जिस समय श्री नरेन्द्र मोदीजी ने गुजरात से दिल्ली की ओर प्रस्थान किया उस समय दिल्ली पर अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस के ‘गांधी परिवार’ का शासन था। कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी सत्ता की चाबी अपने पास रखकर एक नितांत सज्जन डा. मनमोहनसिंह के माध्यम से देश पर शासन कर रही थीं। देश में सर्वत्र घोटालों का बोलबाला था। आंतरिक और बाहरी सुरक्षा पर भी संकट था और विदेशों में देश का सम्मान भी घट रहा था।
श्रीमती सोनिया गांधी ने देश में हिंदू-दलन की नीति पर कार्य करना आरंभ कर दिया था। साम्प्रदायिक लक्ष्यित हिंसा अधिनियम के माध्यम से हिंदू उत्पीडऩ को देश में प्रोत्साहित करने जा रही थीं। देश के शासन की पंथनिरपेक्ष नीति का उपहास उड़ाया जा रहा था और उसका सीधा-सीधा अभिप्राय ‘हिंदू विरोध’ था। कंाग्रेस का कोई भी बड़ा नेता ऐसा नही था जिस पर किसी न किसी घोटाले में संलिप्त होने का कोई आरोप ना हो।
भाजपा के श्री मोदी को तब तक उनकी पार्टी भाजपा चुनावी समर के लिए मैदान में अपनी ओर से उतार चुकी थी। तब कांग्रेस के पी. चिदंबरम ने उन्हें पहली बार अपनी पार्टी के लिए चुनौती माना था। उनका यह कथन कि ‘श्री मोदी कांग्रेस के लिए एक चुनौती हैं,’ उस समय कांग्रेस के भीतर के भय को स्पष्ट करने में समर्थ था।
तब हमने 20 नवंबर 2013 के ‘उगता भारत’ साप्ताहिक के संपादकीय ‘कांग्रेस : प्रायश्चित बोध भी आवश्यक है’ में लिखा था-‘भाजपा के पी.एम. पद के प्रत्याशी श्री नरेन्द्र मोदी को कांग्रेस के रणनीतिकार और केन्द्रीय मंत्री पी. चिदंबरम् ने पहली बार कांग्रेस के लिए ‘चुनौती’ माना है। पी. चिदंबरम् ने कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा से बचने की प्रवृत्ति को भी पार्टी के लिए चिंताजनक कहा है। उन्होंने कहा है कि राजनीतिक दल के तौर पर हम यह मानते हैं कि मोदी कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती हैं। वह मुख्य विपक्षी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। हमें उन पर ध्यान केन्द्रित करना ही होगा।
….मोदी एक विचाराधारा को लेकर उठ रहे हैं, जिस पर उन्हें जन समर्थन मिलता देखकर कांग्रेस की नींद उड़ गयी है। कांग्रेस के नेता अपने नेता राहुल गांधी से आशा रखने लगे हैं कि वे हर सप्ताह विदेश भागने के स्थान पर विपक्षी दल भाजपा के पी.एम. पद के प्रत्याशी श्री मोदी का सामना करें और राष्ट्रीय मुद्दों पर अपने और पार्टी के विचार स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करें। सारा देश भी यही चाहता है कि कांग्रेस अपनी छद्म धर्मनिरपेक्षता व तुष्टिकरण की नीतियों से देश को और देश के अल्पसंख्यकों को हुए लाभों को स्पष्ट करें और मोदी इन नीतियों से होने वाले अन्यायों और हानियों का लेखा जोखा देश की जनता के सामने प्रस्तुत करें। यह सत्य है कि कांग्रेस की इन नीतियों से देश के अल्पसंख्यकों का कोई हित नही हो पाया है। देश के समाज की सर्वांगीण उन्नति और उसका समूहनिष्ठ विकास तो सर्व संप्रदाय समभाव और विधि के समक्ष समानता की संवैधानिक गारंटी में ही निहित है। नरेन्द्र मोदी ने अपनी कार्यशैली से स्पष्ट किया है कि वह अल्पसंख्यकों के अनुचित तुष्टिकरण को तो उचित नही मानते पर वो विकास की दौड़ में पीछे रह जाएं, ऐसी किसी व्यवस्था के भी समर्थक नही हैं। वस्तुत: ऐसा ही चिंतन वीर सावरकर का भी था और किन्हीं अर्थों तक सरदार पटेल भी यही चाहते थे। इस देश का दुर्भाग्य ही ये है कि जो व्यक्ति शुद्घ न्यायिक और तार्किक बात कहता है उसे ही साम्प्रदायिक कहकर अपमानित किया जाता रहा है। श्री मोदी ने अब मन बना लिया है कि साम्प्रदायिकता यदि शुद्घ न्यायिक और तार्किक बात के कहने में ही अंतर्निहित है तो वह यह गलती बार-बार करेंगे और जिसे इस विषय में कोई संदेह हो वह उससे खुली बहस से भी पीछे नही हटेंगे।
लोकतंत्र में चुनावी मौसम में जनता का दरबार ही संसद का रूप ले लेता है। इसीलिए लोकतंत्र में संसद से बड़ी शक्ति जनता जनार्दन में निहित मानी गयी है। अब जनता जनार्दन की संसद का ‘महत्वपूर्ण सत्र’ चल रहा है और सारा देश इसे अपनी नग्न आंखों से देख रहा है। अत: इस ‘सर्वोच्च सदन’ से किसी नेता का अनुपस्थित रहना या किसी नेता के तार्किक बाणों का उचित प्रतिकार न करना भी इस सर्वोच्च संसद का अपमान ही है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता ही ये है कि ये राज दरबारों के सत्ता के षडयंत्रों में व्यस्त रहने वाले नेताओं को जनता के दरबार में भी प्रस्तुत करता है और उनके कार्य व्यवहार की औचित्यता या अनौचित्यता का परीक्षण जनता सेे अवश्य कराता है। अत: यह अनिवार्य हो जाता है कि ऐसे समय पर कोई नेता मुंह छुपाने का प्रयास ना करे। जनता को भी सावधान रहना चाहिए कि उसे दो लोगों की लड़ाई का आनंद लेते देखकर सत्ता सुंदरी के डोले को कहीं फिर शमशानों में जाकर उसका अंतिम संस्कार करने में सिद्घहस्त कुछ ‘परंपरागत सौदागर’ न उठा ले जायें।’
जनता सावधान रही और कांग्रेस का भय चुनाव परिणामों में स्पष्ट दिखाई दे गया। फलस्वरूप भाजपा ने प्रचण्ड बहुमत लोकसभा चुनावों में प्राप्त किया। अब बारी थी देश का प्रधानमंत्री चुनने की, जिसे भाजपा और उसके साथी दलों के विजयी सांसदों के द्वारा पूर्ण किया जाना था। देश के लोकसभा चुनावों के परिणामों ने स्पष्ट कर दिया था कि 2014 के लोकसभा चुनाव देश के प्रधानमंत्री श्रीनरेन्द्र मोदी हों, केवल इसी बात पर हुए थे, और लोगों ने इसी बात के लिए श्री मोदी को अपना समर्थन प्रदान किया था। अत: जब प्रधानमंत्री चुनने का समय आया तो तो यह केवल एक औपचारिकता मात्र थी, जिसे देश की जनता ने प्रधानमंत्री बना दिया हो और जिसके नाम पर उसकी पार्टी और समर्थक दलों के अधिकतर प्रत्याशी जीतकर आए हों, उसका प्रधानमंत्री बनना निश्चित था। इसलिए उनकी पार्टी के और उनके सहयोगी दलों के सभी विजयी सांसदों ने श्री मोदी को सर्वसम्मति से देश का प्रधानमंत्री चुना। यह पहली बार था जब देश का प्रधानमंत्री स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से ही चुना गया था। इससे पूर्व नेहरूजी देश के पहले प्रधानमंत्री इसलिए बने कि वह गांधीजी के पसंद थे, शास्त्रीजी को नेहरूजी का उत्तराधिकारी चुना गया, उन्हें भी जनता ने नही चुना था। उनके पश्चात श्रीमती इंदिरा गांधी भी कुछ लोगों द्वारा चुनकर देश की प्रधानमंत्री बनायी गयीं। इसी प्रकार अन्य प्रधानमंत्रियों के साथ हुआ। पर श्री मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्हें पहले जनता ने चुना और फिर उनके उनके साथी सांसदों ने उन्हें अपना नेता माना।
राकेश कुमार आर्य
नरेंद्र मोदी को एक बार ही प्रधानमंत्री चुना गया है… पहली बार का मतलब ही कुछ नही्ं हैं.
मोदी-विरोधी मनोवृति हो तो कोई विद्वान भी आलेख को पहली बार पढ़ते ही धोखा खा सकता है| सचमुच, जनता ने पहली बार ही नरेंद्र मोदी को अपना प्रधान मंत्री चुना है|