हिन्दी को कब बनाया जाएगा भाषाओं के माथे की बिंदी!

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लिमटी खरे

देश में हिन्दी के कब दिन बहुरेंगे! कब हिन्दी को राष्ट्रभाषा का आधिकारिक दर्जा मिल पाएगा! यह बात सभी के जेहन में घुमड़ना स्वाभाविक ही है। देखा जाए तो हिन्दी देश में राजभाषा तो है इसके साथ ही 11 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में हिन्दी में कामकाज को प्रमुखता दी जाी है। आज भी आप गैर हिन्दी भाषी राज्यों में चले जाएं तो सड़क किनारे के संकेतक या तो वहां की स्थानीय भाषा में होंगे अथवा अंग्रेजी भाषा में! यह सही है कि देश पर दो सदी से ज्यादा समय तक अंग्रेजों ने शासन किया यही कारण है कि अंग्रेजी और अंग्रेजियत के कण देश की माटी में जगह जगह घुले मिले नजर ही आते हैं।

हाल ही में भाजपा शासित केंद्र सरकार के गृह मंत्री अमित शाह के द्वारा बहुत ही सटीक बात कही गई। उन्होंने कहा कि जब अलग अलग भाषा बोलने वाले राज्य आपस में बात करें तो अंग्रेजी के बजाए हिन्दी भाषा को अथवा देश की किसी अन्य भाषा का उपयोग करें। गृह मंत्री के इस बयान की तारीफ की जाना चाहिए। गृह मंत्री अमित शाह की बात में वाकई दम है। क्या आजादी के सात दशकों के बाद भी हमें अंग्रेजी भाषा का लबादा उतारने से परहेज है!

अंग्रेजी को इतना महत्व देश में क्यों दिया जाता है! इस बारे में केंद्र सरकार को एक सर्वेक्षण जरूर करवाया जाना चाहिए। हमारी राय में देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली ही अंग्रेजी भाषा समझती है। आसान शब्दों में कहा जाए तो दिल्ली में बैठे नीति निर्धारकों के द्वारा अंग्रेजी को स्टेटस सिंबाल बना लिया है। किसी भी बड़े नौकरशाह या नेता के घर जाईए आपको उनकी बैठक में दो तीन अंग्रेजी अखबार और कई सारे अंग्रेजी नावेल दिख जाएंगे। यह सब आगंतुकों पर प्रभाव डालने की गरज से किया जाता होगा, वरना देश की मूल भाषा हिन्दी के उपन्यास, अन्य पठनीय सामग्री या अखबार अगर उनकी बैठक या कार्यालय में दिख जाएं तो उनसे मिलने जाने वाले भी उसका अनुसरण अवश्य करेंगे और देश की मूल भाषा को समृद्ध किया जा सकता है।

आज भी दो विभिन्न भाषाओं वाले लोग आपस में वार्तालाप के लिए उन क्षेत्रीय भाषाओं या हिन्दी के बजाए अंग्रेजी में ही वार्तालाप करना अपनी शान समझते हैं। अगर अमित शाह की बात पर कम से कम भाजपा शासित राज्य ही अमल कर लें तो राष्ट्रीय विकास के नए सौपान तय करने में ज्यादा वक्त नहीं लगने वाला। इससे हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएं ही समृद्ध होने की उम्मीद है। यह उसी तरह से हो रहा है जैसा कि हम जब भी इंटरनेट पर अपना ब्राऊजर खोलते हैं तब गूगल की ब्रांडिग ही करते नजर आते हैं, क्योंकि हमारे ब्राऊजर का होम पेज आटोमेटिकली गूगल पर जाकर सेट हो जाता है। जबकि आप अपनी वेब साईट को अगर होम पेज बनाएंगे तो आपकी अपनी वेब साईट की रेंकिंग बढ़ाने में यह मददगार ही साबित हो सकता है।

हिन्दी के लिए गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा प्रभाग प्रथक से है। संवैधानिक प्रावधानों पर अगर नजर डालें तो अनुच्छेद 120 के तहत संसद में प्रयोग की जाने वाली भाषा के लिए भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद में कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परंतु, यथास्थिति, राज्य सभा का सभापति या लोक सभा का अध्यक्ष अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो हिंदी में या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृ-भाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा। सबसे पहले तो यहां से अंग्रेजी को हटाने की आवश्यकता है।

देश भर के वरिष्ठ कार्यालयों में आज भी हिन्दी के ऊपर अंग्रेजी बैठी दिखाई देती है। वरिष्ठ कार्यालयों में आज भी अधिकांश कामकाज अंग्रेजी में ही होते हैं। यहां तक कि न्यायालयों में भी अंग्रेजी भाषा का ही वर्चस्व दिखता है। और तो और हिन्दी और अंग्रेजी के संयुक्त शब्दों जिसे हिंगलिश कहा जाता है आज सोशल मीडिया की मान्य भाषा के रूप में परोक्ष तौर पर स्थापित भी हो चुकी है। दस पांच सालों में इस भाषा को ही अगर लोगों के द्वारा अंगीकार कर लिया गया तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

देखा जाए तो हिन्दी ही भारत की पहचान है। यह संस्कृति, संस्कारों, जीवन के मूल्यों, सिद्धांतों की सच्ची संवाहक है। विश्व भर में बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी का स्थान तीसरा है। आज हिन्दी को राजभाषा तो कहा जा सकता है पर यह राष्ट्रभाषा कब बनेगी इस बारे में ठीक से कहा नहीं जा सकता है। यह सही है कि भारत विविधताओं का देश है और हर बीस किलोमीटर पर यहां भाषा बदल जाती है, पर देश की एक आधिकारिक भाषा होना चाहिए। देश की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं की तादाद पहले 16 थी जो अब बढ़कर 22 हो गई है। अगर आप भारत की मुद्रा को देखें तो उसमें आपको 16 भाषाओं में लिखा मिल जाएगा।

दशकों के उपरांत भारत को एक ऐसी सरकार मिली है जो बदलावों के लिए कटिबद्ध नजर आ रही है। वह भी इस तरह के बदलावों के लिए जो वास्तव में आने वाली पीढ़ियों के लिए बहुत जरूरी है। सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के महत्व को अगर घटाया जाए तो हिन्दी देश में भाषाओं के माथे की बिंदी बन सकती है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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