अन्ना का अनशन तो खत्म हो गया लेकिन उस जनलोकपाल बिल का क्या हुआ जिसे लेकर देश को टीम अन्ना ने अनशन की आग में झोंक दिया। क्या टीम अन्ना ने अपने रुख से समझौता नहीं किया। क्या जनलोकपाल के सवाल पर टीम अन्ना को मुंह की नहीं खानी पड़ी, इन तमाम सवालों की पड़ताल कर रहे हैं पत्रकार डॉ. राकेश उपाध्याय (सं.)
अन्ना हजारे का अनशन आखिर खत्म हो गया। लेकिन सवाल जस का तस है कि आखिर इस 13 दिन के तमाशे से हासिल क्या हुआ। कई लोग कहेंगे कि टीम अन्ना ने देश की संसद को झुका दिया, उनकी सुझायी तीन मांगें सर्वसम्मति से मान ली गईं । लेकिन अगर गहराई से देखेंगे तो संसद की सर्वोच्चता के सामने भी टीम अन्ना ने सर झुका दिए जिसे बार बार रामलीला मैदान के मंच से चुनौती दी जा रही थी। दरअसल पूरे खेल में टीम अन्ना के इस अहं और अज्ञान को भी सबसे बड़ा झटका लगा है कि जिस जनलोकपाल बिल का ड्राफ्ट उन्होंने तैयार किया, केवल और केवल उसे ही संसद को पारित करना होगा।
दाद तो संसद और प्रधानमंत्री को देनी होगी कि उन्होंने सदाशयता दिखाते हुए अन्ना के अनशन को तुड़वाने के लिए वह हरसंभव कोशिश की जिस पर टीम अन्ना राजी हो सकती थी । आखिरकार टीम अन्ना इस बात पर राजी हुई कि संसद अन्ना की तीनों मांगों पर संसद में सहमति का संकल्प पारित कर दे। जाहिर है कि संसद ने अन्ना की महानता और उनकी देश सेवा के तक़ाजे के मुताबिक संकल्प पारित करने में देर नहीं की। लेकिन सवाल है कि इसका हासिल क्या है। सही है कि जो लोकपाल कानून बीते 43 सालों से संसद में पारित होने की बाट जोह रहा था, अन्ना के आंदोलन ने उसके पारित होने का समय कुछ नज़दीक ला दिया और दूसरे कि उसके तमाम प्रावधान जो सरकार और उसकी भारी भरकम अफ़सरशाही को बचाने का उपक्रम रचने में जुटे थे, उस योजना में अन्ना के अनशन ने पलीता लगा दिया, लेकिन इससे बड़ा सवाल ये है कि टीम अन्ना के उस दावे का क्या हुआ कि जब तक जनलोकपाल पारित नहीं हो जाता तब तक वो रामलीला मैदान नहीं छोड़ेंगे। क्या जनलोकपाल कानून पारित हो गया?
संसद ने तीन मांगों पर संकल्प पारित कर उसे उसी स्टैंडिंग कमेटी के हवाले किया है जिसके सामने टीम अन्ना ने भी हाजिरी दर्ज कराई थी और बाद में स्थायी समिति की कार्रवाई की समय की बरबादी भी करार दिया था। जिस स्टैंडिंग कमेटी को जो केजरीवाल और प्रशांत भूषण बेकार की कवायद बताते नहीं थक रहे थे उन्हें भला ये बात कैसे पच गई कि संसद ने भी लोकपाल कानून में जरूरी संशोधन का मसला उसी कमेटी के हवाले कर दिया जिसे वो फूटी आंखों देखना पसंद नहीं कर रहे थे। संसद ने टीम अन्ना की मांगों से सहमति तो जतायी है लेकिन साथ में ये भी साफ कर दिया है कि इस पर संविधान के मुताबिक अंतिम फैसला स्टैंडिंग कमेटी लेगी। मतलब साफ है कि अगर कोई प्रावधान संविधान के दायरे से बाहर होंगे तो स्टैंडिंग कमेटी फैसला लेने को स्वतंत्र है।
सभी जानते हैं कि स्टैंडिंग कमेटी ने हाल ही में विज्ञापन देकर साफ किया था कि कोई भी नागरिक, संस्था उसके सामने लोकपाल बिल पर अपने सुझाव दे सकती है। जिसके तुरंत बाद राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य अरुणा रॉय ने लोकपाल पर अपना ड्राफ्ट भी झोले से बाहर निकाल लिया। सामाजिक कार्यकर्ता जय प्रकाश नारायण और जस्टिस पार्टी के उदित राज ने भी अलग से ड्राफ्ट देने की बात कही। टीम अन्ना ने इन्हें ये कहकर चुनौती देने की कोशिश की ये लोग पहले कहां थे। जाहिर है कि टीम अन्ना से ये नहीं सहा गया कि लोकपाल के सवाल पर उनके अलावा कोई और सरकार को सुझाव देने की कोशिश करे। लेकिन हकीकत जल्द ही टीम अन्ना को पता लग गई कि अपने जनलोकपाल को ही सबसे सही लोकपाल करार देने का उनका रवैया पूरी तरह से अलोकतांत्रिक है। संविधान तो देश के हर नागरिक को स्टैंडिंग कमेटी के जरिए संसद के सामने जाकर अपनी बात रखने का हक देता है। बावजूद इसके टीम अन्ना की ओर से बार-बार ये भ्रम फैलाया गया कि स्टैंडिंग कमेटी मामले को लटकाने की कोशिश है।
भीड़ को भरमाने के लिेए ये तर्क सही हो सकता है लेकिन असल में स्टैंडिंग कमेटी किसी भी बिल को पूरे तौर संशोधित कर सदन को वापस भेजने की ताकत रखती है यहां तक कि किसी सरकारी बिल को रद्द करने की ताकत भी उसे हासिल है। देश जानता है कि जब स्कूली शिक्षा में सेक्स एजुकेशन का सवाल साल 2007 में उठा और सरकार कानून के जरिए इसे अनिवार्य करने जा रही थी तब जैन मुनि आचार्य विजय रत्न सुंदर सूरीश्वर ने इसके खिलाफ आंदोलन शुरु किया। समूची दिल्ली को उन्होंने पैदल छान मारा। सैंकड़ों छोटी-बड़ी जनसभाएं की। आखिर में जब बिल स्टैंडिंग कमेटी के सामने आया तो जैन मुनि ने हज़ारों लोगों की राय और चिट्ठियां कमेटी को भेजने का आह्वान किया, खुद भी कमेटी के सामने उपस्थित होकर अकाट्य तर्कों से स्कूलों में यौन शिक्षा देने का विरोध किया। उनकी कोशिश रंग लाई और स्टैंडिंग कमेटी ने सरकारी बिल रद्द कर दिया। दूसरा उदाहरण, साल 2008 में चैरिटी संस्थाओं को मिलने वाले गुप्त दान पर टैक्स लगाने वाले कानून का है। इस कानून के खिलाफ तमाम धार्मिक संस्थाओं ने तर्क दिया का आस्थावान समाज अपनी आय की बचत से गुप्तदान करता है। उसके दान पर टैक्स लगाने का मतलब है कि दो बार टैक्स वसूला जाना। स्टैंडिंग कमेटी ने इस तर्क को जायज ठहराया और वित्त मंत्रालय की कोशिश पर पानी फेर दिया। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिसमें स्टैंडिंग कमेटी ने सरकार के विधेयक को या तो बदला या फिर रद्द कर दिया। लेकिन टीम अन्ना के जानकारों को स्टैंडिंग कमेटी की इस ताक़त का पता क्यों नहीं चल सका।
रही बात जनलोकपाल के प्रावधानों की तो पहले दिन से ये साफ था कि टीम अन्ना ने अहंकार के वशीभूत होकर जो ड्राफ्ट तैयार कि वो संसद से कभी भी पारित नहीं होगा और अगर किसी दबाव में संसद ने उसे मंजूर भी कर लिया तो सुप्रीम कोर्ट उसे एक झटके में ही दक्खिन लगा देता क्योंकि जनलोकपाल का मूल मसौदा संविधान के मूल ढांचे पर ही सबसे बड़ी चोट पहुंचा रहा था। मसलन, इस गलती को टीम अन्ना ने भी माना कि लोकपाल के दायरे में न्यायपालिका को रखना गैर संवैधानिक होगा। लिहाज़ा न्यायपालिका के लिए टीम अन्ना ने अलग निगरानी तंत्र विकसित करने पर सहमति जताई। पर सवाल तो सवाल है कि जनलोकपाल के दायरे में न्यायपालिका को क्यों रखा गया। क्या ये ड्राफ्ट बनाने वालों की किसी तुनकमिजाजी या सनक का परिचायक नहीं है?
दूसरी बड़ी गलती जो जनलोकपाल के ड्राफ्ट में हुई वह यह थी कि उसने आरोपी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने, जांच करने और उस पर मुकदमा चलाने का अधिकार तो ले ही रखा था, मुकदमे के पहले आरोपी अगर उसकी जांच में गलत पाया गया तो उसकी नौकरी खा जाने का अधिकार भी जनलोकपाल ने अपने हाथ में ले लिया था। इससे भी बड़ी आपत्तिजनक बात ये थी, जिस पर शायद लोगों का ध्यान कम ही गया कि जनलोकपाल को उन विशेष अदालतों के जजों की नियुक्ति में भी दखल दिया गया जो किसी व्यक्ति पर मुकदमें में अंतिम फैसला सुनाएंगे। यानी सीधे तौर पर फैसले को प्रभावित करने की ताकत टीम अन्ना ने जनलोकपाल को दे रखी थी।
दुनिया के किसी लोकतंत्र में इस प्रकार की असीमित ताक़त वाला कानून शायद ही कहीं हो जैसा कानून बनाने का सपना टीम अन्ना ने देखा। न्याय का प्राकृतिक सिद्धांत भी ऐसा करने की इज़ाजत नहीं देता जो जनलोकपाल में टीम अन्ना ने कर दिखाया। समझ नहीं आता कि ये किसके दिमाग की उपज थी। जिस प्रकार का ड्राफ्ट तैयार हुआ, निश्चित तौर पर वो अन्ना हज़ारे जैसे समाजसेवी के बस की बात नहीं थी जिनका चेहरा सामने रखकर टीम अन्ना ने इस तानाशाह कानून को पारित कराने के लिए देश को अनशन की आग में झोंक दिया। जाहिर तौर पर उंगली अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और उनके कानून विशारद पिता शांति भूषण पर उठती है जो इस ड्राफ्ट के निर्माता कहे जा सकते हैं।
जनलोकपाल के ऐसे तमाम प्रावधान हैं जो संविधान के ढांचे पर चोट करते हैं। राज्यों में केंद्रीय लोकपाल के अधीन लोकायुक्त की नियुक्ति भी ऐसा ही मसला है जिसके लिए संसद ने रास्ता निकालने की कोशिश की। ये तो हो सकता है कि केंद्र में लोकपाल कानून बने और उसकी तर्ज पर राज्यों में विधानसभाएं लोकायुक्त कानून पारित करें लेकिन संविधान के मुताबिक ये संभव नहीं कि राज्य के कर्मचारियों के खिलाफ केंद्र का लोकपाल कानून हंटर चलाए। सिटीजन चार्टर का भी सवाल ऐसा ही सवाल है कि आखिर लोकपाल क्या दिन-प्रतिदिन के प्रशासनिक कामों की भी निगरानी करेगा तो फिर भ्रष्टाचार के मामलों पर वो कब वक्त दे सकेगा।
जनलोकपाल के ये प्रावधान न सिर्फ अपनी अपरिपक्वता दर्शाते हैं बल्कि इन्हें बनाने वालों की दिमागी फितूर की भी ये निशानी हैं। इसके उलट लोकपाल का जो ड्राफ्ट अरुणा रॉय ने तैयार किया वो कहीं ज्यादा दुरुस्त और संतुलित है। एक ओर तो टीम अन्ना सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात करती है दूसरी ओर जनलोकपाल को वह संविधान के दायरे से बाहर जाकर अधिकार देती है, ये कहां तक जायज है।
देर आए, दुरुस्त आए। जनलोकपाल की इन तमाम खामियों का अहसास टीम अन्ना को वक्त के साथ हो गया और ये भी कि लोकपाल कानून में जरुरी बदलाव भी स्टैंडिंग कमेटी करेगी जिसके सामने सिर्फ जनलोकपाल नही होगा बल्कि ऐसे तमाम ड्राफ्ट होंगे जो जनता के तमाम प्रतिनिधि उनके सामने पेश करेंगे। सवाल फिर वही है कि आखिर टीम अन्ना को हासिल क्या हुआ जब अंतिम फैसला स्टैंडिंग कमेटी को ही करना था। स्टैंडिंग कमेटी तो उनकी बातों पर पहले ही विचार करने के लिए तैयार थी।
जनलोकपाल की भावना का सम्मान है किंतु जो प्रावधान हैं, उनमें टीम अन्ना को फेरबदल करना होगा। अगर सब सही था तो न्यायपालिका को जनलोकपाल के दायरे से अब बाहर क्यों कर दिया गया। यानी कि मनमाने प्रावधान थे। जैसे जुडिशियल एकाउंटिबिलिटी बिल के जरिए न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को काबू में लाने का उपाय अब टीम अन्ना को सूझ रहा है वैसा ही उपाय संसद के लिए भी सोचना होगा।
मेरा सवाल सिर्फ उन प्रावधानों पर है जो संविधान से मेल नहीं खाते। बगैर संविधान संशोधन किए वो पारित भी नहीं होंगे, जैसे लोकपाल के अन्तर्गत लोकायुक्तों की नियुक्ति। राज्य तब क्या करेगा। विधानसभाओं का काम अगर संसद करेगी तो क्या मुश्किल नहीं खड़ी होगी।
मेरे विचार से टीम अन्ना को कानून की बारीकियों के हिसाब से रास्ता निकालते हुए सख्त से सख्त कानून बनवाने की कोशिश में लगना चाहिए। अपने ड्राफ्ट को अंतिम मान लिया है उन्होंने, ये बड़ी दिक्कत है उनके सामने।
जब आप यह कहते हैं की
“एक ओर तो टीम अन्ना सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात करती है दूसरी ओर जनलोकपाल को वह संविधान के दायरे से बाहर जाकर अधिकार देती है, ये कहां तक जायज है।’
तो पता नहीं मुझे क्यों ऐसा लगता है की आपने जन लोकपाल का प्रारूप या तो पढ़ा नही या पढ़ा भी तो समझा नहीं,क्योंकि इसमें संविधान के मूल भावना से अलग जाने जैसी कोई बात मुझे तो नही दिखती..ऐसे मैंने अरुणा रॉय का लोकपाल बिल का प्रारूप नहीं देखा,अत: उसपर तो मैं टिप्पणी नहीं कर सकता,पर जहां तक मेरा ज्ञान है,जन लोकपाल बिल केन्द्रीकरण पर जोर नहीं देता .लोकपाल और लोकायुक्त स्वतंत्र ईकाई के रूप में कार्य करते हैं.दूसरी बात जिसको आप सब लोग टाल जाते हैं ,वह यह है की लोकपाल का पूरा विभाग केवल एक पहरेदार(वाच डाग) है.इसे न तो सत्ता के दिनानुदिन कार्य क्रम से कोई मतलब है न यह नीति निर्धारण में दखल दे सकता है.वह तो तब सक्रिय होता है,जब आप अपने कर्तव्य पथ से हटते हैं.अगर आप क़ानून के दायरे में रह कर ईमानदारी पूर्वक काम करते हैं तो आप को लोक पाल या जन लोकपाल से क्या डरना?हम लोग इस कदर बेईमान या भ्रष्ट हो गए है की अगर हमारे बेईमानी या भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात आती है तो ऐसा हाय तौबा मचाते हैं की लगता है की ऐसी संस्थाएं हमारे संविधान प्रदत (?) मौलिक अधिकारों पर आघात कर रही है.कुछ लोग यह कहने से भी बाज नहीं आते की अगर लोकपाल भी भ्रष्ट हो जाए तो ? पहली बात तो यह है की अगर आप ईमानदार हैं तो लोकपाल के भ्रष्ट और ईमानदार होने से आपको कोई लेना देना नहीऔर अगर आप भ्रष्ट हैं तो मनाईये की लोकपाल भी भ्रष्ट हो जाए,पर आपने शायद पढ़ा नहीं की जन लोकपाल को जनता की शिकायत पर हटाया जा सकता है.मुझे नहीं मालूम की ऐसा कोई प्रावधान किसी अन्य प्रारूप में भी है.
आपके मुताबिक़ क्या करना चाहिए था?