कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को यह भलीभांति समझ लेना चाहिए कि जिन मुद्दों के कारण कोई दल चुनाव में यदि अभूतपूर्व सफलता पाता है तो उन मुद्दों को स्वतः ही जनसामान्य के मुद्दों के रूप में मान्यता प्राप्त हो जाती हैं।
ऐसे में किसी जाति या संप्रदाय विशेष के तुष्टिकरण के लिए या फिर सरकार को परेशान करने के लिये संसद के कार्यकलापों में गतिरोध उत्पन्न करने से क्या लाभ ?
इस प्रकार के आचरण से संभव है कि उस जाति या संप्रदाय विशेष से कुछ लाभ मिल जाए, परंतु दूसरी ओर जिन मुद्दों के कारण पूर्व में जिन मतदाताओं ने मत नहीं दिया था उनसे तो भविष्य में भी कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए।
भीड़ द्वारा पीट कर हत्या जैसे संवेदनशील मुद्दों पर राष्ट्रीय परिपेक्ष वाले राजनीतिक दलों को तो बहुत ही सोचसमझ कर ही कोई बयान या कदम उठाना चाहिये, विशेषकर कांग्रेस जैसे राष्ट्रिय दलों को।
क्या विगत दिनों में काश्मीर में डीएसपी की हत्या, केरल में संघ और उससे जुड़े संगठनों के पदाधिकारियों की तमाम हत्याएं और दिल्ली और उत्तरप्रदेश के अनेक शहरों में हुई हत्याओं को लिचिंग की संज्ञा नहीं दी जायेगी ? यही नहीं स्वतंत्र भारत के इतिहास में 84 के दंगों तो लिचिंग का सबसे बड़ा और घिनौना काण्ड माना जाना चाहिए और उस समय केंद्र और राज्यों में कांग्रेस का ही तो शासन था। आज भी 84 के दंगों के अनेक मुकद्दमों में कांग्रेसी कार्यकर्त्ता और नेता फंसे हुए हैं।
राजनीतिक मुद्दों पर राजनीतिक दलों का विरोध तो समझ में आता है परंतु संवेदनशील मुद्दों पर किसी जाति, सम्प्रदाय या वर्ग विशेष को भड़का कर देश में सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने की निरंतर प्रयासों से यह वर्तमान विपक्षी दल क्या हासिल करना चाहते हैं।
इन तमाम दलों को यह समझना चाहिए कि तुष्टिकरण का रिएक्शन सदैव ही ध्रुवीकरण होता है और 2014 से सारा देश यह देख भी रहा है। इस सार्वभौमिक फॉर्मूले में निकट भविष्य में कोई बदलाव होता दीखता भी नहीं है। ऐसे में हर मुद्दे पर नकारात्मक रवैया निभाने वाले विपक्षी दल किस बिना पर संसद से लेकर सड़क तक सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने में लगे हुए हैं ये आमजन की समझ से परे है।
वैसे भी जिन जातियों और सम्प्रदायों को अपना वोटटैंक समझ कर भड़काऊ और नकारात्मक राजनीति का खेल खेल जा रहा है, उसके विषय में भी इस दलों को समझ लेना चाहिए कि उस टैंक में भी अनेक छिद्र हो चुके हैं। उनके मतदाता जिन पर कभी इन दलों का एकाधिकार हुआ करता था अब छिटक चुके हैं। जाति और संप्रदाय विशेष के मतदाताओं में बिखराव और भाजपा की और झुकाव की प्रक्रिया निरंतर चल रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनावी नतीजों पर यदि गौर करें तो सब कुछ स्पष्ट हो जाता है।
देश की राजनीति के विश्लेषकों और प्रबुद्ध जनों को तो कांग्रेस की स्थिति और सोच बहुत ही सोचनीय दिखती है। कांग्रेस एक राष्ट्रिय दल है, उसका अपना एक लंबा राजनीतिक इतिहास और अनुभव भी है। ऐसे में उससे उसके राष्ट्रिय दृष्टिकोण रखने की उम्मीद भी रखना लाजमी है। परंतु क्षेत्रीय और संकुचित सोच रखनेवाले क्षेत्रीय दलों और उसके क्षत्रपों से गलबहियां डाल प्रेम की पींगे झूलना किसी भी राष्ट्रिय सोच वाले बुद्धिजीवी के गले नहीं उतर रही। ये क्षेत्रीय दल अमरबेल की भांति कांग्रेस जैसे बटवृक्ष को कहीं का नहीं छोड़ेंगी। साम्प्रदायिक शक्तियों के विरोध के नाम पर भरष्टाचारी और देशविरोधी ताकतों का जमावड़ा एक और जहां देश का अहित करेगा वहीं कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य को बहुत बड़ी और अपूर्णीय क्षति पहुंचाते हुए उस दयनीय स्थित पर पहुंचा देगा जहाँ से उठ सकना इसके लिये असंभव होगा।