प्रेम क्या है तथा जीवों में प्रेम की उत्पत्ति किस तरह होती है?

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-मनमोहन कुमार आर्य-
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दिल्ली के एक पाठक ने हमें लिखा कि ‘हमें आपका लेख ‘विवाह और इसकी कुछ विकृतियां’ हमें बहुत अच्छा लगा। हम अपने आर्य समाज मन्दिर में विवाह सम्पन्न कराते हैं और हमारी अपनी मन्दिर की वेबसाइट है। हमें इस तरह के लेख बहुत पसन्द आते हैं क्योंकि हमें विवाह से सम्बन्धत ही अपनी वेबसाइट पर सामग्री डालनी होती है। मैं आपकी तरफ से एक लेख चाहता हूं कि प्रेम क्या है यह जीवों में कैसे उत्पन्न हो जाता है? अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि जब भी आपको कभी समय मिले तो इस लेख पर भी ध्यान देना। आपकी अति कृपा होगी। इस लेख के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद। -आर्य समाज मंदिर, दिल्ली।’ आईये लेख के उत्तर पर विचार करते हैं। प्रेम शब्द अनुकूलता का बोधक है। जो-जो चीजें हमें अनुकूल होती हैं उनके प्रति हमारा राग हो जाता है। जो प्रतिकूल होती हैं, उनके प्रति द्वेश होता है अर्थात् वह हमें अच्छी नहीं लगती। द्वेश तभी होगा जब हम किसी वस्तु का प्रयोग या उपभोग करते हैं और ऐसा करके उसके परिणाम हमारे सामने आते हैं। यदि वह वस्तुएं अनुकूल होती हैं, अर्थात हमारे स्वभाव के अनुसार हमें प्रिय लगती है तो हमें उनसे प्रेम या राग हो जाता है। यदि वह हमें प्रिय नहीं होती हैं तो हम उसकी उपेक्षा करते हैं और उससे हमें हानि होती है। यदि वह स्वभाव के अत्यन्त विरूद्ध हों तो हमें उससे द्वेश होता है। अतः प्रेम अनुकूल, आवश्यक व हमें बहुत अच्छी लगने वाली वस्तुओं के प्रति उत्पन्न होने वाला एक भाव है जो हमें आकर्षित करता है, उसकी अनुभूति हमें सुख पहुंचाती है और उसका वियोग हमें दुःख व द्वेश उत्पन्न करता है।

प्रेम को उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। एक युवा और एक युवती परस्पर सम्पर्क में आते हैं। वह आपस में मिलते रहते हैं। उनमें किसी कार्य को लेकर व्यवहार होता है। मिलने पर यदि दोनों एक दूसरे को प्रिय लगते हैं तो उनमें एक आकर्षण होता है। वह कार्य को करने से पूर्व भी एक दूसरे के विषय में चिन्तन करते हैं। यदि दोनों के गुण, कर्म व स्वभाव एक जैसे होते हैं तो उनमें उस सम्बन्ध, मित्रता या सखा भाव को बढ़ाने की स्वतः इच्छा, प्रेरणा, भावना, प्रयत्न उत्पन्न होता व बढ़ता रहता है। ऐसी स्थिति आ जाती है कि यदि दोनों परस्पर न मिले तो दोनों ही बेचैनी का अनुभव करते हैं। यह दोनों में प्रेम होने का उदाहरण है। प्रेम व राग षब्द परस्पर पूरक हैं। राग होना लाभदायक भी होता है और हानिकारक भी हो सकता है। यदि राग अन्धा नहीं है अपितु विवेक पूर्ण है तो लाभ होता है और यदि राग अविवेकपूर्ण हो तो हानि हो सकती है। जिस वस्तु या व्यक्ति, स्त्री या पुरूष से हमें प्रेम या राग हो जाये तो हमें आत्म चिन्तन कर उसके वर्तमान व भावी परिणामों पर विचार करना चाहिये। प्रेम तो करना चाहिये परन्तु किस सीमा तक आगे बढ़ना है उस मर्यादा को विवेक की सहायता से जानकर उसका पालन करना चाहिये। मित्रता भी एक प्रकार से दो व्यक्तियों में प्रेम ही होता है। दो प्रेम करने वाले सदा एक दूसरे के मित्र होते हैं और जिनमें प्रेम नहीं होता वहां एक दूसरे के प्रति अज्ञान, दूरी, परस्पर सम्बन्ध का न होना आदि अनेक कारण हो सकते हैं। सच्चा प्रेम एक दिव्य भावना है। प्रेम में यदि वासना मिली हो तो वह निम्न स्तर का प्रेम कहा जायेगा। दो मित्रों व स्त्री-पुरूषों, वर-कन्या, माता-पिता व परिवार के सभी सदस्यों में, शिष्य का अपने गुरू या आचार्य के प्रति तथा देषभक्त का अपने देष के प्रति वासना रहित प्रेम होता है। सभी एक दूसरे के सुख में सुखी व दुःख में दुःखी होते हैं। सबमें परस्पर त्याग की भावना होती है। माता-पिता सन्तान का पालन करते हुए सुख का अनुभव करते हैं। पुत्र माता-पिता व आचार्य की सेवा करने में सुख का अनुभव करता है। यह अपेक्षाओं व स्वार्थों से रहित प्रेम का उदाहरण है।

मनुष्य को सच्चा प्रेम ईष्वर से करना चाहिये। ईश्वर से प्रेम व प्रीति करने से ईष्वर की सहायता प्राप्त होती है। मनुष्य के सभी बिगड़े काम सुधरते हैं व उसे जीवन व अन्य सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। ईश्वर से प्रेम करने के लिए ईष्वर के सच्चे स्वरूप को जानना चाहिये। यदि ईश्वर के सच्चा स्वरूप का ज्ञान न हो तो फिर व्यक्ति अन्ध-विश्वास व कुरीतियों का दास बन कर अपनी हानि करता है। ईश्वर का स्वरूप कैसा है इसका दिग्दर्शन महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज के दूसरे नियम में कराया है। वह लिखते हैं कि ‘ईस्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ जिस प्रकार युवक व युवती रूप आदि सौन्दर्य को देखकर मोहित व प्रेम पास में बन्धते हैं उसी प्रकार ईश्वर भक्त भी ईश्वर के स्वरूप, गुणों, जीवों के हित के कार्यों को जानकर, जन्म-जन्म व दुःखों का साथी होने के कारण उससे प्रेम करते हैं और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष रूपी अपने सभी मनोरथ सिद्ध करते हैं। कहा जाता है और यह सत्य भी है ईश्वर से प्रेम करने से मनुष्य व जीवात्मा को सबसे अधिक लाभ व कल्याण होता है। इसका कारण यह है कि कर्मों के बन्धनों के कारण जन्म व मृत्यु व अन्य सभी सुख-दुःख आदि होते हैं। ईश्वर से प्रेम करने व स्वाध्याय आदि करने से ईश्वर का यथार्थ ज्ञान होता है और इस प्रेम से उपासना सिद्ध होती है। उपासना से जीवन का उद्देश्य पूरा हो जाता है। कर्मों के बन्धन ज्ञान, आसक्ति रहित कर्मों को करने से क्षय को प्राप्त होकर समाप्त या न्यून हो जाते हैं और उपासना से ईश्वर साक्षात्कार होकर जीवन-मरण के बन्धन व दुःखों से छूट कर मुक्ति वा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अतः मनुष्य को ईश्वर से ही प्रेम करना चाहिये। विवेक से यही प्रेम सबसे मुख्य, जीवन के लिए लाभकारी व प्रयोजन को सिद्ध करने वाला है। अतः स्त्री व पुरूषों के बीच प्रेम की तरह ही ईष्वर भक्ति भी एक प्रकार का उपासक का ईश्वर से प्रेम ही है जिसके सफल होने पर जीवन सफल और न होने पर जीवन असफल होता है।

आइये इस पर भी विचार करते हैं कि जीवों में प्रेम की उत्पत्ति कैसे होती है। विचार करने पर यह लगता है प्रेम जीवों को ईश्वर की देन हैं। जिस प्रकार ईश्वर ने हमारे लिए संसार बनाया, संसार को चला रहा है या पालन कर रहा है, उसी ने हमें माता-पिता व सामाजिक बन्धुओं का सुख दिया है। वेदों का ज्ञान, हमें हमारा मानव शरीर तथा इसके सभी अंग प्रत्यंग व प्रयोग, उपयोग व उपभोग की वस्तुयें प्रदान की हैं, उसी प्रकार से हृदय में दूसरों से प्रेम की सच्ची भावना को भी ईष्वर ने ही उत्पन्न किया है। संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ है ही नहीं। प्रकृति जड़ होने के कारण निर्जीव व अचेतन है तथा इसके द्वारा प्रेम उत्पन्न नहीं किया जा सकता। जीव एक चेतन सत्ता है जो कि अल्पज्ञ, ससीम, एकदेशी, अजन्मा व अमर है। जीव में जो स्वभाविक गुण हैं वह सभी ईष्वर प्रदत्त हैं। मनुष्य में जो स्वाभाविक ज्ञान से अतिरिक्त ज्ञान है वह सभी नैमित्तिक ज्ञान है। स्वाभाविक ज्ञान व गुणों से अतिरिक्त अन्य गुण नैमित्तिक गुण हैं जो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों व पदार्थों के सम्पर्क में आने व चिन्तन-मनन व अनुभव से प्राप्त होते हैं। इसके लिए इन्हें स्वाभाविक न कह कर नैमित्तिक कहा जाता है। अतः इस संक्षिप्त विचार-चिन्तन से प्रेम का आधार व प्रेम की भावना को देने वाला व इसका उत्पत्तिकर्ता ईश्वर सिद्ध होता है। हम समझते हैं कि यदि इस विचार को स्वीकार करते हैं तो इससे कोई सिद्धान्त हानि भी नहीं है। हम आषा करते हैं कि प्रश्नकर्ता हमारे विचार से सहमत होगें।

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