क्या है यूक्रेन और रूस का मामला ??

दिन प्रतिदिन रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध अवश्यम्भावी होता जा रहा है। यूक्रेन के नक्शे को देखे तो उसके पूर्व में रूस, उत्तर में बेलारूस(जहाँ रूस समर्थित सरकार है), उत्तर में काला सागर तथा पश्चिम में पोलेंड पड़ता है। इस समय रूस ने यूक्रेन को तीन और से घेर रखा है। रूस यूक्रेन सीमा पर एक लाख सैनिकों, भारी टेंको, तोपों, बख्तर बंद गाड़ियों का जमावड़ा है। मिसाइल लॉन्चर बैटरियाँ, S-400 सिस्टम और रडार सिस्टम एक्टिव मोड़ में है। मेडिकल कोर और घायल सैनिको के लिए रक्त भंडार की तैयारी तो पिछले महीने शुरू कर दी थी जो किसी सेना द्वारा युद्ध शुरू करने से पहले की अंतिम तैयारी मानी जाती है। बेलारूस से मिलती यूक्रेन की सीमा पर भी रूस की सीमा पर भारी हथियारों के साथ तीस हजार सैनिक तैनात है जो बेलारूस की सेना के साथ युद्धाभ्यासरत है। पुतिन ने कुछ दिन पहले काला सागर में स्थित अपने ‘ब्लेक सी फ्लीट’ की सहायता के लिए ‘बाल्टिक फ्लीट’ से कुछ युद्धपोतों को भी बुलाया है।
यूक्रेन सीमा पर शून्य से नीचे तापमान पर लाख से अधिक रूसी सैनिकों के जमावड़ा, भारी सैन्य उपकरणों को देख पश्चिमी देश सकते में है। यह कोरी धमकी नहीं हो सकती। कल अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, स्पेन जैसे बारह देशों ने अपने को नागरिकों को यूक्रेन छोड़ने की एडवाइजरी जारी कर दी थी। इस विषय पर पुतिन के साथ कुछ दिन पहले हुई फ़्रांस के प्रेजिडेंट इमेनुएल मेकरों, जर्मन चांसलर ओलाफ शुल्ज तथा कल प्रेजिडेंट जो बाइडेन की वार्ताएँ विफल हो चुकी है। प्रेजिडेंट पुतिन की एक ही माँग है कि उन्हें लिखित में आश्वासन चाहिए कि यूक्रेन कभी नाटो संघटन में सम्मलित नहीं होगा। रूस नाटो सेनाओं को अपने दरवाजे पर नहीं देखना चाहता। अमेरिका और उसके साथी देश रूस को यह आश्वासन नहीं दे पा रहे है। अपनी मूर्खता से इन्होंने यूक्रेन को भयानक संकट में फंसा दिया है।
रूस और यूक्रेन के बीच संभावित युद्ध के मूल कारणों में जाएँगे तो इसके पीछे अमेरिका और ब्रिटेन ही मिलेंगे। यें देश, हर देश में अपने प्रभाव वाली सरकार चाहते है, यदि ऐसा नहीं हो तो उस देश को बर्बाद कर देते है। अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया, ईरान, वेनेजुएला के उदाहरण सबके सामने है। वैसे तो हर देश दूसरे देश में अपने प्रभाववाली सरकार चाहता है, पर यें देश इस निती में अधिक सफल हुए है। इनकी सफलता का राज इनके पास नाटो देशों का शक्तिशाली संगठन है जिसमें यूरोप के फ़्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन जैसे शक्तिशाली देश है। आर्टिकल-5 के अंतर्गत यदि कोई देश नाटो संघटन के किसी देश पर आक्रमण करेगा तो सब पर आक्रमण माना जाएगा। ऐसा कई बार होता है किसी मसले पर सारे नाटो देश सहमत नहीं होते पर संधिबद्ध होने के कारण उन्हें विवशता में अमेरिका और ब्रिटेन का साथ देना पड़ता है।
सोवियत संघ का विघटन इस गुट की सबसे बड़ी सफलता थी। सोवियत संघ टूटने के बाद पंद्रह देश बने थे जिनमे सबसे बड़ा देश रूस था। यद्यपि इन्होंने रूस को गहरा घाव दिया था, पर ये रूसियों की जीवटता से भली-भांति परिचित थे। ये देश जानते थे कि रूस कुछ दशकों में फिर शक्ति बनके उभरेगा, अतः इन्होंने विघटन के बाद ही रूस ने पुनरुत्थान को रोकने की तैयारी भी शरू कर दी थी। सोवियत संघ से अलग हुए कई देश रूस से अलग होंने के बाद भी रूस के प्रभाव में रहे जिनमें अर्मीनिया, बेलारूस, कजाकिस्तान, किर्गिजस्तान, ताजिकस्तान को रूस अपने नाटो जैसे संगठन सी. एस. टी. ओ. के आर्टिकल-4 के अंतर्गत संरक्षण देता है। रूस का प्रभाव वापस ने आ जाए इसके लिए अमेरिका और ब्रिटेन ने रूस से असंतुष्ट देशों को अपने पक्ष में करना शुरू कर दिया था। सन 2003 में उन्हें इसमें पहली सफलता मिली और तीन देशों एस्टोनिया, लाटविया, लिथुनिया को नाटो गुट में शामिल कर लिया।
मगर ये छोटे देश थे। रूस के विघटित देशो में सबसे शक्तिशाली देश यूक्रेन था जिसकी जनसंख्या रूस के बाद सबसे अधिक चार करोड़ से अधिक थी। अमेरिका और ब्रिटेन ने यूक्रेन पर डोरे डालने शुरू किए। सन 2013 तक यूक्रेन, रूस के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे और वहाँ रूस समर्थित विक्टर यानुकोविच की सरकार थी। यूक्रेन को अपने जाल में फाँसने के लिए अमेरिका और ब्रिटेन ने यूक्रेन के सामने यूरोपियन यूनियन का सदस्य बनने का प्रस्ताव रखा। शुरुआत लुभावने तरीके से ही की जा सकती थी। इस प्रस्ताव को देख यानुकोविच के कान खड़े हो गए और उन्होंने इसे सिरे से नकार दिया।
यूक्रेन की डेमोग्रेफी में अट्ठत्तर प्रतिशत यूक्रेनी, अट्ठारह प्रतिशत रूसी और बाकी अन्य जातियाँ है। यूक्रेनियों ने यानुकोविच द्वारा यूरोपियन यूनियन ज्वाइन न करने को सरकार में रूस का हस्तक्षेप माना। कुछ ही दिनों में यह मामला इतना बढ़ा कि फरवरी 2014 में विक्टर यानुकोविच के विरुद्ध देशभर में प्रदर्शन शरू हो गए। दरअसल अमेरिका और ब्रिटेन ने यूक्रेन के राष्ट्रवादियों को भड़का दिया था। सप्ताह के भीतर ही यें प्रदर्शन रूसी मूल के लोगो और यूक्रेनियों के बीच खूनी संघर्ष में बदल गए। विक्टर यानुकोविच को भागकर रूस में शरण लेनी पड़ी। यूक्रेन, रूस की सीमा वाला क्षेत्र डोनबास कहलाता है जिसके दो जिले डोनटस्क और लोहनास्क में रूसी मूल के लोगो का बाहुल्य है। वहाँ भीषण खूनी संघर्ष शुरू हो गया। वहाँ के लोगो ने यूक्रेन से अलग होने के लिए हथियार उठा लिए जिन्हें रूस ने पूरा सहयोग किया।
2014 में रूस के प्रेजिडेंट भोलेभाले गोर्बाचोव या आरामतलब बोरिस येल्तसिन नहीं अपितु व्लादिमीर पुतिन थे जिन्होंने लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर रूसी गुप्तचर एजेंसी के जी बी को सोलह साल सेवाएँ दी थी। पुतिन पश्चिमी देशों की रग-रग से परिचित थे और अच्छी तरह समझ रहे थे कि अमेरिका और ब्रिटेन यूक्रेन में कौनसा खेल खेलना चाह रहे है। पुतिन ने यूक्रेन के खूनी संघर्ष के दौरान क्रीमिया को कब्जा लिया। क्रीमिया पर रूस का कब्जा होने के कुछ दिन बाद ही यूक्रेन में संघर्ष बंद हो गया। इस विवाद में अमेरिका व ब्रिटेन को केवल एक लाभ मिला कि यूक्रेन में उनकी पसंद के पेत्रो पोरोशेंको की सरकार बन गयी। पर यूक्रेन को बहुत हानि उठानी पड़ी। क्रीमिया प्रायद्वीप उसके हाथ से निकल गया, उसके 13000 नागरिक, 4100 यूक्रेनी सैनिक और 5650 सेप्रेटिस्ट(जो यूक्रेनी ही थे ) खोने पड़े। डोनबास का क्षेत्र को रूस में जाने से बाल -बाल बचा, सर्वोपरि यूक्रेनियों और रूसियों के बीच घृणा चरम पर पहुँच गयी।
रूस द्वारा क्रीमिया कब्जाते ही मामला ठंडा क्यों पड़ गया? अब इस समस्या की जड़ में चलते है। रूस की नौ सेना बहुत शक्तिशाली है। इसमें चार फ्लीट(समुद्री बेड़े) है। पहला ‘पेसिफिक फ्लीट’ रूस के धुर पूर्व जापानी सागर में स्थित ब्लादिवोस्टक में तैनात रहता है। दूसरा ‘नार्दन फ्लीट’ आर्कटिक सागर के कोला प्रायद्वीप में रहता है। तीसरा ‘बाल्टिक फ्लीट’ बाल्टिक सागर के केलेनिन ग्राड तथा चौथा ‘ब्लेक सी फ्लीट’ कालासागर में क्रीमिया प्रायद्वीप के स्वासतोपोल पोर्ट पर तैनात रहता है। एक फ़्लोटिला(छोटा बेड़ा) केस्पियन सागर में भी रहता है। रूस की सबसे बड़ी सैन्यशक्ति 58 पनडुब्बियाँ है जिनमें 11 अत्याधुनिक परमाणु चालित है।
एक करोड़ इकहत्तर लाख वर्ग किलोमीटर का विशाल क्षेत्रफ़ल होने के कारण रुस के सारे फ्लीट एक दूसरे से बहुत दूर होते है। यदि रूस के लिए यूरोप में कोई समस्या खड़ी हो जाए और सहायता के लिए ब्लादिवोस्टक से युद्धपोतों को बुलाना पड़े तो उन्हें लगभग ग्यारह हजार समुद्री मील की दूरी तय करके आना होगा, जिन्हें आने में ही पंद्रह दिन लग जाएँगे। तब तक तो युद्ध का पासा ही पलट जाएगा। इसके अलावा रूस के जहाजी बेड़ो को कठोर मौसम का सामना करना पड़ता है। मसलन नॉर्दन फ्लीट जो आर्कटिक सर्कल के बेरेन्ट्स सागर में तैनात है, उस सागर का पानी छः महीने से अधिक जमा रहता है। कठोर सर्दियों में बाल्टिक सागर भी कुछ समय के लिए जम जाता है। रूस के पास कालासागर ही इकलौता गर्म पानी का रास्ता है जो उसे (टर्की के मरमरा सागर और ग्रीस के एग्नेस सागर होते हुए)भूमध्य सागर और अटलांटिक सागर से जोड़ता है। इसी मार्ग से रूस व्यापार भी करता है।
यह जलमार्ग रूस की श्वास नली की तरह है। सारा मामला इसे बंद करने को लेकर था यही था। पुतिन जानते थे कि अमेरिका व ब्रिटेन, यूक्रेन को यूरोपियन यूनियन का सदस्य बनाने का चारा क्यों डाल रहे थे।क्योंकि अगले पड़ाव में यूक्रेन को नाटो संगठन में शामिल करना था। यदि यूक्रेन नाटो संघटन में शामिल हो जाता तो अगले सप्ताह ही अमेरिका और ब्रिटेन के युद्धपोत कालासागर में गस्त करने लग जाते और देर-सवेर कोई बहाना बनाकर रूस के इकलौते गरम पानी वाले जलमार्ग को अवरुद्ध कर देंगे। पिछले साल फ्रीडमनेविगेशन के बहाने ब्रिटेन का HMS Defender नाम का युद्धपोत काला सागर में रूसी सीमा में तीन किलोमीटर अंदर आ गया था जिसे रूस के सुखोई विमान ने वार्निग देकर वहाँ से भगा दिया था।
क्रीमिया के कब्जे को सात साल हो गए है। बीच-बीच यूक्रेन के नाटो में सम्मलित होने की मंशा के समाचार आते रहे, मगर कोई बड़ी घटना नहीं हुई थी। यह समस्या एक बार फिर उठी है। अमेरिका और पश्चिमी देश यूक्रेन पर नाटो में सम्मलित होने का दबाव बना रहे है। यूक्रेन भी नाटो में जाकर अभय होना चाहता है, उसे पता है यदि ऐसा हो जाए तो वह क्रीमिया को पुनःप्राप्त कर सकता है। मगर इस बार पुतिन साहब बहुत दूर की सोच रहे है। यदि इस समस्या का जल्दी कोई कूटनीतिक हल नहीं निकला तो लगता है पुतिन साहब पूरा यूक्रेन कब्जाकर इस समस्या को सदा के लिए समाप्त कर देंगे। इस समय तो यही दिखाई दे रहा है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here