
अक्सर जब मैं अकेला रहता हूं तो स्वभावत: मेरा मन नहीं लगता । मैं अपने आप से पूछता भी हूं कि आखिर मन क्यों नहीं लग रहा है ? किंतु सच्चाई यह है कि उसका उत्तर मुझे नहीं मिलता । उत्तर नहीं मिलने के कई कारण हैं! एक कारण तो यह है कि मैं इसके उत्तर की सही रूप में तलाश नहीं करता, प्रयास नहीं करता! मनो चिकित्सा विज्ञान के अनुसार यह एक प्रकार का मनोरोग माना जा सकता है किंतु यह मनुष्य का स्वभाव भी है कि वह अधिक देर तक अकेला नहीं रह सकता। लेकिन हां, यदि उसे लेखन कार्य में रूचि है, अध्ययन में रुचि है, कलात्मक कार्यों में रुचि है, संगीत में रुचि है, भक्ति और पूजन में रुचि है–तो वह हमेशा अकेला रहना पसंद करेगा क्योंकि तब उसके इन कार्यों में बाधा उत्पन्न होगी और सृजन करने वाला व्यक्ति अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता! यहां मैं इन सब से इधर इस प्रश्न की ओर जाना चाहता हूं कि आखिर हमारा मन क्या चाहता है ? गीता में श्रीकृष्ण ने मन को बड़ा बलवान कहां है । यदि मन बहुत ताकतवर है तो हमारा मन निश्चय ही मन के कहे अनुसार चलने लगेगा चाहे वह मार्ग सुमार्ग का मार्ग हो अथवा कुमार्ग का मार्ग । सवाल इतना ही नहीं है कि हम अपने मन के बारे में, मन की गति जानने के लिए क्या कुछ करें कि हमारा मन नियंत्रित हो जाए । मेरे सामने सवाल यह है कि 24 घंटे हमारा मन कहां- कहां भागता फिरता है और हमारा मन आखिर क्या चाहता है ? सच तो यह है कि हमारा मन हर क्षण पल- पल परिवर्तित होता रहता है । हम लाख चाहे हमारा मन अपने काबू में नहीं रहता । वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद और संतों- महापुरुषों की परा वाणी हमें बार-बार सचेत करती रही है कि हम अपने मन के कहे अनुसार कभी ना चलें । क्योंकि हमारा मन एक तो बड़ा चंचल है दूसरा हमारे अधीन तो कभी नहीं रहता । गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से सबसे पहले मन पर काबू करने के लिए कहते हैं क्योंकि जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए जहां हमें एकाग्रता की जरूरत होती है वही इस बात की भी जरूरत होती है कि हम अपने लक्ष्य तक तब तक डटे रहें जब तक कि वह पूरा ना हो जाए अर्थात हम अपने लक्ष्य तक पहुंच जाएं । इस तरह यदि हम घर में कहीं पढ रहे हैं और इधर- उधर बारात आने और जाने का उत्सव अथवा कोई संगीत का कार्यक्रम की अनुगूंज हमारे कानों में सुनाई पड़ जाए तो हम अपना पढ़ना- लिखना छोड़ देते हैं और हमारा मन उस संगीत को सुनने के लिए, संगीत की धुन को सुनने के लिए मचल उठता है ।संत कबीर ने एक जगह लिखा है — मन ना रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा। दढ़िया बढ़ाए जोगी बन गइले बकरा।। आखिर क्या कारण रहा कि कबीर को कहना पड़ा कि मन को भक्ति के रंग में नहीं रंगाया गया, केवल पहनने वाले वस्त्र को ही गेरुआ रंग में रंगाया जा सका। तब ऐसी स्थिति में क्या सच्चा जोगी बना जा सकता है ? कबीर ने इस समस्या पर सवाल खड़े किए हैं ! उनका यह सोचना अकारण नहीं था क्योंकि उनके समय में भी लोग जो भक्ति और सत्संगति में लगे हुए थे वह बाहरी वेशभूषा और दिखावा में विश्वास रखते थे किंतु मन की शुद्धता और पवित्रता पर उनका ध्यान नहीं जाता था अथवा उनका ध्यान यदि जाता भी रहा होगा तो उनका मन बस में नहीं रहा होगा । सच तो यह है कि जो समस्या उनके समय में थी वह समस्या आज भी बनी हुई है और शायद लगातार बनी रहेगी क्योंकि इसका समाधान अब तक नहीं खोजा जा सका है । इसका समाधान केवल वही व्यक्ति कर सकता है जो यह समझ जाए कि मन को व्यर्थ बहकने नहीं देना चाहिए । लेकिन मन है कि वश में नहीं रहता और वह इधर-उधर भटकता फिरता है । इसकी चिंता कबीर और तुलसी के साथ-साथ अन्य भक्त कवियों को रही थी। आज अधिकांश परेशानियां और समस्याएं मन की चंचलता की वजह से है और इस संदर्भ में हम कुछ गंभीरता के साथ नहीं सोचना चाहते । यह जानते हुए भी कि अधिकांश रोगों का कारण मानसिक होता है। अर्थात यदि हमारा मन अस्वस्थ है, तनावग्रस्त है तो हम कई रूपों में बीमार पड़ जाते हैं और बीमार पड़ने की वजह से यह ओर हमारा काफी पैसा खर्च हो जाता है तो दूसरी ओर घर के लोगों को अलग परेशानियां होती हैं । हमारा घर हो या परिवार, हमारा कार्यालय हो या हमारा समाज –प्राय: हर जगह मन की वजह से ही परेशानियां उठानी पड़ती हैं और इसका पछतावा हमें होता रहता है लेकिन मन को लाख समझाने के बाद भी हम आगे से सावधान नहीं रह पाते हैं !विद्यार्थी हो या शिक्षक, राजा हो या भिखारी, स्वामी हो या सेवक, पति हो या पत्नी, नेता हो या पब्लिक –प्राय: सभी जगहों पर हमारे मन का शासन चलता रहता है। मन को एकादश इंद्रियों में से एक कहा गया है। इसलिए जब कभीजब मैं अकेला रहता हूं तो हमारा मन नहीं लगता । लेकिन कभी-कभी अकेलेपन की भी विशेष जरूरत होती है क्योंकि जब हमें पढ़ना होता है, लिखना होता है, एकांत के बृहत अकेलेपन में चिंतन और मनन करना रहता है तब हमें एकाग्रता के लिए एकांत की आवश्यकता होती है । हां, कभी-कभी अकेलापन हानिकारक भी होता है। जो विशेष रूप से मनोरोगी होते हैं, उन्हें लोगों के बीच रहने की जरूरत होती है, यदि वे लोगों के समूह में ना रहे तो अक्सर उनके मन में आत्महत्या का विचार भी उठता रहता है जो किसी भी परिवार अथवा समाज के लिए विशेष चिंता पैदा करने वाली बात है । इसलिए हमें अपने घर या परिवार या समाज में ऐसे व्यक्ति की तलाश अवश्य करनी चाहिए जो किसी न किसी रूप में अपने अकेलेपन से परेशान है और हताश- निराश रहता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज में सबके साथ रहना पसंद करता है । ऐसे विरले ही होते हैं जो अकेले रहें और संतुलित रहें। अपना मानसिक संतुलन ना खोएं । अकेलेपन में अक्सर मन की विकृतियां भी पैदा होती हैं जिनसे हरेक व्यक्ति को बचना चाहिए । ऐसी स्थिति में हमारा मानसिक, शारीरिक और नैतिक पतन होने में देर नहीं लगता । अत: आज के समय में अपने आप को बचाने की ज्यादा जरूरत है और ऐसे निर्माण कार्य में अपने को लगाने की जरूरत है जिसकी आज हमारे समाज और राष्ट्र को जरूरत है। हमें ऐसे कार्य करने की भी जरूरत है जिससे हमारा परिवार बेहतर बने। क्योंकि परिवार के समूह को ही समाज कहते हैं और यदि परिवार का एक व्यक्ति अच्छे और गुण स्वभाव का होता है तो वह पूरे परिवार को भी गुणवान और विद्वान बना देता है। आज हमारे आस पास अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो निर्धन और गरीब हैं, अशिक्षित और अंधविश्वासी हैं। समाज को ऐसे लोगों से बड़ा भारी खतरा हो सकता है क्योंकि हमारे समाज में यदि अच्छे लोगों की कमी होगी तो हमारा समाज कभी भी सुशिक्षित, सुसंस्कृत और कर्तव्यनिष्ठ नहीं रह सकता है। तो यदि हम सच्चे अर्थ में अपने आपको बेहतर बनाना चाहते हैं तो हमें कुछ करना ही होगा। इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने मन को समझाने की गरज से कहा था–
मन पछितैहें अवसर बीते…
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत…
कुल मिलाकर हम अकेलेपन के साथी अपने मन के बारे मेंविशेष कुछ नहीं कह सकते हैं क्योंकि मन हमेशा चंचल और हर किसी को चलायमान बनाए रखता है।
पंडित विनय कुमार