सब कुछ सरकार करे, सब कुछ सरकार को ही करना चाहिए या सब कुछ सरकार की ही जिम्मेदारी है, इस प्रकार की मानसिकता हमारे समाज में बहुत व्यापक रूप से विकसित हो चुकी है किंतु यह पूरी तरह ठीक नहीं है क्योंकि लोग यदि चाहें तो बहुत सी समस्याएं एवं तमाम कार्य अपने आचरण में थोड़ा-बहुत बदलाव करके ही कर सकते हैं, इसके लिए अलग से कुछ प्रयास करने की न आवश्यकता है और न ही अलग से धन एवं समय की जरूरत है। बस, आवश्यकता इस बात की है कि हमें स्वयं को थोड़ा-बहुत बदलना होगा। वैसे भी, एक प्राचीन कहावत है कि ‘ताली एक हाथ से नहीं बजती है।’ कहने का अभिप्राय यह है कि यदि लोग सरकार का थोड़ा-बहुत सहयोग करें एवं सजग प्रहरी के रूप में सामने आयें तो अनगिनत समस्याओं का समाधान हो सकता है।
उदाहरण के रूप में यदि इस विषय को जानने एवं समझने का प्रयास किया जाये तो बहुत सारी बातें स्पष्ट हो जायेंगी। नजीर के तौर पर यदि स्वच्छता को लिया जाये और हम इस तरफ ध्यान दें तो पूरे वातावरण को स्वच्छ रखा जा सकता है। जगह-जगह कूड़ा फेंकने की बजाय कूड़ेदान एवं निश्चित स्थान पर डालने से गंदगी से बचा जा सकता है। इसके लिए अलग से कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। बस, हमें थोड़ा सजग रहने की जरूरत है। प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी ने इस दिशा में बहुत बेहतरीन पहल की है। उन्होंने तो स्वच्छता को एक अभियान एवं मिशन के रूप में तब्दील कर दिया है।
सार्वजनिक शौचालय में लगी टंकियों एवं टोंटियों के प्रति हमारी सामूहिक जिम्मेदारी होती तो किसी भी शौचालय की न तो टोंटी टूटती और न ही अन्य तरह का कोई नुकसान होता। इसके लिए हमें इस बात पर विचार करना होगा कि टोंटी उखाड़ने एवं तोड़ने के लिए हमें सरकार की तरफ से कोई आदेश नहीं आता है जबकि आसानी से हम यह कह देते हैं कि सरकार टोंटियों की भी हिफाजत नहीं कर सकती। सच्चाई तो यह है कि यदि हम सचेत रहें तो टोंटियों के रख-रखाव में सरकार की कोई जरूरत ही नहीं है। आवश्यकता है तो हमें सिर्फ अपनी आदतों में बदलाव करने की। हमें यह सोचना होगा कि टोंटियों को सुरक्षित रखने की जितनी जिम्मेदारी सरकार की है, उससे कहीं अधिक हमारी है। यह तो मात्रा एक उदाहरण है। इस प्रकार की बातें तमाम क्षेत्रों में देखने को मिल जायेंगी।
पर्यावरण के प्रति लापरवाही, शादी-ब्याह एवं अन्य अवसरों पर आवश्यकता से अधिक पटाखों का प्रयोग, ट्रैफिक नियमों के पालन में लापरवाही, शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्रा में इंसानियत एवं मानवता की जगह अर्थ कमाने की इच्छा, ऊपरी कमाई की प्रबल इच्छा, ईमानदार व्यक्तियों से दूरी बनाने की मानसिकता, नियमों-कानूनों का पालन अपनी शान के विरुद्ध समझना, महिलाओं एवं बुजुर्गों के प्रति आदर-भाव में कमी आदि तमाम तरह के ऐसे मामले हैं जिसकी वजह से व्यवस्था बिगड़ती है और बहुत बड़ी-बड़ी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
भ्रष्टाचार कैसे रुके, देश में ईमानदार लोग जिम्मेदार पदों पर आयें, इसकी बात तो सभी लोग करते हैं किंतु जब अपनी बात आती है तो ज्यादातर लोग पलट जाते हैं। इस प्रकार का आचरण ठीक वैसे ही है, जैसे भगत सिंह पैदा तो होने चाहिए, किंतु पड़ोसी के घर। कमोबेश इस प्रकार की मानसिकता समाज में बहुत तेजी से विकसित हो रही है। कहने का आशय यही है कि त्याग एवं बलिदान की परंपरा तो जारी रहनी चाहिए किंतु वह त्याग और बलिदान मुझे न करना पड़े, इसके लिए और लोग आयें।
भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए प्रधानमंत्राी ने नोटबंदी जैसा साहसिक कदम उठाया किंतु बहुत से लोगों ने इस मिशन में सरकार का साथ नहीं दिया। तमाम लोग दिहाड़ी लेकर नोट बदलने का काम करने लगे। समाज के जो प्रभावी लोग थे, बिना लाइन में लगे उनके नोट बदल दिये गये। समाज के प्रभावी एवं प्रतिष्ठित लोगों ने प्रतीकात्मक तौर पर ही यदि लाइन में लगकर नोट बदलने का काम किया होता तो समाज में सकारात्मक संदेश गया होता। नोटबंदी के समय तमाम बैंक के अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने सिर्फ पैसा बनाने का काम किया। आखिर ऐसे भ्रष्ट लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है? नोटबंदी प्रकरण में तमाम लोग ऐसे देखने को मिले जिन्होंने सहयोग तो कुछ भी नहीं किया किंतु ‘नोटबंदी’ के तौर-तरीकों पर कमियां निकालने में बहुत आगे रहे। इस मामले में होना तो यह चाहिए था कि थोड़ा सरकार ने कदम आगे बढ़ाया तो कुछ हमें भी आगे बढ़कर सहयोग करना चाहिए था या यूं कहें कि देश को फिर से सोने की चिड़िया बनाने के लिए हमें भी तो कुछ करना ही होगा।
शादी-ब्याह, एवं अन्य अवसरों पर पटाखे छोड़ना एवं जलाना अच्छी बात है। इसके माध्यम से खुशी का इजहार किया जाता है किंतु इसके साइड इफेक्ट भी बहुत हैं। इससे पर्यावरण को काफी क्षति पहुंचती है। आज भारत सहित दुनिया के तमाम छोटे-बड़े शहरों में पर्यावरण की समस्या बहुत विकराल रूप से मुंह बाये खड़ी है। पर्यावरण की रक्षा के लिए यदि हम अपनी आदतों एवं आवश्यकताओं में थोड़ा-बहुत बदलाव कर लें तो इस समस्या से काफी हद तक निजात पाई जा सकती है। पटाखे यदि न छोड़े जायें या कम छोड़े जायें तो उससे कोई भी कार्य रुकने वाला नहीं है जबकि पटाखे यदि न छोड़े जायें तो पर्यावरण की दिशा में यह बहुत महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है।
हम प्राइवेट वाहनों का जितना प्रयोग करते हैं, यदि उसमें थोड़ी सी भी कमी करके सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करने लगें तो पर्यावरण के जहर से बहुत राहत मिल सकती है। कहने का आशय यही है कि पर्यावरण की समस्या का निदान सरकारी प्रयासों से तो होगा ही किंतु उससे अधिक निदान हम अपनी आदतों में थोड़ा-बहुत बदलाव करके भी कर सकते हैं।
आजकल देखने में आता है कि कुछ लोगों को ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन में काफी आनंद आता है और गर्व की अनुभूति होती है जबकि हम सभी के इसी व्यवहार के कारण दुर्घटनाओं में लगातार वृद्धि होती जा रही है। राजधानी दिल्ली में तो बायीं तरफ से ओवरटेक करने की प्रवृत्ति बहुत तेजी से हावी हो रही है। इस वजह से बच्चों, बुजुर्गों, विकलांगों एवं अन्य लोगों को सड़क पार करने में बहुत दिक्कत होती है जबकि समस्या सरकार से संबंधित नहीं है। अधिकांश समस्या लोगों के व्यवहार से संबंधित है। कहने का आशय यही है कि लोग यदि नियमों-कानूनों का पालन करें तो तमाम सामान्य किस्म की समस्याओं का समाधान हो सकता है।
एक बात तो सभी लोग कहते हैं कि राजनीति में अच्छे लोगों को आना चाहिए किंतु जब वोट देने की बारी आती है तो तमाम लोग पैसा, शराब एवं अन्य तरह के गिफ्ट की मांग करने लगते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि जातिवाद, क्षेत्रावाद, संप्रदायवाद एवं अन्य आधार पर मतदान करने लगते हैं। अब यह तो जरूरी है नहीं कि अच्छे व्यक्ति के पास अच्छा पैसा भी हो। अच्छे व्यक्ति के पास जब अच्छा पैसा नहीं होगा तो वह चुनाव नहीं जीत सकता जबकि अच्छे समाज का निर्माण करने के लिए अच्छे लोगों की नितांत आवश्यकता है। अतः अच्छे लोगों को चुनाव जितवाने की जिम्मेदारी हम सभी की है। वोट देते समय यदि हम किसी लोभ एवं स्वार्थ में पड़ेंगे तो अच्छे व्यक्ति का चुनाव नहीं हो सकता है। इन सब बातों का यदि निष्कर्ष निकाला जाये तो स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है कि राजनीति में अच्छे लोगों की कमी सिर्फ हम लोगों के कारण है। हम अपनी आदतों को यदि सुधार लें तो निश्चित रूप से राजनीति एवं लोकसेवा एकदम साफ-सुथरी एवं पारदर्शी हो सकती है।
डॉक्टरों को भगवान का दूसरा रूप कहा जाता है किंतु दरिद्र नारायण का अच्छा इलाज आज के परिवेश में संभव नहीं है। प्राइवेट अस्पतालों में अनाप-शनाप टेस्ट करवाकर सिर्फ पैसा बनाने का काम हो रहा है। अधिकांश अस्पतालों में इंसानियत एवं मानवता कराह रही है। सरकारी अस्पतालों की इतनी क्षमता नहीं है कि वहां सभी लोगों का ठीक से इलाज हो सके। यह बात तो पूरी तरह सत्य है कि सरकार सभी को उत्तम स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर पाने में नाकाम है किंतु स्वास्थ्य के क्षेत्रा में लगे सभी लोग यदि चाह लें तो सभी को अच्छी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध हो सकती है किंतु इसके लिए अपनी आदतों में थोड़ा-बहुत बदलाव करना ही पड़ेगा।
ठीक इसी प्रकार की स्थिति शिक्षा क्षेत्रा की भी है। तमाम शिक्षक कक्षा में पढ़ाने की बजाय अनुपस्थित रहते हैं। कक्षा में पढ़ाने की बजाय ट्यूशन पर ज्यादा जोर देते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि शिक्षा क्षेत्रा मिशन के बजाय प्रोफेशन अधिक बन गया है। बच्चों को दिये जाने वाले मिड-डे मील की क्वालिटी बहुत बार बहुत ही खराब देखने को मिलती है। बच्चों की अधिक संख्या दिखाकर अधिक पैसा बनाने का खेल जारी है। इन बातों का यदि विश्लेषण किया जाये तो यहां भी सरकार से ज्यादा हमारी कमी नजर आती है। समस्या भी हमारी आदत के कारण ही है। समाज के प्रति यदि हम थोड़ी जिम्मेदारी समझ लें तो बहुत से लाचार एवं असहाय बच्चों का भविष्य संवर सकता है।
महिलाओं, बच्चों एवं बुजुर्गों के प्रति हम अपना नजरिया यदि थोड़ा सा बदल लें तो इनके मन में कभी इस बात का अहसास नहीं होगा कि उन्हें सहारा देने वाला कोई नहीं है। सड़क पार करते समय, हास्पिटल, बसों एवं ट्रेनों में या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर इन्हें जो भी थोड़ी बहुत दिक्कतें आती हैं, उसमें हम सभी को सहयोग करना चाहिए। एक बहुत प्राचीन कहावत है कि बुजुर्गों की दुआ, दवा से ज्यादा असरदार होती है। बच्चे तो भगवान का रूप हैं। अतः बच्चों को हमें इसी रूप में देखना चाहिए। महिलाओं के बारे में हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि – ‘यत्रा नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्रा देवता’ अर्थात जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवताओं का वास होता है किंतु आज के परिवेश में क्या हो रहा है? कहने का आशय यही है कि बच्चों, बुजुर्गों एवं महिलाओं के प्रति यदि हम थोड़ा-बहुत संवेदनशील हो जायें तो हम जिस राम राज्य की कल्पना करते हैं, उसी प्रकार के समाज का निर्माण हो जायेगा। यह सब सिर्फ हम सबकी आदतों में थोड़ा-बहुत बदलाव से ही संभव हो जायेगा। इस प्रकार की तमाम ऐसी बातें हैं जहां हमारे आचरण एवं व्यवहार के कारण समस्याएं उत्पन्न होती हैं। हमें तभी समझ में आता है जब हम स्वयं किसी समस्या से पीड़ित होते हैं। स्वयं पीड़ित होने के बाद तो कुछ लोग उपदेशक की भूमिका में आ जाते हैं।
इन सब बातों के अतिरिक्त हम सभी अपनी आदतों में थोड़ा-बहुत बदलाव करते हुए यदि प्रकृति की शरण में आ जायें तो हमारा जीवन सुखमय एवं कल्याणकारी तो होगा ही, साथ ही आने वाली पीढ़ियों को भी एक दिशा मिलेगी। अपनी जीवन शैली को यदि हम प्रकृति के अनुरूप ढाल लें तो स्वतः कई छोटी-मोटी बीमारियों से मुक्ति मिल सकती है। आज छोटी-से-छोटी बीमारी का स्थायी इलाज एलौपैथ में संभव नहीं है जबकि भारतीय चिकित्सा पद्धति में गंभीर से गंभीर बीमारियों का स्थायी इलाज है किंतु हमें उसकी जानकारी नहीं है एवं हम उस तरफ अग्रसर भी नहीं हो पा रहे हैं। पूरी दुनिया प्राचीन भारतीय जीवन पद्धति की तरफ आना चाह रही है किंतु हम अभी भी उस तरफ तेजी से नहीं आगे बढ़ रहे हैं जबकि इसके लिए हमें अलग से कुछ करना नहीं है, सिर्फ अपनी आदतों में थोड़ा-सा परिवर्तन करना है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आज आवश्यकता इस बात की है कि लोगों को प्राचीन भारतीय जीवन
पद्धति, रीति-रिवाजों एवं, संस्कारों के महत्व से अवगत कराकर इसी तरफ अग्रसर हुआ जाये। इस रास्ते पर जाने पर हम सभी के जीवन की नैया बहुत आसानी से चलती रहेगी। अब सवाल यह है कि जब हम सबके थोड़ा-सा बदलने से एक स्वस्थ एवं आदर्श समाज का निर्माण हो सकता है तो क्यों न उस दिशा में आगे बढ़ा जाये? इसी में राष्ट्र एवं समाज के साथ प्रत्येक व्यक्ति का भी कल्याण निहित है। तो, आइये, हम सभी एक नया समाज बनाने के लिए इस दिशा में पूर्ण मनोयोग से आगे बढ़ें।