हम सभी स्वदेश एवं मातृभूमि के ऋण से ऋणी हैं”

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-मनमोहन कुमार आर्य

सभी मनुष्यों की कोई न कोई मातृभूमि होती है और वह किसी देश का नागरिक भी होता है। देश, मातृभूमि व उसकी जलवायु का हमारे जन्म, जीवन, शरीर के निर्माण व सुखों में बहुत बड़ा भाग होता है। मातृभूमि चेतन नहीं जड़ है तथापि इसका हमारे जीवन में जो महत्व है, उस कारण हमारा देश और मातृभूमि सभी धर्म, मत, सम्प्रदाय व मजहब आदि से उपर व महत्वपूर्ण होती है। देश है तभी धर्म भी है। यदि नहीं होगा तो धर्म कहां रहेगा? जन्म है तो देश है और देश है तभी हमारा जन्म हो सका है। धर्म देश के बाद आता है। संसार में अनेक धर्म व मत-मतान्तर हैं। सब मतों की कुछ मान्यतायें व सिद्धान्त समान होते हैं और कुछ भिन्न होते हैं। जो मान्यतायें भिन्न होती हैं उनका ऊहापोह कर सभी मनुष्यों को उनकी सत्यता का पता लगाना चाहिये। गणित व विज्ञान विषयों में एक ही प्रश्न व विषय में दो परस्पर भिन्न उत्तर सत्य नहीं होते। इसी प्रकार मत-मतान्तरों में भी सत्य असत्य मान्यताएं होती हैं। हमें अध्ययन कर विवेक विवेचना से सत्य का पता लगाकर सत्य को स्वीकार करना होता है और असत्य को अस्वीकार त्याग करना होता है। ऋषि दयानन्द वेदों के विद्वान थे। उन्होंने मानव जाति की उन्नति के लिए कुछ आवश्यक नियम दिये हैं। नियम यह है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। सभी मनुष्यों को इन नियमों को अपने-अपने धर्म, मत, सम्प्रदाय व मजहब आदि में स्वयं लागू करना चाहिये। जो बातें तर्क की कसौटी पर खरी हों, वही सत्य होती हैं। उन्हें मानना चाहिये और जो तर्क की कसौटी पर सत्य न हो व किसी एक भी मनुष्य के लिये विपरीत, अनुचित, हानिकारक व दुःख देने वाली हों, उनका आचरण नहीं करना चाहिये। ऐसा ग्रन्थ जिसकी सभी मान्यतायें एवं कर्तव्य विषयक शिक्षायें पूर्ण एवं सत्य हैं, वह ग्रन्थ केवल वेद हैं। वेद की सभी मान्यतायें सत्य एवं अनुकरणीय हैं। इससे मनुष्यों की सर्वांगीण उन्नति होती है और देश बलशाली बनता है। इनका सबको आचरण करना चाहिये। वेदों से ही ईश्वर, जीवात्मा प्रकृति के सत्य स्वरूप का ज्ञान होता है और ईश्वर की उपासना सहित अपने कर्तव्यों का भी ज्ञान होता है। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करना हमारा कर्तव्य है। सभी मनुष्यों को विद्या की वृद्धि में सदैव तत्पर रहना चाहिये और इसके लिये वेदों सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि को अपने नियमित स्वाध्याय का विषय बनाना चाहिये।

               मनुष्य का जन्म इस लिये होता है कि माता-पिता में सन्तान प्राप्ति की इच्छा होती है और चेतन जीवात्मा जन्म व मरण धर्मा है। जीवात्मा को अपने पूर्व जन्म के कर्मों का सुख व दुःख रूपी भोग करना होता है। ईश्वर उसके नियमों से हमारे शिशु अवस्था के शरीर का निर्माण माता के गर्भ में होता है। यह निर्माण उस देश के अन्न, वायु जल सहित वहां सूर्य के प्रकाश तथा आकाश में होता है। हमारे माता-पिता किसी न किसी देश के नागरिक होते हैं। जिस स्थान पर हमारा व अन्य किसी मनुष्य का जन्म होता है वह हमारा देश कहलाता है। हमें वहां की नागरिकता प्राप्त होती है। उसी स्थान व देश में जन्म के बाद हमारा पालन पोषण होता है। अन्य स्थानों व देशों में भी हमारा पालन पोषण हो सकता है। जहां-जहां हमारा पालन पोषण होता है उनका ऋण हमारे ऊपर होता है। हम उसके प्रति कृतज्ञ, निष्ठावान एवं समर्पित हों तथा उसकी मान-मर्यादा तथा नाम को उज्जवल वं प्रशंसा योग्य बनायें रखें, यह हमारा कर्तव्य बनता है। प्रश्न यह है कि क्या सभी देशों के सभी लोग ऐसा करते हैं? ऐसा नहीं होता है। यदि ऐसा होता तो भारत का विभाजन न होता, पाकिस्तान न बनता और फिर पाकिस्तान का विभाजन होकर बंगलादेश न बनता। इसका कारण कुछ व अधिकांश लोगों द्वारा अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वाह न करना होता है। अतः देश के शासन को देश के सच्चे व निष्ठावान नागरिकों के प्रति संवेदनशील, निष्पक्ष होने के साथ सबको न्याय प्रदान करने वाला होना चाहिये। जो नागरिक अपनी महत्वांकांक्षाओं, धार्मिक व राजनीतिक विचारधारा व महत्वाकांक्षाओं के कारण छद्म रूप से अपने देश को हानि पहुंचाते हैं और प्रलोभनों का शिकार होते हैं, वह एक प्रकार से देशद्रोही होते हैं। उन्हें उनके देश विरोधी कार्यों के अनुरूप राजद्रोह आदि का दण्ड देश की न्याय व्यवस्था से मिलना चाहिये। यदि ऐसा नहीं होता या विलम्ब से होता है तो फिर उस देश का एकजुट, अखण्ड एवं उन्नति को प्राप्त होना कठिन हो सकता है। अतः देश के सभी नागरिकों को देश के प्रति निष्ठावान् होने सहित देश के लिये प्राण न्योछावर करने की बलिदान की सर्वोच्च भावना से अनुप्राणित होना चाहिये जैसे की हमारे देश की सेना है। इसके सैनिक देश की आजादी के समय से बलिदान देते आ रहें हैं। देश की आजादी से पूर्व भी देश की आजादी के लिये देशवासियों ने क्रान्ति व शान्तिपूर्ण आन्दोलनों में त्याग व बलिदान का परिचय दिया है।

               रामायण में स्वदेश गौरव का उल्लेख करते हुए राम ने लक्ष्मण को बताया था कि जन्म देने वाली मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। मां और मातृभूमि का स्थान संसार का कोई दूसरा स्थान व माता नहीं ले सकती। राम ने लक्ष्मण को कहा था कि अपि स्वर्णमयी लंका मे लक्ष्मण रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।’ अथर्ववेद का एक वचन है माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या’ अर्थात् भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं। यदि हम इन भावों को जान लें और देश के सभी लोग इन भावनाओं के अनुरूप व्यवहार करें तो यह देश का सौभाग्य होता है। हमारा देश महाभारत के बाद से निरन्तर पतन को क्यों प्राप्त हुआ? इसका उत्तर यदि खोजें तो हम पूर्व समयों में इन भावनाओं का अभाव पाते हैं। यदि हमारे देश के लोगों में महाभारत युद्ध व उसके बाद देश प्रेम होता, निष्पक्षता और न्यायप्रियता होती तथा हम अज्ञान का नाश और ज्ञान प्राप्ति में तत्पर होते तो हमें जो दुर्दिन देखने पड़े हैं, वह देखने न पड़ते। आज भी अधिकांश देशवासियों में देश प्रेम और देश भक्ति है, साथ ही धन व सम्पत्ति का मोह भी है, हम ज्ञानार्जन मुख्यतः सत्य धर्म विषयक ज्ञानार्जन में पुरुषार्थ नहीं करते, सत्यासत्य परम्पराओं व मान्यताओं को यथावत् स्वीकार कर लेते हैं, हमारे भीतर जन्मना जातिवाद व अन्य प्रकार की बुराईयां हैं, तो इन बातों के होते हुए हमारा देश सदा के लिये अखण्डित नहीं हो सकता। इसके लिये देश प्रेम, देश के लिये बलिदान की भावना सहित हमें ज्ञानार्जन, प्रलोभनों व धन के प्रति अधिक आसक्ति से बचना होगा। आज लोग प्रचुर धन होने पर भी और अधिक धन की भावना से धन प्राप्ति में लगे रहते हैं। वह उचित अनुचित का ध्यान नहीं रखते। इससे वह देश के प्रति अपने अनेक कर्तव्यांं से दूर हो जाते हैं। अतः हमें देश के प्रति सम्मान, त्याग, भक्ति व प्रेम की भावना से युक्त होना होगा और इसके साथ ही धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक अन्धविश्वासों व अज्ञान से भी मुक्त होना होगा। ऐसा होने पर ही हमारा और हमारे देश का कल्याण हो सकता है। हमें मातृभूमि के अपने ऊपर ऋण को अनुभव करना है और देश व मातृभूमि को किसी भी प्रलोभन व अज्ञानता आदि के कारण विस्मृत नहीं करना है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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