-ः ललित गर्ग:-
मन्दिरों, धर्मस्थलों एवं धार्मिक आयोजनों में वीआईपी संस्कृति एवं उससे जुड़े हादसों एवं त्रासद स्थितियों ने न केवल देश के आम आदमी के मन को आहत किया है, बल्कि भारत के समानता के सिद्धान्त की भी धज्जियां उड़ा दी है। मौनी अमावस्या महाकुंभ में भगदड़ के चलते तीस लोगों की मौत ने ऐसे मौकों पर कुछ विशेष लोगों को मिलने वाले वीआईपी सम्मान एवं सुविधा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। बात केवल महाकुंभ की नहीं है, बल्कि अनेक प्रतिष्ठित मन्दिरों में वीआईपी संस्कृति के चलते होने वाले हादसों एवं आम लोगों की मौत ने अनेक सवाले खड़े किये हैं। प्रश्न है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले ही कार्यकाल के दौरान वीआईपी कल्चर को खत्म करते हुए लालबत्ती एवं ऐसी अनेक वीआईपी सुविधाओं को समाप्त कर दिया था तो मन्दिरों एवं धार्मिक आयोजनों की वीआईवी संस्कृति को क्यों नहीं समाप्त किया? क्यों महाकुंभ में वीआईपी स्नान के लिये सरकार ने अलग से व्यवस्थाएं की। क्यों एक विधायक अपने पद का वैभव प्रदर्शित करते हुए महाकुंभ में कारों के बड़े काफिले के साथ घूमते एवं स्नान करते हुए, पुलिस-सुविधा का बेजा इस्तेमाल करते हुए एवं सेल्फी लेते हुए करोड़ लोगों की भीड़ का मजाक बनाते रहे? सवाल यह पूछा जा रहा है कि हिंदुओं के धार्मिक स्थलों और आयोजनों में क्यों भक्तों के बीच भेदभाव होता है? वीआईपी दर्शन की अवधारणा भक्ति एवं आस्था के खिलाफ है। यह एक असमानता का उदाहरण है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों पर भी आघात करती है।
महाकुंभ हो या मन्दिर, धार्मिक आयोजन हो या कीर्तन-प्रवचन भगदड़ के कारण जो दर्दनाक हादसे होते रहे हैं, जो असंख्य लोगों की मौत के साक्षी बने हैं, उसने वीआईपी कल्चर पर एक बार फिर से नये सिरे से बहस छेड़ दी है। सवाल उठ रहा है कि जब गुरुद्वारे में वीआईपी दर्शन नहीं, मस्जिद में वीआईपी नमाज नहीं, चर्च में वीआईपी प्रार्थना नहीं होती है तो सिर्फ हिन्दू मंदिरों में कुछ प्रमुख लोगों के लिए वीआईपी दर्शन क्यों जरूरी है? क्या इस पद्धति को खत्म नहीं किया जाना चाहिए, जो हिंदुओं में दूरिया का करण बनता है? योगी सरकार ने मौनी अमावस्या के दिन हुए हादसे से सबक लेते हुए भले ही वीआईपी सिस्टम पर रोक लगायी हो, लेकिन इस रोक के बावजूद महाकुंभ में वीआईवी संस्कृति बाद में भी पूरी तरह हावी रही है। महाकुंभ हो या प्रसिद्ध मन्दिर वीआईपी पास एवं दर्शन की व्यवस्था समाप्त क्यों नहीं होती? यह व्यवस्था समाप्त होना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ 7 जनवरी को ही धार्मिक स्थलों पर होने वाली वीआईपी व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े किये हैं। उन्हें ऐसे हासदे की उम्मीद भी नहीं रही होगी। निश्चित ही जब किसी को वरीयता दी जाती है और प्राथमिकता दी जाती है तो उसे वीवीआईपी या वीआईपी कहते हैं। यह समानता की अवधारणा को कमतर आंकना है। वीआईपी संस्कृति एक पथभ्रष्टता है। यह एक अतिक्रमण है। यह मानवाधिकारों का हनन है। समानता के नजरिए से देखा जाए तो समाज में इसका कोई स्थान नहीं होना चाहिए, धार्मिक स्थलों में तो बिल्कुल भी नहीं।
देश की कानून व्यवस्था एवं न्यायालय भी देश में बढ़ती वीआईपी संस्कृति को लेकर चिन्तीत है। मद्रास उच्च न्यायालय की मुदुरै पीठ ने अपनी एक सुनवाई के दौरान कहा भी है कि लोग वीआईपी संस्कृति से ‘हताश’ हो गए हैं, खासतौर पर मंदिरों में। इसके साथ ही अदालत ने तमिलनाडु के प्रसिद्ध मंदिरों में विशेष दर्शन के संबंध में कई दिशा निर्देश जारी किए। राजस्थान में गहलोत सरकार ने भी मन्दिरों में वीआईपी दर्शनों की परम्परा को समाप्त करने की घोषणा की थी कि मन्दिरों में बुजुर्ग ही एकमात्र वीआईपी होंगे। इस तरह की सरकारी घोषणाएं भी समस्या का कारगर उपाय न होकर कोरा दिखावा होती रही है। अक्सर नेताओं एवं धनाढ्यों को विशेष दर्शन कराने के लिए मंदिर परिसरों को आम लोगों के लिये बंद कर दिया जाता है, जिससे श्रद्धालुओं को भारी परेशानी होती है, लोग वास्तव में इससे दुखी होते हैं और कोसते हैं। वीआईपी लोगों को तरह-तरह की सुविधाएं दी जाती है, मन्दिर के मूल परिसर-गर्भ परिसर में दर्शन कराये जाते हैं, उनके वाहन मन्दिर के दरवाजे तक जाते हैं, उनके साथ पुलिस-व्यवस्था रहती है, जबकि आम श्रद्धालुओं को कई किलोमीटर पैदल चलना होता है, भगवान के दर्शन दूर से कराये जाते हैं, उनके साथ धक्का-मुक्की की जाती है।
तीर्थस्थलों और गंगा स्नान में वीआईपी संस्कृति की बात कि जाये तो महाकुंभ मेले प्रयागराज, हरिद्वार या वाराणसी जैसे तीर्थस्थलों पर आम श्रद्धालुओं को अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है, लेकिन वीआईपी के लिए अलग घाट बना दिये जाते हैं। जहां आम लोग भीड़ में संघर्ष करते हैं, वहीं खास लोगों के लिए विशेष स्नान व्यवस्था, सुरक्षा घेरा और सुविधाएं मुहैया कराई जाती है। कई बार वीआईपी के स्नान के लिए आम श्रद्धालुओं को घंटों रोका जाता है, जिससे भीड़ में अफरातफरी तक मच जाती है। सवाल ये हैं कि जहां करोड़ों लोग जुट रहे हों, वहां आम श्रद्धालुओं की असुविधा को बढ़ाकर वीआईपी स्नान जैसी व्यवस्था क्यों? वीआईपी स्नान के बेहूदे एवं शर्मनाक प्रदर्शन की टीस महाराज प्रेमानंद गिरि के शब्दों में दिखी जब उन्होंने कहा कि प्रशासन का पूरा ध्यान वीआईपी पर था। आम श्रद्धालुओं को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। उनका आरोप है कि पूरा प्रशासन वीवीआईपी की जी-हुजूरी में लगा रहा, तुष्टीकरण में लगा रहा।
मोदी के शासन-काल में हिन्दू मन्दिरों एवं धार्मिक आयोजनों के लिये जनता का आकर्षण बढ़ा है, बात चाहे श्रीराम मन्दिर अयोध्या की हो या महाकुंभ की या ऐसे ही अन्य धर्मस्थलों की, करोड़ों की संख्या में आम लोग इन स्थानों तक पहुंच रहे हैं, लेकिन ईश्वर के दर्शन भी उनके लिये दोयम दर्जा एवं असमानता लिये हुए है। देश की आजादी के बाद सरकार ने कुछ मंदिरों में ट्रस्ट के माध्यम से व्यवस्था अपने हाथों में ली। शुरुआत में तो सभी मंदिर आम आदमी के लिये सुगम थे लेकिन धीरे धीरे अब इसमें प्रशासन के लोग अपनी घुसपैठ जमाने लगे। भीड़ भाड़ की स्थिति में अपने लोगों, अधिकारियों एवं नेताओं के लिए अलग से व्यवस्था का इंतजाम करने लगे। धीरे-धीरे ये राजनेताओं, मंत्रियों, अधिकारियों के वीआईपी दर्शन का आधार बनने लगे। इसका स्वरूप फिर से एक बार और बदला और एक नई संस्कृति का उदय हुआ और वह था वीआईपी दर्शन जो उनलोगों के लिए था जो एक विशेष शुल्क देकर उसका लाभ उठा सकते हैं, यानि भगवान के दरबार में भी दो तरह की व्यवस्था हो गई। एक आम जनता के लिए और एक उन लोगों के लिए जो आर्थिक रूप से सक्षम हों। एक आम आदमी जो घंटों लाइन में लगने के बाद मंदिर के अंदर प्रवेश करता है तो उसे बाहर से ही दर्शन करने के लिए बाध्य किया जाता है जैसे वह कोई अछूत हो और वहीं दूसरी ओर आपके सामने ही कुछ वीआईपी लोग बड़े आराम से मंदिर के गर्भगृह में दर्शन लाभ करते हुए नजर आते हैं।
लगता है मन्दिरों में दर्शन एवं धार्मिक आयोजनों में सहभागिता को लेकर आम आदमी गुलामी की मानसिकता को ही जी रहा है। इन स्थानों पर उसके स्वाभिमान, सम्मान एवं समानता को बेरहमी से कुचला जा रहा है। ये कैसा मंदिर और ये कैसा दर्शन जहाँ सरेआम आम दर्शनार्थी का अपमान हो रहा है। भगवान के मंदिर में वीआईपी व्यवस्था का क्या औचित्य है? इसलिए जिस भी मंदिर में वीआईपी दर्शन की सुविधा दी जा रही है उसके खिलाफ जनक्रांति हो। आज हिन्दू मन्दिरों की भेदभाव पूर्ण दर्शन-व्यवस्था को समाप्त करके ही आम आदमी को उसका उचित सम्मान किया जा सकता है, उसकी निराशा एवं पीड़ा को समझा जा सकता है। उन्नत राष्ट्र-चरित्र निर्मित को निर्मित करते हुए सबसे बड़ी जरूरत है कि पास, धन के बल अथवा राजनीतिक वर्चस्व के लिए हकदार का, गुणवंत का, आम आदमी का हक नहीं छीना जाए। अन्यथा आम आदमी के अन्तर पनप रहा यह विद्रोह एवं असंतोष किसी बड़ी क्रांति का कारण न बन जाये? भाजपा सरकार मन्दिरों एवं धार्मिक-स्थलों से वीआईपी संस्कृति को समाप्त करने के लिये कोई ठोस कदम उठाये।