दशरथ की मृत्यु के बाद कोशल राज्य को संभाला, विश्वामित्र से कामधेनु को लेकर उनके युद्ध हुए, उन्होंने विश्वामित्र को ऋषि तो माना पर ब्रह्मर्षि नहीं, सिर्फ राजर्षि माना, तो इस तमाम कथामाला में ऐसा क्या है कि वसिष्ठ को भारत राष्ट्र का विराट या विशिष्ट पुरूष माना जाए? चूंकि यकीनन है, इसलिए हमें वसिष्ठ के बारे में थोड़ा गहरे जाकर और ज्यादा सच्चाइयां टटोलनी होंगी। वसिष्ठ की कुछ ऐसी खास और बार-बार उल्लेख के लायक कोई विशेष देन थी कि हमारे जन के बीच क्रमश: उनकी प्रतिष्ठा मनुष्य से बढ़कर देव पुरूष के रूप में होने लगी।अयोध्या के राजपुरोहित के नाते काम करनेवाले वसिष्ठ वंश की सविस्तृत जानकारी पौराणिक साहित्य में प्राप्त है।
ब्रह्महत्या का पाप निवारण के लिये अश्वमेध यज्ञ व गर्म जल की धाराएं निकली थीं :- वशिष्ठ के बारे में पौराणिक श्रुति इस प्रकार है कि वनवास के दौरान जब युद्ध में रामचन्द्र जी द्वारा रावण मार दिया गया तो रामचन्द्र पर ब्रह्महत्या का पाप लगा। अयोध्या वापस आने पर श्रीराम इस पाप के निवारण के लिये अश्वमेध यज्ञ को करने की तैयारी में जुट गये। यज्ञ शुरू हुआ तो उपस्थित सारे ऋषि मुनियों ने गुरू वशिष्ठ को कहीं नहीं देखा। वशिष्ठ राजपुरोहित थे, बिना उनके यह यज्ञ सफल नहीं हो सकता था। उस समय वशिष्ठ हिमालय में तपस्यारत थे। श्रंगी ऋषि लक्ष्मण को लेकर मुनि वशिष्ठ की खोज में निकल पड़े। लम्बी यात्रा के बाद वे इसी स्थान पर आ पहुंचे। सर्दी बहुत थी। लक्ष्मण ने गुरू के स्नान के लिये गर्म जल की आवश्यकता समझी। लक्ष्मण ने तुरन्त धरती पर अग्निबाण मारकर गर्म जल की धाराएं निकाल दीं। प्रसन्न होकर गुरू वशिष्ठ ने दोनों को दर्शन देकर कृतार्थ किया। गुरू ने कहा कि अब यह धारा हमेशा रहेगी व जो इसमें नहायेगा, उसकी थकान व चर्मरोग दूर हो जायेंगे। लक्ष्मण ने गुरूजी को यज्ञ की बात बतलाई। तदुपरान्त गुरू वशिष्ठ ने अयोध्या जाकर यज्ञ को सुचारू रूप से सम्पन्न कराया। इसके सन्दर्भ (वायु पुराण 70.79-90); (ब्रहमाण्ड पुराण 3.8.86-100); (लिंग पुराण 1.63.78-92) में मिलते हैं। इस वंश के ऋषियों एवं गोत्रकारों की नामावलि मत्स्य पुराण( 200-201) में दी गयी है
तृतीय जन्म मैत्रावरूण वसिष्ठ :-उसी परम्परा में एक मैत्रावरूण वसिष्ठ हुए जिनके 97 सूक्त ऋग्वेद में मिलते हैं, जो ऋग्वेद का करीब-करीब दसवां हिस्सा है। इतना विराट बौद्धिक योगदान करने वाले कुल में एक शक्ति वसिष्ठ हुए जिनके पास कामधेनु थी जिसका दुरूपयोग कर अहंकार पालने का मौका उन्होंने कभी भी नहीं दिया। पर घमंडी विश्वामित्रों को ऐसी गाय न मिले, इसके लिए अपने पुत्रों का बलिदान देकर भी एक भयानक संघर्ष उन्होंने विश्वामित्रों के साथ किया।
परम्परा के अन्य प्रमुख वसिष्ट ऋषि:-इस वंश में उत्पन्न निम्नलिखित ऋषि विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं- 1. देवराज; 2 आपव; 3. अथर्वनिधि; 4. वारुणि; 5. श्रेष्ठभाज्; 6. सुवर्चस्; 7. शक्ति; 8. मैत्रावरुणि । 9.वसिष्ठ वंश की अन्य एक शाखा जातूकर्ण लोग माने जाते हैं ।
देवराज वसिष्ठ:- जिन वसिष्ठ ने विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया, उनका नाम देवराज वसिष्ठ था। ये सब वसिष्ठ अलग-अलग पीढ़ियों के हैं।मसलन अयोध्या के ही एक राजा सत्यव्रत त्रिशंकु ने जब अपने मरणशील शरीर के साथ ही स्वर्ग जाने की पागल जिद पकड़ ली और अपने कुलगुरु देवराज वसिष्ठ से वैसा यज्ञ करने को कहा तो वसिष्ठ ने साफ इनकार कर दिया और उसे अपने पद से हाथ धोना पड़ा। पर जब इसी वसिष्ठ ने एक बार यज्ञ में नरबलि का कर्मकाण्ड करना चाहा तो फिर विश्वामित्र ने उसे रोका और देवराज की काफी थू-थू हुई। इसके बाद जब वसिष्ठों को वापस हिमालय जाने को मजबूर होना पड़ा तो हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने उनका आश्रम जला डाला। फिर से वापस लौटे वसिष्ठों में दशरथ और राम के कुलगुरू वसिष्ठ इतने बड़े ज्ञानी, शांतशील और तपोनिष्ठ साबित हुए कि उन्होंने परम्परा से उनसे शत्रुता कर रहे विश्वामित्रों पर अखंड विश्वास कर राम और लक्ष्मण को उनके साथ वन भेज दिया।
शक्ति वसिष्ठ :- जिन वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र का भयानक संघर्ष हुआ, वे शक्ति वसिष्ठ थे। महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। एक बार श्री विश्वामित्र उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्वक ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। वसिष्ठ विश्वामित्रके बीच के संघर्ष की कथाएं सुविदित हैं। वसिष्ठ क्षत्रिय राजा विश्वामित्र को ‘राजर्षि’ कह कर सम्बोधित करते थे। विश्वामित्र की इच्छा थी कि वसिष्ठ उन्हें ‘महर्षि’ कहकर सम्बोधित करें। एक बार रात में छिप कर विश्वामित्र वसिष्ठ को मारने के लिए आये। एकांत में वसिष्ठ और अरुंधती के बीच हो रही बात उन्होंने सुनी। वसिष्ठ कह रहे थे, ‘अहा, ऐसा पूर्णिमा के चन्द्रमासमान निर्मल तप तो कठोर तपस्वी विश्वामित्र के अतिरिक्त भला किस का हो सकता है? उनके जैसा इस समय दूसरा कोई तपस्वी नहीं।’ एकांत में शत्रु की प्रशंसा करने वाले महापुरुष के प्रति द्वेष रखने के कारण विश्वामित्र को पश्चाताप हुआ। शस्त्र हाथ से फेंक कर वे वसिष्ठ के चरणों में गिर पड़े। वसिष्ठ ने विश्वामित्र को हृदय से लगा कर ‘महर्षि’ कहकर उनका स्वागत किया। इस प्रकार दोनों के बीच शत्रुता का अंत हुआ।
वसिष्ठ से क्षमा करना सीखें:- राजा इक्ष्वाकु के कुल में एक कल्माषपाद नाम का एक राजा हुआ। राजा एक दिन शिकार खेलने वन में गया। वापस आते समय वह एक ऐसे रास्ते से लौट रहा था। जिस रास्ते पर से एक समय में केवल एक ही आदमी गुजर सकता था। उसी रास्ते पर मुनि वसिष्ठ के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शक्तिमुनि उसे आते दिखाई दिये। राजा ने कहा तुम हट जाओ मेरा रास्ता छोड़ दो तो कल्माषपाद ने कहा आप मेरे लिए मार्ग छोड़े दोनों में विवाद हुआ तो शक्तिमुनि ने इसे राजा का अन्याय समझकर उसे राक्षस बनने का शाप दे दिया। उसने कहा तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है ऐसा कहकर वह शक्तिमुनि को ही खा जाता है।शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण का कारण भी उसकी राक्षसीवृति ही थी। पुत्रों की मृत्यु पर अधीर होकर वसिष्ठ आत्म हत्या के कई प्रयास भी किये थे। उनके पीछे उनकी पुत्रवधू भी चल रही थी। एक बार महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है। पुत्रवधू के गर्भ में शिशु वेद मंत्रों का उच्चारण कर रहा था। इसे सुनकर उनमें आशा संचार हुआ और वे मृत्यु का इरादा त्यागकर अपने भावी उस उत्ताधिकारी को पालने के लिए पुनः धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करने लगे थे। यही बालक आगे चलकर पराशर ऋषि के रुप में प्रसिद्ध हुए। एक धीवर कन्या मत्स्यगंधा से विवाह करने पर एक द्वीप पर वेदव्यास नामक पुत्र उन्हें मिला था। जो वेदव्यास द्वैपायन के नाम से प्रसिद्ध हुए और बाद में महाभारत की रचना किये थे । वसिष्ठ बोले कौन है तो आवाज आई मैं आपकह पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती ह%