घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ बुलंद करनी होगी

0
140

अर्चना किशोर

छपरा, बिहार

हमारा देश भारत अपने पौराणिक विचारों के लिए दुनिया भर में मशहूर है। धर्मों के प्रति गहरी आस्था ने भारत को पूरे विश्व में सिरमौर बनाया है। नदियों को मां कहकर बुलाना, अतिथियों को भगवान का दर्जा देना, यह सब शायद ही किसी और देश में देखने को मिल सकता है। लेकिन इन सबके बीच हमारे देश में कुछ ऐसी भी रूढ़िवादी परंपराएं हैं, जो दुनिया भर में हमारी छवि खराब करती है। उनमें से एक महिलाओं पर होने वाली हिंसा भी है। घर पर हम स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं, लेकिन महिलाओं के लिए कभी-कभी घर भी सुरक्षित जगह नहीं होता है।

कुछ महिलाओं के लिए घर ही हिंसा का केंद्र बन जाता है। घर की चारदीवारी के अंदर किसी भी महिला, वृद्ध या बच्चों के साथ होने वाले शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, मौखिक, मनोवैज्ञानिक या यौन शोषण घरेलू हिंसा कहलाता है। किसी पर हाथ उठाना, मारना-पीटना एवं उसके लिए बुरे शब्द इस्तेमाल करना, गाली देना, उसके चरित्र या आचरण पर आरोप लगाना, घर से बाहर निकलने से मना करना, नौकरी नहीं करने देना या उसमें रुकावट डालना या छोड़ने के लिए मजबूर करना, बलपूर्वक शारीरिक संबंध बनाना, यह सभी घरेलू हिंसा की श्रेणी में आते हैं। समाज की सोच के कारण साधारणतः घरेलू हिंसा को ससुराल से जोड़कर देखा जाता है। हालांकि ऐसा कहना आधा सच है क्योंकि महिलाओं के लिए हिंसा का स्थान निर्धारित नहीं होता है। पति या पति के घरवालों द्वारा प्रताड़ित किया घरेलू हिंसा है, लेकिन बेटियों को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करने से रोकना भी घरेलू हिंसा ही है। जैसे- शिक्षा प्राप्त करने से रोकना, नौकरी करने से मना करना, अपने मन से विवाह न करने देना या किसी व्यक्ति विशेष से विवाह के लिए मजबूर करना भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा ही है, जिसके बारे में लोगों को जानकारी नहीं होती।

हमारे देश में महिलाओं को पीटना, उन पर चिल्लाना, बाहर जाकर पढ़ने या नौकरी करने से रोकना और जबरन शादी को लोग गलत ही नहीं मानते। परंपरा और संस्कृति के पाठ उन्हें इस कदर पढ़ाए जाते हैं कि शादी के पहले लड़कियां घरवालों और शादी के बाद ससुराल वालों के हाथों की कठपुतली बनकर रह जाती हैं। समाज की इसी सोच के कारण भारत में महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा आम बात हो गई है क्योंकि अब महिलाएं भी इसे हिंसा नहीं मानती हैं बल्कि उसे अपनी नियति मान लेती हैं। महिलाएं समझ ही नहीं पाती कि महज चिल्लाना हिंसा कैसे हो सकता है? एक पिता का अपनी बेटी पर अधिकार जताना गलत कैसे हो सकता है? कुछ महिलाओं का मानना है कि अगर पति या भाई हाथ उठाए, तब चुपचाप सहन कर लेना चाहिए क्योंकि माओं के साथ भी यही होता आया है। महिलाएं अपनी बेटियों को जागरूक करने के स्थान पर उन्हें सहना सिखा देती हैं, जिस कारण महिलाओं की आवाज़े दबी रह जाती हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की लगभग हर दूसरी महिला घरेलू हिंसा की शिकार हुई है। लेकिन वह पुलिस स्टेशन जाकर शिकायत दर्ज कराने के बजाए अस्पताल जाकर इलाज कराने को ज़्यादा सही मानती हैं। रिश्तों की आड़ में वह अक्सर इस जुल्म को छिपाने की कोशिश करती हैं। सामाजिक स्तर पर वह घरेलू हिंसा की हकीकत को स्वीकार कर चुकी हैं और वह इसे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा मान चुकी हैं।

पटना की प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉक्टर बिंदा सिंह के अनुसार, “आत्मनिर्भर नहीं होने की वजह से महिलाएं घरेलू हिंसा स्वीकार कर लेती हैं। वह सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाती हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि उनका सपोर्ट सिस्टम नहीं होता। वह कहती हैं कि हमारे पास ऐसे भी कई केस आते हैं, जिसमें स्वयं लड़की के घरवाले उसके साथ ससुराल में होनी वाली हिंसा को कोई बहुत बड़ा जुर्म नहीं समझते हैं, और कहते हैं “मैडम आप इसे समझाइए न, ससुराल वापस चले जाए, थोड़ा एडजस्ट कर ले।” दरअसल परवरिश का तरीक़ा आज भी नहीं बदला। लोग शादी और ससुराल को बहुत ज़्यादा महत्त्व देते हैं, ऐसे में घरेलू हिंसा की बातें छिपाने की सलाह देते हैं।”

आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में लगभग 5 करोड़ महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं, लेकिन इनमें से केवल 0.1 प्रतिशत महिलाएं ही शिकायत दर्ज कराती हैं। लगभग हर पांच मिनट में घरेलू हिंसा की एक घटना रिपोर्ट की जाती है। यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग दो-तिहाई विवाहित महिलाएं किसी न किसी रूप में घरेलू हिंसा की शिकार हैं। 15 से 49 आयु वर्ग की 70% विवाहित महिलाएं पिटाई, बलात्कार या ज़बरन यौन शोषण का शिकार हैं। इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस, पटना में कार्यरत डॉक्टर कल्पना सिंह आंकड़ों के बारे में कहती हैं कि “ज्यादातर औरतें इस मामले में सच नहीं बताती। मारपीट के निशान को छुपा लेती हैं। वह यही बोलती हैं कि गिर गई थी, तो चोट आ गई है। हम उन पर कोई दबाव नहीं डालते, जो बताती हैं उसके अनुसार ही ट्रीटमेंट प्लांट करते हैं। कभी कभार बातचीत के क्रम में पता चलता है या उनके रिश्तेदार हमें घरेलू हिंसा की हकीकत बताते हैं। डॉक्टर कल्पना के अनुसार सेक्सुअल एब्यूज के भी बहुत केस आते हैं, लेकिन ओपन नहीं होने की वजह से आंकड़ों की सटीक जानकारी नहीं हो पाती है।”

21वीं शताब्दी में जब हम चांद और मंगल ग्रह तक पहुंच चुके हैं, कुछ महिलाएं अपने घर में भी अपना वजूद कायम नहीं कर पाई हैं। हर दिन शारीरिक, लैंगिक या भावनात्मक रूप से उनके अधिकारों का हनन होता है। महिलाएं घर के बाहर छेड़छाड़, अपहरण और बलात्कार की तुलना में घर के अंदर ज्यादा परेशान और असुरक्षित महसूस करती हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे पुरुषों की संकीर्ण मानसिकता, महिलाओं में जागरूकता की कमी और सामाजिक ढांचे को स्वीकार करने का दबाब। परिवार द्वारा अपनी ही बेटियों के पैर में सभ्यता की बेड़ियां लगा दी जाती हैं। संस्कार की तलवार से उनके पंख काट दिए जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के पास जानकारी का अभाव होता है, जिस कारण उनके साथ हिंसा के मामले ज्यादा देखे जाते हैं लेकिन सामने नहीं आ पाते। इसके विपरीत अगर कोई महिला अपने मौलिक अधिकारों का उपयोग करती हुई घर की चौखट लांघने की कोशिश करती है, तो उन महिलाओं को समाज अपनाने से इंकार कर देता है। क्योंकि समाज के रूढ़िवादी नियमों को संविधान से भी ज्यादा तरजीह दी जाती है।

यदि किसी महिला ने अपने जीवन में घरेलू हिंसा का सामना किया है, तो उसके लिए उस थप्पड़ के डर से बाहर आ पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। कई मामलों में वह मानसिक संतुलन तक खो बैठती हैं या अवसाद का शिकार हो जाती हैं। कुछ तो आत्महत्या की भी कोशिश करती हैं। वहीं घर में घरेलू हिंसा को देखने वाले बच्चों पर भी इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है। वे या तो दब्बू हो जाते हैं या फिर हिंसक। मनोचिकित्सक डॉ•बिंदा सिंह ट्रीटमेंट के बारे में जानकारी देते हुए बताती हैं कि लड़की और उसके ससुराल वालों की काउंसलिंग की जाती है। बिहेवियर और कॉग्निटिव थेरेपी से इलाज किया जाता है। कई बार चीजें सही भी हो जाती हैं और अगर हालात ज्यादा खराब रहते हैं, तो लड़की के घरवालों को बुलाकर उसे पढ़ाने और इंडिपेंडेंट बनाने की सलाह दी जाती है।

वास्तव में घरेलू हिंसा किसी एक परिवार, गांव, कस्बा या शहर की कहानी नहीं है, बल्कि यह किसी न किसी रूप में हर घर में मौजूद है। कभी कभी यह अपनी सभी सीमाएं लांघ जाता है। संकुचित मानसिकता और रूढ़िवादी विचारधारा को अपनाने वाले पितृसत्तात्मक समाज में कई बार महिलाओं के साथ हिंसा को शान समझा जाता है और इसे गर्व के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत के रूप में बढ़ाया जाता है। जो किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में हमें इस सामाजिक बुराई से लड़कर और जागरूक होकर ही इसे हराना होगा। नई पीढ़ी में महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना उत्पन्न करके हम महिला हिंसा को रोक सकते हैं। लेकिन सबसे ज़्यादा ज़रूरी यह है कि महिलाओं को स्वयं आगे आकर घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ें बुलंद करनी होगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,741 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress