जिन्होंने समाज, साहित्य और राष्ट्र को एक नई दिशा दी

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-प्रमोद भार्गव-

Maithili_Sharan_Gupt

-संदर्भः मैथिलीशरण गुप्त के जन्मदिन 3 अगस्त के लिए विशेष-

मैथिलीशरण गुप्त का राष्ट्रीय प्रदेय-

मैथिलिशरण गुप्त का समाज,साहित्य और राष्ट्र के लिए प्रदेय बेहद महत्वपूर्ण होने के साथ युगानुरूप है। वे किसी वैचारिक खूंटे से नहीं बंधे थे। यही कारण रहा कि उनकी रचनाएं संकीर्णता, रूढ़िवादिता और मतवादिता से सर्वथा मुक्त रहीं। उन्होंने वैचारिक ज्ञानार्जन के लिए अध्ययन की सभी खिड़कियों को खुला रखा। गोया कि उनकी रचना समय में जो परिवर्तन हुए, कमोवेश वे उन्हें कलमबद्ध करते रहे। इसीलिए उनके रचना कर्म में राष्ट्रबोध के साथ भारतीय संस्कृति के नवीनतम रूप दिखाई देते हैं। अंधविश्वास और थोथे आदर्शों में उनका विश्वास नहीं था। इसलिए वे धार्मिक जड़ता और रूढ़ियों पर प्रहार करते थे, किंतु भारतीय सनातन की दीर्घकाल से चली आ रहीं पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय संबंधों की दृढ़ता से रक्षा करते हैं। वे मिथक मान लिए गए पौराणिक पात्रों और घटनाओं का मानवीकरण करते हैं और इतिहास से ऐसे पात्रों को उठाते हैं, जो उपेक्षित रहे। उर्मिला,यशोधरा और विष्णुप्रिया जैसे हाशिए पर पड़े स्त्री पात्रों को गुप्त ही साहित्य के माध्यम से केंद्र में लाते हैं और उनकी युगानुरूप सामाजिक व राष्ट्रीय उपादेयता सिद्ध करते हैं। ऐसा पौराणिक या अवतार पुरूषों से जुड़े पात्रों को साधारण किंतु विलक्षण मानव-मात्र मानने से ही संभव हुआ।

गुप्त ऐसा इसलिए भी कर पाए, क्योंकि उनका जीवनकाल महर्षि दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद और महात्मा गांधी जैसे समाज सुधारकों से प्रभावित रहा। यही वह समय था,जब आर्य समाज के विचार आंदोलित होकर भारतीय समाज में छुआछूत, सतीप्रथा, बाल विवाह जैसी कुरीतियों व कुप्रथाओं पर कुठाराघात करते हुए अछूत दलितों को गले लगा रहा था। इसी कालक्रम में जब केवल धर्मग्रंथ माने गए वेद, उपनिषद, रामायण और महाभारत के पृष्ठ सब जाति व समुदायों के लोगों के लिए खोले जा रहे थे और भारत अपने गौरवशाली अतीत से परिचित हो रहा था, गुप्त जी के साकेत, यशोधरा, विष्णुप्रिया पंचवटी, जयद्रथ वध संभवतः इसी संदेश को आगे बढ़ाने वाली कड़ियां हैं।

मैथिलीशरण गुप्त की उपरोक्त संदर्भों में यह भी विशिष्टता रही है कि उन्होंने पौराणिक और ऐतिहासिक पात्रों का मानवीयकरण करते हुए उन काल-खण्डों की घटनाओं और वातावरण का सहज चित्रण किया। इन्हीं कथा सूत्रों में उन्होंने वर्तमान व आधुनिक आंदोलन की भावनाओं को उकेरा, युद्ध विभिशिका की मीमांसा की, राज्य व्यवस्था में प्रजा के अधिकारों का उल्लेख किया। किसानों और मजदूरों की समस्याओं का प्रगटीकरण किया, सत्याग्रह, अहिंसा, विश्व-बंधुत्व और मनुश्यत्व के संदेश दिए। यह सब चित्रित करते हुए उनकी विलक्षणता यह रही कि उनके पात्र, घटनाएं और परिवेश कहीं भी विकृति की गुंजलक में नहीं उलझते, वे देश और समाज के लिए आवश्यक प्रदेय बड़े सहज चतुराई से परोस जाते हैं। जबकि आज हम इन काल-खण्डों की मनमाने ढंग से व्यवस्था करके विपरीत दिशा में जा रहे हैं।

अपनी बात को पुख्ता करने के लिए मैं यहां ए.के.रामानुजन के उस विवादास्पद निबंध का उल्लेख करना चाहूंगा जो ‘थ्री हंर्डेड रामायणस फाइव एग्जांपल एंड थ्री डॉटस ऑन ट्रांसलेशन‘ शीर्षक से लिखा गया। इस निबंध में लेखक ने उन कामजन्य विद्रूप अंशों का संकलन किया है,जिसके अंश विभिन्न रामायणों से उद्धृत किए गए। मूलतः यह लेख 1942 में पाउला रिचमैन के ‘मैनी रामायणस द डाइवर्सिटी ऑफ ए नैरेटिव ट्रेडिशन इन साउथ एशिया‘ आलेख को आधार बनाकर लिखा गया। इन लेखों का लक्ष्य था कि रामायण और रामायण विशयक उन सब ग्रंथों को विकृत किया जाए,जो भारतीय जनमानस को सबसे ज्यादा प्रभावित व उद्वेलित करते हैं। ए.के. रामानुजन का लेख दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास स्नातक पाठ्यक्रम में भी लगाया गया था,जिसे बाद में आखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने एक बड़ा आंदोलन खड़ा करके पाठ्यक्रम से बाहिष्कृत कराया। जबकि यहां तुलसीदास और मैथिलीशरण गुप्त से प्रेरित होने की जरूरत थी। यहां हमें सोचने की जरूरत है कि प्राचीन संस्कृत व अन्य भाशाई ग्रंथों की तथ्यात्मकताओं को झुठलाने की दृष्टि से कलंक और काम कथाओं के विभिन्न रामायणों में वर्णित क्षेपकों के संकलन को अल्पवस्यक छात्रों को पढ़ाकर आखिर हम किस प्रकार की जुगुप्सा अथवा जिज्ञासा विद्यार्थियों में उत्पन्न करना चाहते हैं ? इन्हीं ग्रंथों में विज्ञान सम्मत अनेक सूत्र व स्त्रोत मौजूद हैं। हम इन्हें क्यों नहीं संकलित कर पाठ्यक्रमों में शामिल करते ? ऐसा करके हम मेधावी छात्रों में विज्ञान सम्मत महत्वाकांक्षा जगा सकते हैं और भारतीय जीवन मूल्यों के इन आधार ग्रंथों से मिथकीय आध्यात्मिकता की धूल झाड़ने का काम भी कर सकते हैं ?

मैंने ऊपर कहा है कि गुप्त जी ने अपने ज्ञानार्जन के लिए न केवल वैचारिक स्त्रोतों की अनेक खिड़कियां खोल रखी थीं,अपितु गांधीवाद से ज्यादा प्रभावित होने के बावजूद भिन्न वैचारिकता को अपने रचना-कर्म में स्थान भी दिया। यही कारण है कि गुप्त साकेत में राजतंत्र के स्थान पर साम्यवादी विचारधारा का प्रस्फुटन करते हैं।
‘विगत हों नरपति रहें नर मात्र और जो जिस कार्य के हों पात्र।
वे रहें उस पर समान नियुक्त, सब जियें ज्यों एक ही कुल भुक्त।।
यही नहीं कार्ल मार्क्स के लोक कल्याणकारी विचारों की अपने काव्य ‘जयिनी‘ में स्थापित करते हुए उदारवादी गुप्त साम्यवाद के प्रति आस्था जताते हैं-
‘धन रूपी फल का परिश्रम ही मूल है।
किंतु श्रमिकों को फल मिलता है कितना।
पूंजीपतियों का नहीं जूठन भी जितना।
स्वतंत्रता आंदोलन में भारत-भारती का अनुपम योगदान रहा है। भारत-भारती उनकी प्रसिद्ध व ऐतिहासिक कृति होने के साथ स्वतंत्रता समर में अग्नि-बीज का भी काम करती रही है। यही वह पुस्तक थी,जिसने पहले-पहल हिंदी-प्रेमियों का गुप्त जी की ओर घ्यान खींचा। इसमें स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए देश की वर्तमान और भावी दुर्दशाओं का चित्रण तो है ही,साथ ही इन समस्याओं से उबरने के समाधान भी खोजने का प्रयास किया गया है। भारत-भारती वास्तव में भारत वर्श के संक्षिप्त दर्षन की काव्यात्मक प्रस्तुति है। इसी पुस्तक की महिमा थी कि गांधी जी,मैथिलीशरण गुप्त को 1936 में ‘काव्य मान-ग्रंथ‘ भेंट करते हैं। तभी गांधी उन्हें ‘राष्ट्र कवि‘ का संबोधन देते हैं। वैसे हमारे देश में राष्ट्र कवि की कोई राश्ट्रीय या मानद उपाधि की राजकीय व्यवस्था नहीं है। हालांकि वह तो परतंत्रता का युग था और परतंत्रता की जंजीरें तोड़ने की हिमायत करने वाले रचनाधर्मियों का स्थान कारागार में था,गोया,गुप्त जी को भी 1941 में राज-बंदी बनाया गया था। राष्ट्र कवि के सिलसिले में एक तथ्य अथवा संशय यह भी है कि महात्मा गांधी ने उन्हें एक चिट्ठी में राष्ट्र कवि कहा था और तभी से उन्हें राष्ट्र कवि कहा जाने लगा। लेकिन गुप्त जी हमारे देश के वाकई राष्ट्र कवि हैं,इसमें कोई संशय या संदेह नहीं है।

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