(मधुगीति १८१०३० अ)
कहाँ ये वादियाँ सदा होंगी,
कहाँ आबादियाँ दर्श देंगी;
कहाँ मिलने को कोई आएँगे,
कहाँ हँस चीख़ चहक पाएँगे !
करेंगे इंतज़ार कौन वहाँ,
टकटकी लगा कौन देखेंगे;
आने वाले न वैसे सुर होंगे,
तरंग और वे रहे होंगे !
भाव धाराएँ अलहदा होंगी,
थकावट उड़ानों की मन होगी;
तरावट हवाओं की तन होगी,
रिवाजें रश्म कुछ रही होंगी !
प्रश्न उपजे कहाँ रहे होंगे,
देख दूजों को मग चले होंगे;
सोचते उर में जो रहे होंगे,
लख के आँखों में वे कहे होंगे !
पकड़ ‘मधु’ लेंगे जो विधा होगी,
सुधा वसुधा पै बिखरती होगी;
यान नेत्रों से दीखते होंगे,
कूक कानों में आ रही होगी !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’