अमित राजपूत
दशकों से अनेकों प्रतिभाओं को निखार कर उनको भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में भेजकर उनकी सेवावृत्ति से गौरव का अनुभव करने वाला नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पिछले दिनों अपने कैम्पस में हुई देश विरोधी नारेबाजी के चलते विद्रूपित हो गया। हालांकि यह सही है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) को अपने कैम्पस में हुई इस गतिविधि का हिसाब देना पड़ेगा और लगभग वह दे भी रहा है। तथापि इसका मतलब यह कतई नहीं है कि जेएनयू ने अपना वजूद ही खो दिया है। संस्थागत रूप में और व्यवहार में भी जेएनयू के छात्रों में वो प्रतिभा और कुछ अलग करने का जुनून अभी भी वैसा ही है जिसके लिए जेएनयू विख्यात है। विद्रूपित जेएनयू के बरक्स उसकी वास्तविक चेतना उसके छात्रों में साफ और साकार रूप में देखी जा सकती है। इसके अनेक प्रसंग हैं। इनमें से एक प्रसंग का ज़िक्र मैं यहां कर रहा हूं।
जेएनयू के पर्यावरण विज्ञान संस्थान में शोधार्थी मुकेश राजपूत उत्तर प्रदेश के हमीरपुर ज़िले के एक छोटे से पिछड़े गांव इंदरपुरा के रहने वाले हैं। यह गांव ज़िला मुख्यालय से लगभग 80 किमी दूर है। इस गांव की हालत तमाम संसाधनों सहित स्वच्छता के मामले में भी बहुत पीछे है। मुकेश अपने संस्था से निकलकर अंत्योदय के लिए ग्रासरुट में जाकर काम करने की रुचि रखने वालों में से हैं। ये चाहते हैं कि भारत का हर ग्राम सशक्त हो और हर गांव का अपना गौरव हो, जो एक गांव को पूर्णतः गांव बनाने के बाद ही आ सकती है। लिहाजा इस तरह मुकेश ग्राम जीवन के हिमायती हो गए और उसके लिए प्रयास करने लगे।
मुकेश बताते हैं कि वह महात्मा गांधी के ग्राम-स्वराज से अत्यधिक प्रभावित हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से प्रेरणा लेकर ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के लिए देश को अपना योगदान देना चाहते हैं। इसकी शुरुआत उन्होने अपने ही गांव इंदरपुरा से की। मुकेश बताते हैं कि गांव के लोगों को इस दिशा में मोड़ना वाकई कठिन काम रहा है और सबसे अधिक चुनौती भरा रहा उनके विचारों को बदलना। आगे मुकेश प्रधानमंत्री की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि मेरे लिए भी लोगों को समझाना काफी चुनौती भरा था लेकिन अधिकतम लोग पहले से ही देश के प्रधानमंत्री से अत्यधिक प्रभावित हैं तो मुझे अपने काम में सफलता मिल सकी और आज गांव के लगभग नब्बे फीसदी लोग इस मुहिम में हमारे साथ है।
जेएनयू का यह छात्र यथा समय निकालकर तुरन्त इन्दरपुरा पहुंचता है और गांव वालों को जागरुक करने लिए अनेक प्रयास करते हुए उन्हें पर्यावरण के स्वस्थ्य की जानकारी देकर शिक्षित कर रहा है। मुकेश का उद्देश्य अपने गांव से पलायन को रोकना भी है। इसके लिए वह गांव में गोष्ठियां और तमाम सेमिनार भी आयोजित करते हैं और दिलचस्प यह है कि इन सब में वह अपने शोध से मिलने वाले मानदेय को खर्च करते हैं। सप्ताह में एक मीटिंग स्थायी है जो ग्राम प्रधान के समन्वय से होती है, जिसमें सभी को सम्मिलित होना होता है, यथा पंचायत मित्र, पंचायत सचिव, लेखपाल, बैंक मित्र, सभी वार्ड मेम्बर्स व कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़े लोग आदि।
इंदरपुरा जाकर देखने पर हमें साफ़ पता चला है कि इस गांव में जहां पहले सड़कों से निकलना दूभर था, उन सड़कों पर कचरे और कीचड़ के अंबार का अतिक्रमण इस कदर लबालब था कि सड़कें दिखाई तक नहीं देती थीं। लेकिन जेएनयू के इस छात्र के प्रयास के बाद इस गांव का कायापलट ही हो गया है और अब यह गांव एक निर्मल ग्राम की तस्वीर ले रहा है। मुकेश के मनुहार से इस काम में गांव के कुछ दिव्यांग जन भी बढ़-चढ़ अपना सहयोग दे रहे हैं। दिव्यांग धर्मेन्द्र उनमें से प्रमुख और बधाई के पात्र हैं। धर्मेन्द्र बताते हैं कि वह ‘स्वच्छ भारत मिशन’ से प्रेरित होकर इसमें अपना सहयोग दे रहे हैं।
इसके अलावा मुकेश राजपूत गांव की शिक्षा पर भी बहुत ज़ोर दे रहे हैं। इसके लिए उन्होने गांव में अनेक स्थानों पर अख़बार का बंदोबस्त किया है और एक छोटे से वाचनालय के निर्माण के लिए प्रयासरत हैं। इसके साथ ही गांव के प्राथमिक विद्यालयों में गुणवत्तापरक शिक्षा व्यवस्था न होने की पुष्टि के बाद इन्होने ग्राम प्रधान राजकुमार के सहयोग से सरकार को सूचित कर उनसे आदेश लेकर ग्राम सहायता से संविदा पर कुशल अध्यापकों की व्यवस्था करने की योजना बना रहे हैं।
“अब तक के प्रयासों से हमें ये पता चला है कि भारत के गांवों में जागरुकता की भारी कमी है। ग्राम पंचायतों में जागरुकता की कमी के मद्देनज़र हम सरकारों की सभी योजनाओं की जानकारियां गांव के अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचाने के पक्षधर हैं और निःस्वार्थ रूप से उसके लिए हमसे जितना प्रयास हो रहा है हम कर रहे हैं और मुझे ख़ुशी इस बात कि है कि गांव के लोग मेरी बातों को समझ पा रहे हैं और सूचनाओं के प्रति उनमें स्वयं जिज्ञासाएं भी हैं। शायद यही कारण है कि मैं जेएनयू कैम्पस के बाहर निकल कर लोगों के बीच अपना समय दे पा रहा हूं।”
जेएनयू प्रकरण के सवाल पर मुकेश ज़ोर देकर कहते हैं कि ‘जेएनयू किसी की थाती नहीं हैं। वहां यदि कुछ अराजक तत्व हैं तो इसका ये कतई मतलब नहीं है कि देश के प्रति सकारात्मक विचार रखने वाले लोगों की वहां कमी है। जेएनयू प्रबुद्धों का केन्द्र है और वहां अच्छे काम करने वालों की कमी नहीं हैं। मैने अपने कैम्पस से ही सीखकर इंदरपुरा में काम करने का बीड़ा उठाया। इसके लिए पहले मैनें गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ गांवों का दौरा भी किया जो इस तरह का काम कर रहे हैं। फिर मैने अपने ही गांव से इस तरह के काम को करने की सोची, फिर मैने इस दिशा में क़दम बढ़ाया और गांव के पंचायत सचिव राधेश्याम, प्रधान राजकुमार, बैंक मित्र अरुण, पंचायत मित्र प्रमोद, खेमचंद्र अहिरवार, चन्द्रपाल लोधी, अमर सिंह ओमरे, नत्थू, राजेन्द्र पासवान और मंगल पासवान जैसे लोगों का सहयोग मिला और मेरा कारवां चल पड़ा।’
इस तरह से हमें यह साफ समझना होगा कि विद्रूपित जेएनयू के बरक्स उसका एक सकारात्मक स्वरूप भी है, जिसका हमें ध्यान रखना होगा और ऐसी संस्थाओं का हमें अपने देश के विकास में सहयोग लेना होगा क्योंकि आवश्यक नहीं कि हर जेएनयू कन्हैयाओं से ही भरा पड़ा है, वहां सैकड़ों मुकेश भी हैं।