पीयूष द्विवेदी
विश्व के तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक यानी ऑर्गेनाइजेशन ऑफ द पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज में एक बार फिर टूट की खबर आ रही है। नवंबर 2016 में इंडोनेशिया द्वारा इसकी सदस्यता छोड़े जाने के बाद हाल ही में कतर ने भी इससे अलग होने का ऐलान किया है। पिछले दिनों दोहा में कतर के ऊर्जा मंत्री साद अल-काबी ने कहा, ‘कतर ने यह तय किया है कि जनवरी 2019 से वह ओपेक का हिस्सा नहीं रहेगा। इस फैसले के बारे में ओपेक को अवगत करा दिया गया है।’ अब दुनिया भर में इस बात को लेकर व्यापक चर्चा हो रही है कि कतर के इस निर्णय का अंतरराष्ट्रीय तेल व गैस के बाजार पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ेगा।
क्या है यह संगठन ओपेक
ईरान, इराक, कुवैत, सऊदी अरब और वेनेजळ्एला- इन पांच देशों ने मिलकर वर्ष 1960 में ओपेक की स्थापना की थी। फिर वर्ष 1961 से लेकर वर्ष 2018 के बीच कतर, इंडोनेशिया, लीबिया, यूएई, अल्जीरिया, नाईजीरिया, इक्वाडोर, अंगोला, इक्वेटोरियल गिनी, गबोन और कांगो जैसे देश इस संगठन में शामिल होते गए। हालांकि वर्ष 2016 में इंडोनेशिया ने अपनी सदस्यता इसलिए वापस ले ली, क्योंकि उसकी स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि उसे खुद तेल आयात करना पड़ रहा था। इससे पूर्व इक्वाडोर गिनी 1992 में ओपेक से अलग हुआ था। आर्थिक और राजनीतिक संकट के कारण उसकी सदस्यता वर्ष 2007 तक निलंबित रही। इसी तरह गबोन भी 1995 में ओपेक से अलग हुआ था, लेकिन 2016 में उसने फिर संगठन में वापसी कर ली। ओपेक की वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक वर्तमान समय में इसके सदस्यों की संख्या कतर सहित 15 है।
स्थापना का मकसद
ओपेक की स्थापना का उद्देश्य इसके सदस्य देशों के बीच पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यात से संबंधित नीतियों को लेकर समन्वय स्थापित करना और उपभोक्ता देशों को नियमित रूप से निर्यात सुनिश्चित करना था। ओपेक द्वारा सदस्यों की आम सहमति से तेल निर्यात के लिए मूल्य तय किया जाता है जिससे न केवल सदस्य देशों को बिना किसी हितों के टकराव के समुचित लाभ भी हो जाता है, बल्कि उपभोक्ता देशों पर अधिक भार भी नहीं पड़ता। इसके अलावा तेल उत्पादन की मात्रा का निर्धारण भी ओपेक द्वारा किया जाता है।
क्यों अलग हो रहा कतर
भारत के लिए संभावनाएं
भारत अभी प्राकृतिक गैस के मामले में बहुत हद तक कतर पर निर्भर है, लेकिन कच्चे तेल के लिए उसकी निर्भरता प्रमुख रूप से इराक, सऊदी अरब और ईरान पर टिकी हुई है। इसी वर्ष जून में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक ईरान से भारत के तेल आयात में गत वर्ष के मुकाबले 52 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। ईरान की तुलना में इराक और सऊदी अरब से आयात में कम वृद्धि हुई है। हालांकि कच्चे तेल के लिए भारत के प्रमुख निर्यातक देश सऊदी अरब और इराक ही हैं, लेकिन इन ताजा आंकड़ों से यह संकेत मिलता है कि भारत कच्चे तेल का अपना आयात ईरान की तरफ मोड़ने की कोशिश में लगा है, लेकिन इसमें पेंच अमेरिका की तरफ से फंस सकता है। अमेरिका ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर रोक लगाने के लिए उसके तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगाया गया है जो कि बीते चार नवंबर से लागू हो चुका है।वैसे अमेरिका के इस प्रतिबंध के आगे भारत और चीन जैसे कुछ देशों ने झुकने से इन्कार कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उसे इन देशों को ईरान से आयात की मंजूरी देनी पड़ी। लेकिन अमेरिका इस मंजूरी को बहुत अधिक समय तक जारी रखेगा और ईरान से आयात में कोई बाधा नहीं खड़ी करेगा, फिलहाल ऐसा कहना कठिन है। ऐसे में भारत के पास अब कच्चे तेल के लिए कतर भी एक स्वतंत्र विकल्प के रूप में मौजूद रहेगा।
भारत के लिए सहयोगी कतर
देखा जाए तो अभी तक कतर भारत के लिए ओपेक के एक सहयोगी देश की तरह ही रहा है। अत: कतर के ओपेक से अलग होने का एक बड़ा फायदा यह भी होगा कि यदि भविष्य में ओपेक तेल उत्पादन में कटौती का फैसला लेता है, तो भारत कतर से तेल खरीद का फैसला ले सकता है। स्वतंत्र खरीद की स्थिति में ओपेक देशों की अपेक्षा कतर से भारत को कम मूल्य पर तेल मिलने की भी संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।वैसे इस मामले में एक पहलू यह भी है कि चूंकि भारत के संबंध कतर और सऊदी अरब दोनों से ही अच्छे हैं, ऐसे में तेल तो नहीं, लेकिन किसी भी विवाद की स्थिति में प्राकृतिक गैस पर तलवार लटक सकती है। आज इन दोनों देशों के बीच तनाव साफ झलक रहा है। ऐसे में भारत के सामने यह चुनौती होगी कि इन दोनों ही देशों या फिर ओपेक समूह और कतर दोनों ही से अपने संबंध संतुलित ढंग से रखे जिससे तेल और गैस के आयात में उसे आर्थिक नुकसान न उठाना पड़े।कुल मिलाकर फिलहाल यह कहा ही जा सकता है कि ओपेक से कतर का अलग होना दुनिया के तेल बाजार में निकट भविष्य में कोई खास असर नहीं डालेगा। रही प्राकृतिक गैस की बात तो इस मामले में कतर पहले से सबसे बड़ा खिलाड़ी है, अब वह अपनी स्थिति को और मजबूत करेगा। उम्मीद है कि किसी तरह की आशंका के विपरीत गैस के बाजार में सकारात्मक बदलाव ही होंगे।
एशिया पर क्या हो सकता है असर
कतर के निर्यात का तकरीबन 80 प्रतिशत हिस्सा एशिया में आता है। अपने कुल गैस उत्पादन का करीब 15 प्रतिशत हिस्सा कतर भारत को निर्यात करता है। भारत की लगभग 65 प्रतिशत गैस जरूरतें कतर से ही पूरी होती हैं। यानी अगर ओपेक और कतर के बीच में कोई विवाद की स्थिति हुई और भारत को दोनों में से किसी एक को चुनना पड़ा तो इससे मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। भारत के अलावा बांग्लादेश पर भी इसका प्रभाव पड़ने की संभावना है। चूंकि अभी गत वर्ष जून में बांग्लादेश ने कतर की एक प्रमुख गैस कंपनी ‘रासगैस’ से करार किया है। इस करार के तहत बांग्लादेश को कतर से 2.5 मिलियन टन प्रतिवर्ष के हिसाब से गैस की आपूर्ति अगले डेढ़ दशक तक होनी है।जानकारों की मानें तो बांग्लादेश ने गैस प्राप्त करने के लिए आधारभूत ढांचे के विकास की दिशा में भी काफी काम कर लिया है। इसी साल से आपूर्ति शुरू होनी थी, लेकिन कई प्रकार के तकनीकी कारणों से अभी इसकी शुरुआत नहीं हुई है। अब ओपेक से अलग होने के बाद कतर का इस करार को लेकर क्या रुख रहता है, इस पर बांग्लादेश की नजर रहेगी। संभव है कि बांग्लादेश के लिए इसका कुछ सकारात्मक प्रभाव ही निकलकर सामने आए। इसके अलावा दक्षिण कोरिया, जापान आदि एशियाई देशों में भी कतर का भारी निर्यात है, लिहाजा इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके ओपेक से अलग होने का एशिया पर प्रभाव पड़ेगा। हालांकि वह प्रभाव कैसा होगा, यह काफी हद तक कतर और एशियाई देशों के रुख पर निर्भर करेगा।कतर ने ओपेक की सदस्यता त्यागने की घोषणा की है जो बीते 57 वर्षों से इस संगठन का सदस्य था। हालांकि ओपेक देशों द्वारा तेल उत्पादन में कतर की हिस्सेदारी महज दो फीसद है, लेकिन इसके इस संगठन से बाहर निकलने को मध्य पूर्व देशों की राजनीति में एक बड़ा कदम माना जा रहा है जिसके अनेक दूरगामी नतीजे सामने आ सकते हैं। माना जा रहा है कि बीते कुछ समय से सऊदी अरब से टकराव के कारण भी कतर ओपेक की सदस्यता छोड़ रहा है
Aapne bahut hi achhi post share kiya hian kafi achhi jankari hain Thanks.
hindiapni, हिंदी अपनी कैसे हुई जिसे अंग्रेजी वर्णमाला में सजाए यहाँ परोसा गया है? हिंदी में रोमन लिप्यंतरित टिप्पणी को जिसे न कोई देहाती पढ़ पाए और न ही कोई मुआ गोरा अंग्रेज़ समझ पाए केवल घर की न घाट की hindiapni आपकी हिंदी भाषा की आत्मा, देवनागरी को ही नष्ट किये कल न पढ़ पाने की स्थिति में हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथ भण्डार व वेदों को सचमुच श्रुति बना छोड़ेगी| उस पर एक और चिंता बनी रहेगी कि आज के भारतीय युवा यूट्यूब पर भांति भांति के अच्छे बुरे चित्र देखते श्रुतियों से भी वंचित रह जाएंगे!
आज अपनी प्राचीन संस्कृति व श्रुति को परिरक्षित रखते प्रवक्ता.कॉम पर प्रकाशक लेखकों और पाठकों को hindiapni के भविष्य का सोचते इस विषय पर निरंतर चर्चा करते रहना होगा| भारत में हिंदी भाषा का विकास प्रसार करते समस्त भारतीयों के लिए हिंदी भाषा पर आधारित “ग्राहक परिसेवक संरचना” को शीघ्रता से अपनाना होगा|