विश्व शांति का गुरु नानक मार्ग

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इन दिनों पूरे विश्व में गुरु नानकदेव का 550वां प्रकाश पर्व उत्साह से मनाया जा रहा है। ऐसे में उनके संदेश (नाम जपो, कीरत करो, वंड छको) पर चिंतन जरूरी है। नाम जप की महिमा दुनिया के सभी पंथ और सम्प्रदायों में कही गयी है। नाम अर्थात प्रभु का नाम। प्रभु के रूप कई हैं। उन्होंने विभिन्न समय पर, विभिन्न क्षेत्रों में, समय की जरूरत के अनुरूप अवतार लिया। जब कर्मकांड को ही असली धर्म मान लिया गया था, तो वे गौतम बुद्ध के रूप में आये। जब हिंसा की अति हो गयी, तो वे महावीर बन गये। जब विदेशी और विधर्मी हमलावरों से देश आक्रांत था, तब वे गोविंद सिंह के रूप में आये। शंकराचार्य बनकर उन्होंने हिन्दू समाज के विभिन्न पंथ और सम्प्रदायों में समन्वय बनाया। अर्थात प्रभु कभी स्वयं अवतरित हुए, तो कभी अपने सेवकों को भेजा। गीता में उन्होंने ‘संभवामि युगे-युगे…’ कहा ही है।

पर ऐसे में हमारा कर्तव्य है कि अपने दैनन्दिन काम करते हुए कुछ समय प्रभु का नाम अवश्य जपें। तुलसी बाबा ने तो ‘राम से बड़ा राम का नाम’ तथा ‘कलियुग केवल नाम अधारा’ कहा है। गुरुवाणी भी ‘राम जपो जी ऐसे-ऐसे, ध्रुव प्रह्लाद जपयो हर जैसे’ कहती है। जप कब, कैसे और प्रभु के किस रूप या नाम का हो, इसकी बाध्यता नहीं है। बस सच्चे दिल से जप होना चाहिए। इससे अंतरमन शुद्ध होगा, और ऐसा व्यक्ति कभी हिंसा नहीं कर सकता। इसीलिए गुरु नानकदेव ने नाम जपने को कहा है।

इसके बाद गुरु नानकदेव ने कहा है ‘कीरत करो’। कीरत अर्थात कर्म। जपने से मन तो शुद्ध होगा; पर शरीर की शुद्धि और घर-परिवार चलाने के लिए कुछ काम करना जरूरी है। इन दिनों गांधीजी की 150वीं जयंती मनायी जा रही है। उनके आश्रम में रहने वाले को ग्यारह प्रतिज्ञा लेनी पड़ती थीं। उनमें से एक शारीरिक श्रम (जात मेहनत) भी थी। इसमें भोजनालय और बगीचे में काम से लेकर शौचालय की सफाई तक शामिल थी। गांधीजी स्वयं भी यह करते थे।

एक बार गुरु नानक यात्रा के दौरान एक गांव में रुके। शाम को सत्संग के समय गुरुजी को प्यास लगी। उनके कहने पर एक युवक पानी ले आया। पानी देते समय दोनों के हाथ मिले, तो गुरुजी ने कहा कि तेरे हाथ तो बहुत कोमल हैं। क्या इनसे तू कुछ सेवा नहीं करता ? युवक ने बताया कि मैं प्रधानजी का बेटा हूं। मेरे यहां कई नौकर हैं। सब काम वही करते हैं। गुरुजी बोले कि जो हाथ सेवा नहीं करते, वे अपवित्र हैं और उनसे मैं पानी नहीं पी सकता। उन्होंने पानी लौटा दिया।

दुनिया में अशांति का एक बहुत बड़ा कारण यही है कि कुछ लोग बिना कुछ किये खा रहे हैं और कुछ दिन भर बैल की तरह जुते रहने के बाद भी अपना और अपने परिवार का पेट नहीं भर पाते। दुनिया में भूखे मरने वालों की अपेक्षा अधिक खाकर मरने वाले ज्यादा हैं। यदि हर व्यक्ति परिश्रम करते हुए अपने हिस्से की ही रोटी खाये, तो विश्व में शांति होते देर नहीं लगेगी।

तीसरी बात गुरुजी ने कही है वंड छको (बांटकर खाओ)। जिन घरों में सब साथ बैठकर और मिल बांटकर खाते हैं, वहां खुशी छायी रहती है। एक गांव में एक संत आये, तो एक जिज्ञासु ने उनसे जीने का सही ढंग पूछा। संत ने उसे वहीं रुकने को कहा। कुछ देर बाद एक भक्त फल लेकर आया। संत ने उन्हें नाले में फेंक दिया और उससे घर के हालचाल पूछने लगे। जाते समय संत ने जिज्ञासु को उसे बाहर छोड़कर आने को कहा। लौटने पर संतजी ने पूछा कि वह क्या कह रहा था ? जिज्ञासु ने कहा कि वह तो गाली दे रहा था। कह रहा था कि मैं अपने बाग के फल लाया था; पर इस ढोंगी ने सब फेंक दिये। इस पर संत ने कहा कि भाई, जीने का ये ढंग ठीक नहीं है।

कुछ देर बाद एक भक्त मिठाई ले आया। संतजी ने वह सारी खुद खा ली और उससे घर के हालचाल पूछने लगे। जिज्ञासु उसे भी छोड़ने गया। लौटकर उसने बताया कि वह भी आपकी बुराई कर रहा था। कह रहा था कि कैसा भुक्कड़ है; पूरी मिठाई अकेले खा गया। संत ने कहा कि भाई, इसका अर्थ है कि जीने का ये ढंग भी ठीक नहीं है। तभी एक तीसरा भक्त हलुआ लेकर आया। संतजी ने वहां बैठे सब लोगों में वह बांटा और खुद भी खाया। जब जिज्ञासु उसे छोड़कर आया तो बोला कि वह आपकी बहुत प्रशंसा कर रहा था। तब संतजी ने कहा कि भाई, अब तो तू समझ गया होगा कि मिल बांटकर खाना ही जीने का सही तरीका है।

स्पष्ट है कि गुरु नानक का संदेश (नाम जपो, कीरत करो, वंड छको) विश्व शांति का एकमेव मार्ग है। इससे ही ‘सरबत दा भला’ होगा। जरूरत इसे ही ठीक से समझने की है।

– विजय कुमार

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