आत्माराम यादव पीव
पृथ्वी को ईश्वर का रूप मानने वाले भारत के मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व मानव जीवन के कल्याणार्थ सृष्टि के पर्यावरण का महत्व और उसकी रक्षा को समझा और प्रकृति से सांनिध्य, संवेदनशीलता कायम रखते हुए मानवीय रोगों के उपचार तथा स्वास्थ्य-सम्बन्धी अनेक उपयोगी तत्वों का सृष्टि के योगदान से जोड़ते हुए उसका हल निकाल रखा था । यही नहीं वेदकालीन समाज में न केवल पर्यावरण के सभी पहलुओं पर उनकी चौकस दृष्टि थी, वरन् पर्यावरण, प्राणियों और जीवों सहित मानव की रक्षा और महत्त्व को भी उन्होंने जाना और समझा और इस और उनकी दूरदर्शिता का ही परिणाम रहा जहा पर्यावरण-प्रदूषण बना रहा वही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में पर्यावरण की रक्षा भी होती रही। पर्यावरण की रक्षा के लिए वनों के पेड़ पौधों को देवतुल्य स्थान दिया गया वही भूमि व् नदिओं को माता का स्थान देखर उनके पूजन आदि का विधान किया गया जिसका उल्लेख वेदों में इस प्रकार किया गया है-यस्य भूमिः प्रमाऽन्तरिक्षमुतोदरम्। दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ।। (अथर्ववेद 10/7/32)
अर्थात् ‘भूमि जिसकी पादस्थानीय और अन्तरिक्ष उदर के समान है तथा द्युलोक जिसका मस्तक है, उन सबसे बड़े ब्रह्म को नमस्कार है।’
यहाँ परमब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार कर प्रकृति के अनुसार चलने का निर्देश किया गया है। वेदोंके अनुसार प्रकृति एवं पुरुष का सम्बन्ध एक-दूसरे पर आधारित है। ऋग्वेदमें प्रकृति का मनोहारी चित्रण हुआ है। वहाँ प्राकृतिक जीवनको ही सुख-शान्ति का आधार माना गया है। किस ऋतुमें कैसा रहन-सहन हो, क्या खान-पान हो, क्या सावधानियाँ हों-इन सबका सम्यक् वर्णन है। ऋग्वेद (7/103/7) में वर्षा ऋतु को उत्सव मानकर शस्यश्यामला प्रकृति के साथ अपनी हार्दिक प्रसत्रता की अभिव्यक्ति की गयी है- ब्राह्मणासो अतिरात्रे न सोमे सरो न पूर्णमभितो वदन्तः । संवत्सरस्य तदहः परि ष्ठ यन्मण्डूकाः प्रावृषीणं बभूव ॥ अर्थात् ‘जैसे जिस दिन पहली वर्षा होती है, उस दिन मेढक सरोवरों को पूर्णरूप से भर जाने की कामना से चारों ओर बोलते हैं, इधर-उधर स्थिर होते हैं, उसी प्रकार हे ब्राह्मणो! तुम भी रात्रि के अनन्तर ब्राह्म मुहूर्तमें जिस समय सौम्य वृद्धि होती है, उस समय वेद-ध्वनिसे परमेश्वरके यज्ञका वर्णन करते हुए वर्षा ऋतुके आगमनको उत्सव की तरह मनाओ।’
वेदोंमें पर्यावरण को अनेक वर्गों में बाँटा गया है। जैसे- (1 ) वायु, (2) जल, (3) ध्वनि, (4) खाद्य और (5) मिट्टी, वनस्पति, वनसम्पदा, पशु-पक्षी-संरक्षण आदि। सजीव जगत के लिये पर्यावरण की रक्षा में वायु की स्वच्छता का प्रथम स्थान है। बिना प्राणवायु (ऑक्सीजन) के क्षणभर भी जीवित रहना सम्भव नहीं है। ईश्वर ने प्राणि जगत के ये सम्पूर्ण पृथ्वी के चारों ओर वायु का सागर फैला रखा है। हमारे शरीर के अंदर रक्त-वाहिनियोंमें बहता हुआ रक्त बाहर की तरफ दबाव डालता रहता है, यदि इसे संतुलित नहीं किया जाय तो शरीर की सभी धमनियाँ फट जायेंगी तथा जीवन नष्ट हो जायगा। वायुका सागर इससे हमारी रक्षा करता है। पेड़-पौधे ऑक्सीजन देकर क्लोरोफिल की उपस्थिति में, इसमें से कार्बनडाईऑक्साइड अपने लिये रख लेते हैं और ऑक्सीजन हमें देते हैं। इस प्रकार पेड़-पौधे वायुकी शुद्धिद्वारा हमारी प्राण-रक्षा करते हैं।
वायुकी शुद्धिपर बल वायुकी शुद्धि जीवनके लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इस तत्व को यजुर्वेद (27/12) में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है- तनूनपादसुरो विश्ववेदा देवो देवेषु देवः।पथो अनक्तु मध्वा घृतेन ॥ अर्थात् ‘उत्तम गुणवाले पदार्थों में उत्तम गुणवाला प्रकाश रहित तथा सबको प्राप्त होनेवाला (‘तनूनपात्’) जो वायु शरीर में नहीं गिरता वह कामना करनेयोग्य। जो वायु शरीरमें नहीं गिरता, वह कामना करनेयोग्य मधुर जलके साथ श्रोत्र आदि मार्गको प्रकट करे, उसको तुम जानो।’ वायुको शुद्ध तथा अशुद्ध दो भागोंमें बाँटा गया है- (1) श्वास लेनेके योग्य शुद्ध वायु तथा (2) जीवमात्रके लिये हानिकारक दूषित वायु -” द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः । दक्षं ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद्रपः ॥ (ऋक्० 10/137/2) अर्थात् ‘प्रत्यक्षभूत दोनों प्रकारकी हवाएँ सागर-पर्यन्त और समुद्र से दूर प्रदेशपर्यन्त बहती रहती हैं। हे साधक ! एक तो तेरे लिये बल को प्राप्त कराती है और एक जो दूषित है, उसे दूर फेंक देती है।’
हजारों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों को यह ज्ञान था कि हवा कई प्रकार के गैसों का मिश्रण है, जिनके अलग-अलग गुण एवं अवगुण हैं; इनमें ही प्राणवायु (ऑक्सीजन) भी है, जो जीवनके लिये अत्यन्त आवश्यक है- यददौ वात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हितः । ततो नो देहि जीवसे ॥ (ऋक्० 10/186/3) अर्थात् ‘इस वायुके गृह में जो यह अमरत्व की धरोहर स्थापित है, वह हमारे जीवन के लिये आवश्यक है।’ शुद्ध वायु कई रोगों के लिये औषधि का काम करती है, यह निम्न ऋचामें दिखाया गया है- आ त्यागमं शन्तातिभिरथो अरिष्टतातिभिः । दक्षं ते भमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते ॥ (ऋक्० 10/186/4) अर्थात् यह जानो कि शुद्ध वायु तपेदिक-जैसे घातक रोगोंके लिये औषधिरूप है। ‘हे रोगी मनुष्य ! मैं वैद्य तेरे पास सुखकर और अहिंसाकर रक्षणमें आया हूँ। तेरे लिये कल्याणकारक बलको शुद्ध वायुके द्वारा लाता हूँ और तेरे जीर्ण रोगको दूर करता हूँ।’ ह्रदय रोग, तपेदिक तथा निमोनिया आदि रोगोंमें वायुको बाहरी साधनोंद्वारा लेना जरूरी है, यहाँ यह संकेत है- वात आ वातु भेषजं शंभु मयोभु नो हृदे। प्र ण आयूँषि तारिषत् ॥ (ऋक्०10/186/1) अर्थात् ‘याद रखिये शुद्ध ताजी वायु अमूल्य औषधि है, जो हमारे हृदयके लिये दवाके समान उपयोगी है, आनन्ददायक है। वह उसे प्राप्त कराता है और हमारी आयुको बढ़ाता है।’
जल-प्रदूषण और उसका निदान- जल मानव जीवन में पेय के रूप में, सफाई एवं धोने में, वस्तुओं को ठंडा रखने तथा गरमी से राहत पाने में, विद्युत्-उत्पादन में, नदियों-झीलों और समुद्र में सवारियों और सामानों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिये भाप-इंजनों सहित आधुनिक मशीनों-उपकरणों को चलाने में, अग्नि बुझाने में, कृषि-सिंचाई तथा उद्योगों और भोजन बनाने में अति आवश्यक है। सभी जीवधारी जल का उपयोग निरन्तर करते रहते हैं, जलके बिना जीवन सम्भव नहीं है। औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप कल-कारखानों सीमेंटेड सड़कों, इमारतों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि, कारखानोंसे उत्पन्न अपशिष्ट पदार्थ- कूड़ा-करकट, रासायनिक अपरिष्ट आदि नदियों में मिलते रहते हैं। अधिकांश कल-कारखाने नदियों-झीलों तथा तालाबों के निकट होते हैं, जनसंख्या-वृद्धिके कारण मल-मूत्र नदियोंमें बहा दिया आता है, गाँवों तथा नगरों का गंदा पानी प्रायः एक बड़े नालेके रूपमें नदियों तालाबों और कुओंमें अंदर-ही-अंदर आ मिलता है। समुद्रमें परमाणु विस्फोटसे भी जल प्रदूषित हो जाता है। वेदोंमें जल प्रदूषणको समस्यापर विस्तारसे प्रकाश पड़ा है। मकानके पास ही शुद्ध जलसे भरा हुआ जलाशय होना चाहिये- इमा आपः प्र भराम्ययक्ष्मा यक्ष्मनाशनीः। गृहामुप प्रसीदाम्यमृतेन सहाग्रिना।। (अथर्ववेद 3/12/9) अर्थात् ‘अच्छे प्रकारसे रोगरहित तथा रोगनाशक इस जल को मैं लाता हूँ। शुद्ध जलपान करने से मैं मृत्यु से बचा रहूँगा। अत्र, घृत, दुग्ध आदि सामग्री तथा अग्रिके सहित घरोंमें आकर अच्छी तरह बैठता हूँ।’
शुद्ध जल मनुष्यको दीर्घ आयु प्रदान करनेवाला, प्राणोंका रक्षक तथा कल्याणकारी बताया गया है और उसका महत्व प्रतिपादित किया गया है- यह भाव निम्न ऋचामें देखिये-शं नो देवीरभिष्कृय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि खवन्तु नः ।। (ऋ० 10/9/4) अर्थात् ‘सुखमय जल हमारे अभीष्टकी प्राप्तिके लिये तथा रक्षाके लिये कल्याणकारी हो। जल हमपर सुख-समृद्धिकी वर्षा करे।’ जल चेहरे का सौन्दर्य तथा कोमलता और कान्ति बढ़ाने में औषधिरूप है। भोजन के पाचन में अधिक जल पीना आवश्यक है, यह विचार निम्न ऋचामें देखिये-आपो भद्रा घृतमिदाप आसत्रग्रीषोमौ विभ्रत्याप इत्ताः। तीव्रो रसो मधुपुचामरंगम आ मा प्राणेन सह वर्चसा गमेत्॥ (अथर्ववेद 3/13/15) अर्थात् ‘याद रखिये, जल मङ्गलमय और घी के समान पुष्टिदाता है तथा वही मधुरताभरी जलधाराओं का स्रोत भी है। भोजन के पचानेमें उपयोगी तीव्र रस है। प्राण और कान्ति, बल और पौरुष देनेवाला, अमरताकी ओर ले जानेवाला मूल तत्त्व है।’ आशय यह है कि जलके उचित उपयोगसे प्राणियोंका बल, तेज, दृष्टि और श्रवण-शक्तिया बढ़ती हैं।
जल के महत्व को हम भूल चुके है किन्तु ऋषियों ने लिखा है – आदित्पश्याम्युत वा नृणोम्या मा बोयो गच्छति वा पाताम्। मन्ये भेजागो अमृतस्य तर्हि हिरण्यवर्णा अतुर्य यदा वः ।। (अथर्ववेद 3/13/6) तात्पर्य यह है कि ‘देखने-सुनने एवं बोलनेकी शक्ति बिना पर्याप्त जलके उपयोग के नहीं आती। जल ही जीवन का आधार है। अधिकांश जीव जलमें ही जन्म लेते हैं और उसीमें रहते हैं। हे जलधारको। मेरे निकट आओ। तुम अमृत हो।’ कृषि-कर्मका महत्त्व निम्न ऋचामें देखिये, किसानों के नेत्र जलके लिये वर्षा ऋतुमें बादलोंपर ही लगे रहते हैं- तस्मा अरं गमाम वो गस्य क्षयाय जिन्वध। आपो जनयथा च नः ।। (ऋ० 10/9/3) ‘हे जल! तुम अन्नकी प्राप्तिके लिये उपयोगी हो। तुमपर जीवन तथा नाना प्रकारकी औषधियाँ, वनस्पतियाँ एवं अन्न आदि पदार्थ निर्भर हैं। तुम औषधिरूप हो।’
ध्वनि-प्रदूषण एवं उसका निदान के महत्व पर लिखा गया है – भजन-कीर्तन, धार्मिक गीत-गान, धर्मग्रन्थोंका पाठ, प्रार्थना, स्तुति, गुरुग्रन्थसाहिबका अखण्ड पाठ, रामायण, मीरा तथा नानक एवं कबीरके भक्ति-प्रधान भजन उपयोगी हैं। संगीत भक्ति-पूजाका एक महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। खेद है कि आजकल ध्वनिके साधनका दुरुपयोग हो रहा है। रेडियो, ट्रांजिस्टर, टी.वी. ध्वनि-प्रसारक यन्त्र जोर-जोरसे सारे दिन कान फाड़ते रहते हैं। इससे सिरदर्द, तनाव, अनिद्रा आदि फैल रहे हैं। वेदोंमें कहा गया है कि हम स्वास्थ्यकी दृष्टिसे अधिक तीखी ध्वनिसे बचें, आपसमें वार्ता करते समय धीमा एवं मधुर बोलें- या भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा । सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया ॥ (अथर्ववेद 3/30/3) अर्थात् ‘भाई भाई से, बहन बहन से अथवा परिवार में कोई भी एक-दूसरेसे द्वेष न करे। सब सदस्य एकमत महत्त्व प्रदर्शित किया गया है। सभी प्राणी पृथ्बीके पुत्र और एकवती होकर आपसमें शान्ति से भद्र पुरुषों की तरह रहे।
खाद्य-प्रदूषण से बचाव को लेखा वेदों के ऋषियों ने खाद्य के सम्बन्ध में वैज्ञानिक आधारपर निष्कर्ष दिया है। जैसे- मनुष्य पाचनशक्तिसे भोजनको भलीभाँति खुद पचाये, जिससे वह शारीरिक और आत्मिक बल बढ़ाकर उसे सुखदायक बना सके। इसी प्रकार पेय पदार्थों, जैसे जल-दूध इत्यादिके विषयमें भी उल्लेख है- यत् पिवामि सं पिबामि समुद्र इव संपिवः। प्राणानमुष्य संपाय सं पिबामो अमुं वयम् ॥ (अथर्ववेद 6’135/2) अर्थात् ‘मैं जो कुछ पीता हूँ, यथाविधि पीता हूँ; जैसे यथाविधि पीनेवाला समुद्र पचा लेता है। दूध जल-जैसे पेय पदार्थोंको हम उचित रीतिसे ही पिया करें। जो कुछ खायें, अच्छी तरह चबाकर खायें’- यद् गिरामि सं गिरामि समुद्र इव संगिरः। प्राणानमुष्य संगीर्य सं गिरामो अमुं वयम् ॥ (अथर्ववेद 6/135/3) अर्थात् ‘जो भी खाद्य पदार्थ हम खायें, वह यथाविधि खायें, जल्दबाजी न करें। खूब चबा-चबाकर शान्तिपूर्वक खायें। जैसे, यथाविधि खानेवाला समुद्र सब कुछ पचा लेता है। हम शाक-फल-अन्न आदि रसवर्धक खाद्य पदार्थ हो खायें।”
मिट्टी (पृथ्वी) एवं वनस्पतियोंमें प्रदूषणकी रोकथाम को लेकर अथर्ववेदके 12 वें काण्डके प्रथम सूक्तमें पृथ्वी का माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः। पृथ्वीका निर्माण कैसे हुआ है, देखिये-शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संमृता भुता। तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकर नमः ॥ (अथर्ववेद 12/1/26) अर्थात् ‘भूमि चट्टान, पत्थर और मिट्टी है। मैं उसी हिरण्यगर्भा पृथ्वीके लिये स्वागत-वचन बोलता हूँ।’ नाना प्रकारके फल, औषधियाँ, फसलें, अनाज, पेड़-पौधे इसी मिट्टीपर उत्पन होते हैं। उनपर ही हमारा भोजन निर्भर है। अतः पृथ्वीको हम माता के समान आदर दें।
याद रखिये, ‘भोजन और स्वास्थ्य देनेवाली सभी वनस्पतियाँ इस भूमिपर ही उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी सभी वनस्पतियोंकी माता और मेघ पिता है; क्योंकि वर्षा जल के रूप में पानी बहाकर यह पृथ्वी में गर्भाधान करता है।’ पृथ्वीमें नाना प्रकारकी धातुएँ ही नहीं, वरन् जल और खाद्यान्न, कन्द-मूल भी पर्याप्त मात्रामें पाये जाते हैं, चतुर मनुष्योंको उससे लाभ उठाना चाहिये-यामन्वैच्छद्धविषा विश्वकर्मा-तरर्णवे रजसि प्रविष्टाम्। भुजिष्यं पात्रं निहितं गुहा यदाविभोंगे अभवन्तुमद्भयः॥ (अथर्ववेद 12/1/60) भावार्थ यह है कि ‘चतुर मनुष्य पृथ्वीतल के नीचेसे कन्दमूल खाद्यात्र खोजकर जीवन-विकास करते हैं।’
आज देखा जाए तो हम अपनी धरती से न्याय नहीं कर रहे हैं। अंधाधुंध शहरीकरण, औद्योगिकीकरणके कारण वन तेजी से काटे जा रहे हैं, नदियों के दिल को चीर कर रेत गिट्टी निकाल नदिओं को बेदम किया जा चूका है। निचले क्षेत्रों को ऊँचा करने के लिए हजारों ट्रक मिट्टी का भराब कर सभी जगह भूमि ढीली पड़ती जा रही है। खेत रसायनिक खादों और कीटनाशकों के कारण अनुपजाऊ हो गये हैं। पेड़ों के अभावमें वर्षा ऋतु भी अनियन्त्रित हो गयी है। बढ़ती जनसंख्या को खाद्य-समस्या मिट्टी के प्रदूषणसे फैली है। अगर हम वेदों के ऋषिओं के मूलमंत्र पर चलते तो आज हम विनाश के कगार पर नहीं होते।
आत्माराम यादव पीव