वैदिक राजधर्म व्यवस्था एवं देश के अध्यक्ष राजा के उत्तम गुण व आचरण

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-मनमोहन कुमार आर्य

               वेद संसार के सबसे पुराने धर्म ग्रन्थ हैं। वेद के विषय में ऋषि दयानन्द के विचार हैं कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। सृष्टि के आरम्भ से ही महाभारत और उसके भी बाद आर्य राजा पृथिवीराज चौहान तक भारत में आर्य राजा हुए हैं। वेदों की उत्पत्ति 1.96 अरब वर्ष पूर्व हुई थी। तब से आर्य नरेश पृथिवीराज चौहान के समय तक भारत में आर्य राजा रहे। वैदिक राज्य व्यवस्था वेद की शिक्षाओं व मान्यताओं के अनुरूप चलती थी। देश में वेद के विद्वानों का सम्मान किया जाता था। वेदों के विद्वान ही राजाओं को वेद सम्मत सलाह देते थे और उसी के अनुरूप शासन के स्तर पर निर्णय किये जाते थे। राज्य व्यवस्था से ही जुड़ा एक प्राचीन ग्रन्थ मनुस्मृति है। इसका प्रणयन महाराज मनु ने सृष्टि के आरम्भ में कुछ काल बाद ही किया था। इसके सभी विधान वेद सम्मत थे। महाभारत युद्ध के बाद अवैदिक मान्यताओं से युक्त कुछ स्वार्थी लोगों ने स्वेच्छाचार पूर्वक मनुस्मृति में प्रक्षेप किये। अतः आर्यसमाज के विद्वान पं0 राजवीर शास्त्री और डा0 सुरेन्द्र कुमार जी आदि ने ऋषि दयानन्द के प्रशंसनीय भक्त लाला दीपचन्द आर्य की प्रेरणा से प्रक्षेपों को हटाकर विशुद्ध मनुस्मृति का प्रकाशन किया। यह मनुस्मृति वर्तमान में उपलब्ध है। इसे पढ़कर वैदिक काल के रजाओं की वैदिक व्यवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस लेख में हम महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) द्वारा अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के छठे समुल्लास में कहे गई देश की शीर्ष राज्यकीय व्यवस्था एवं देश का संचालन करने वाली तीन सर्वोच्च सभाओं के सभापति वा राजा के गुणों पर प्रकाश डाल रहे हैं।

               ऋषि दयानन्द के अनुसार देश का शासन तीन सभाओं के द्वारा किया जाना चाहिये। इसके पक्ष में ऋषि दयानन्द ने वेदों से प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं। वह तीन सभायें हैं विद्यार्य सभा, धर्मार्य सभा तथा राजार्य सभा होती हैं। ऋषि ने वेद का प्रमाण देकर कहा है कि ईश्वर का ऋग्वेद में उपदेश है कि राजा और प्रजा के पुरुष मिल के सुख प्राप्ति और विज्ञान की वृद्धि के कारक राजा व प्रजा के सम्बन्धरूप व्यवहार के लिये इन तीन सभाओं का गठन व संचालन करें। वह कहते हैं कि यह तीन सभायें बहुत प्रकार के समग्र प्रजा सम्बन्धी मनुष्यादि प्राणियों को सब ओर से विद्या, स्वतन्त्रता, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें। ऋषि दयानन्द वेद मन्त्र के आधार पर यह भी कहते हैं कि तीनों सभाओं व उनके सभासदों को वेद एवं ऋषियों के वेदानुकूल ग्रन्थों में निर्धारित राजधर्म व व्यवस्थाओं का युद्ध व संग्राम में सेना के साथ मिलकर देश हित को सर्वोपरि रखकर पालन करना चाहिये। सभी सभाओं सभासदों को इसके सभापति राजा की न्याय धर्म युक्त व्यवस्थाओं का उत्साहपूर्वक पालन करना चाहिये। ऋषि एक महत्वपूर्ण बात यह भी लिखते हैं कि किसी एक राजपुरुष को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार देना चाहिए किन्तु राजा जो सभापति तदधीन सभा, सभाधीन राजा, राजा और सभा प्रजा के आधीन और प्रजा राजसभा के आधीन रहे। वह कहते हैं कि यदि ऐसा किया जायेगा और राजवर्ग प्रजा पर शासन करने में पूर्ण स्वतन्त्र रहेगा तो ऐसा राजवर्ग स्वार्थवश राज्य में प्रवेश करके प्रजा का नाश कर सकता है। अकेला राजा स्वाधीन या उन्मत्त होके प्रजा का नाश कर सकता है। इस बात को  इस रूप में भी कह सकते हैं कि ऐसा पूर्णरूपेण स्वतन्त्र राजा प्रजा को खाये जाता है, इसलिये किसी एक को राज्य में स्वाधीन नहीं करना चाहिये। ऋषि दयानन्द जी आगे लिखते हैं कि जैसे मांसाहारी सिंह हृष्ट-पुष्ट पशु को मार कर खा लेते हैं वैसे ही स्वतन्त्र राजा प्रजा का नाश करता है अर्थात् किसी को अपने से अधिक न होने देता, धनवानों को लूट-खूंट अन्याय से दण्ड देके अपना प्रयोजन पूरा करेगा। आजकल की हमारी राजनीतिक व्यवस्था इन नियमों का पालन नहीं करती। राजनीतिक दलों को पूर्ण स्वतन्त्रता है। उन पर देशहितों के विपरीत अपने स्वार्थवश किसी एक वर्ग का तुष्टिकरण न करने की मनाही नहीं है। राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिये वह काम भी करते हैं जिससे वह सत्ता में बने रहें, भले उनके निर्णयों से देश का अहित क्यों न होता हो। राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थ सत्ता-सुख को सिद्ध करने के लिये देश के लोगों को अनेक अनावश्यक विचारधाराओं में बांट रखा है। आज इतिहास में भी अनेक असत्य बातें पढ़ाई जाती हैं जिसका समाधान वर्तमान व्यवस्था में सम्भव नहीं है। देश में निर्दोष एवं देश व जनहितकारी गोमाता सहित अन्य अहिंसक पशुओं की हत्याओं को प्रतिबन्धित करने का कोई कानून नहीं है। हमारे राजनीतिक दल परमात्मा के बनाये वेदों व उनके विधानों का पालन भी नहीं करते और मनुष्यों के बनाये अविद्यायुक्त पुस्तकों को ही सर्वोपरि मानते हैं।

               तीन सर्वोच्च सभाओं का सभापति राजा, वर्तमान में प्रधानमंत्री, कैसा होना चाहिये इस पर भी अथर्ववेद का मन्त्र 6/10/18/1 प्रकाश डालता है। मन्त्र में परमात्मा ने बताया है कि राजा सभापति ऐसा हो जो देश के मुनष्यों के समुदाय में परम ऐश्वर्य का कत्र्ता हो तथा शत्रुओं को जीत सके। जो शत्रुओं से पराजित हो। राजाओं में सर्वोपरि विराजमान प्रकाशमान हो तथा सभापति होने को अत्यन्त योग्य प्रशंसनीय गुण, कर्म, स्वभावयुक्त सत्करणीय समीप जाने और शरण लेने योग्य हो। वह देश के सभी प्रजाजनों वा बहुमत का माननीय होवे। ऐसे गुणवान योग्य व्यक्ति को देश का राजा देश की तीन शीर्ष सभाओं का सभापति बनाना चाहिये। यजुर्वेद में यह भी कहा गया है कि देश को चक्रवर्ती राज्य बनाने तथा देश को परम ऐश्वर्य से युक्त करने के लिये सभी राजपुरुषों वा वर्तमान की राजनीतिक पार्टियों को परस्पर सम्मति कर एकमत होकर सर्वत्र पक्षपातरहित पूर्ण विद्या विनय से युक्त सब के मित्र गुणों वाले सभापति राजा को सर्वाधीश मान कर उसके अन्र्तगत स्वदेश को सब भूगोल में शत्रुरहित करना चाहिये। ऋग्वेद के एक मन्त्र 1/39/2 में ईश्वर ने राजवर्ग के लोगों को यह उपदेश भी किया है कि देश की सेना के पास आग्नेय आदि अस्त्र शस्त्र सहित अत्याधुनिक अस्त्रशस्त्र शत्रुओं को पराजित करने वा देश की पराजय को रोकने के लिये होने चाहिये। यह भी उपदेश किया गया है कि हमारी सेना प्रशंसनीय हो जिसकी शत्रु के साथ युद्ध में विजय सुनिश्चत हो। ऋषि दयानन्द ने इस प्रसंग में यह भी लिखा है कि जब तक मनुष्य वा राजवर्ग धार्मिक रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता है और जब दुष्टाचारी होते हैं तब नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। महाभारत युद्ध के बाद ऐसी ही स्थिति बनी जिससे हम मुगलों व अंग्रेजों के गुलाम बन गये और आज भी भाषा व भावों की एकता से दूर होकर तथा राजनीतिक दलों के अपने अपने सत्ता-स्वार्थों के कारण हम देश को एकमत रखकर उसे सुदृण एवं शत्रु रहित करने में विफल हैं।

               ऋषि दयानन्द का राजवर्ग को यह भी उपदेश है कि महाविद्वानों को विद्यासभा के अधिकारी, धार्मिक विद्वानों को धर्मसभा के अधिकारी तथा प्रशंसनीय धार्मिक पुरुषों को राजसभा के सभासद् और जो उन सब में सर्वोत्तम गुण, कर्म, स्वभावयुक्त महान् पुरुष हो उसको राजसभा का पतिरूप (स्वामीरूप) सभापति वा राजा मान के सब प्रकार से उन्नति करें। तीनों सभाओं की सम्मति से राजनीति के उत्तम नियम और नियमों के आधीन सब लोग वर्ते तथा समस्त प्रजा के हितकारक कामों में सम्मति वा एक मत होकर निर्णय करें। ऐसे काम जिससे देश प्रजा का हित होता है उसमें सभी राजपुरुषों को परतन्त्र रहना चाहिये और जो राजवर्ग के लोगों के निजी काम हैं उनमें वह स्वतन्त्र रहें।

               ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के छठे समुल्लास में देश के शीर्ष नेता वा प्रधानमंत्री जिसे हम प्राचीन वैदिक शास्त्रों की भाषा में तीन सभाओं का सभापति व राजा कहते हैं, उसके गुणों पर भी प्रकाश डाला है। मनुस्मृति के आधार पर वह लिखते हैं देश की सर्वोच्च तीन सभाओं का सभापति राजा इन्द्र अर्थात् विद्युत के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्ता, वायु के समान सब को प्राणवत् प्रिय और हृदय की बात जाननेवाला, पक्षपातरहित न्यायाधीश के समान व्यवहार करने वाला, सूर्य के समान न्याय, धर्म, विद्या का प्रकाशक, अन्धकार अर्थात् अविद्या व अन्याय का निरोधक, अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करनेहारा, वरुण अर्थात् बांधने वाले के सदृश दुष्टों, शत्रुओं व पापियों को अनेक प्रकार से बांधनेवाला, रुलानेवाला व दण्डित करने वाला, चन्द्रमा के समान श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता एवं सभी धनों के अध्यक्ष के समान राजकोषों को भरने व पूर्ण करने वाला होना चाहिये।

               राजा को सूर्य के समान प्रतापी होना चाहिये। वह सब के बाहर और भीतर मनों को अपने तेज से तपानेवाला होना चाहिये जिसको पृथिवी में कोई तिरछी कठोर दृष्टि से देखने में समर्थ हो। राजा अपने प्रभाव से अग्नि, वायु, सूर्य, सोम, धर्मप्रकाशक, धनवर्द्धक, दुष्टों का बन्धनकर्ता, बड़े ऐश्वर्यवाला हो। ऐसा गुणवान समाथ्र्यवान मनुष्य ही सभापति राजा होने के योग्य होता है। ऋषि के अनुसार राज्य में ऐसा कठोर व शीघ्र दिये जाने वाला दण्ड होना चाहिये जिससे अपराधी, पापी व समाज विरोधी लोग डरते हों। वह कहते हैं कि जो दण्ड है वही राजा, वही न्याय का प्रचारकर्ता और सब का शासनकर्ता है, वही चार वर्ण और आश्रमों के धर्म का प्रतिभू अर्थात् जामिल है। दण्ड ही प्रजा का शासनकर्ता सब प्रजा का रक्षक, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है। इसी लिये बुद्धिमान लोग दण्ड ही को धर्म कहते हैं। जिस दण्ड को राजा द्वारा अच्छे प्रकार से विचार करके धारण किया जाये तो वह दण्ड सब प्रजा को आनन्दित कर देता है और जो विना विचारे चलाया जाय तो सब ओर से राजा का विनाश कर देता है। बिना दण्ड के सब वर्ण दूषित और सब मर्यादायें छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। दण्ड के यथावत् न होने से सब लोगों का राजा व राज्य व्यवस्था पर प्रकोप होता है।

               राजव्यवस्था विषयक ऋषि दयानन्द जी के कुछ विचार लिखकर हम लेख को विराम देंगे। उनके अनुसार सब सेना और सेनापतियों पर राज्याधिकार, दण्ड देने की व्यवस्था के सब कार्यों का आधिपत्य और सब के ऊपर स्थापित सर्वाधीश राज्यधिकार, इन चारों अधिकारों में सम्पूर्ण वेद शास्त्रों में प्रवीण पूर्ण विद्यावाले धर्मात्मा जितेन्द्रिय सुशील जनों को स्थापित करना चाहिये अर्थात् मुख्य सेनापति, मुख्य राज्याधिकारी, मुख्य न्यायाधीश और सभापति राजा से चार सब विद्याओं में पूर्ण विद्वान होने चाहियें। वह लिखते हैं कि कम से कम दस विद्वानों अथवा बहुत कम हों तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे उस धर्म अर्थात् व्यवस्था का उल्लंघन कोई भी करे। शीर्ष सभा के सभासद कैसे हों इसका उल्लेख करते हुए ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि सभा में चारों वेद, कारण अकारण का ज्ञाता न्यायशास्त्र, निरुक्त, धर्मशास्त्र आदि के वेत्ता विद्वान् ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ सभासद् हों। देश विषयक प्रमुख निर्णय लेने वाली सभा में दस विद्वानों से न्यून होने चाहियें। एक प्रमुख बात ऋषि यह कहते हैं कि जिस सभा में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के जानने वाले तीन सभासद् होके व्यवस्था करें उस सभा की की हुई व्यवस्था का भी कोई उल्लंघन करे। यदि एक अकेला सब वेदों को जानने वाला द्विजों में उत्तम संन्यासी जिस धर्म, कर्तव्य, सिद्धान्त नीति की व्यवस्था करे वही श्रेष्ठ धर्म न्याय है क्योंकि अज्ञानियों के सहस्रों लाखों करोड़ों लोग मिल के जो कुछ व्यवस्था करें उस को कभी मानना चाहिये।                देश का दुर्भाग्य है कि उसे अब तक ऐसा राजा व सभासद् नहीं मिले जैसे कि वेद व शास्त्रों में वर्णित हैं। हमारे देश में राजपुरुष वर्ग को ऐसे अधिकार प्राप्त हैं जिससे वह लोगों में अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिये कुछ प्रजावर्ग के हितों की उपेक्षा करते हैं। जब तक वेद और शास्त्रों सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश के छठे समुल्लास मे ंवर्णित राजधर्म के ग्राह्य सिद्धान्तों व विधानों का पालन नहीं किया जायेगा देश अखण्डित, सुरक्षित, समृद्ध, सबको न्याय व सुख देने वाला तथा सभी प्रजाजनों के लिये चिन्ता व तनाव मुक्त जीवन देने वाला नहीं हो सकता। ऋषि दयानन्द के समय में देश पराधीन था तथापि उन्होंने इस राजधर्म विषय की उपेक्षा नहीं की थी। उन्होंने अंग्रेजों से किये जाने वाले किसी भी उत्पीड़न को दर किनार कर वेद व अपने हृदय की बातों को प्रस्तुत किया था और भविष्य में देश को स्वतन्त्रता मिलने पर उसकी सरकारों के संचालन विषयक अनेक उत्तम सूत्र व सिद्धान्त प्रदान किये थे। सभी आर्यों व हिन्दुओं को इनसे प्रेरणा लेनी चाहिये। देश के प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री जी ने इसी मार्ग पर चलते हुए अनेक अच्छे निर्णय लिये हैं। ईश्वर हमारे देश को वेद व शास्त्रों में वर्णित राजाओं के गुणों से युक्त वैदिक धर्मी, निष्पक्ष, धार्मिक, पक्षपातरहित तथा देश के यश को पढ़ाने वाले सुयोग्य शासक प्रदान करें।

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