कैसा चुनाव ?

सर्द है मौसम और गर्म अख़बार
टी. वी. पर चलते चैनल तीन सौ चार
रातें हैं अंधी और दिन चौंधियाते हैं
कानों में घुसकर नारे लगाते हैं
 
अजनबी गली में घेरकर मुझको
भौंकती हैं, काटती हैं करबद्ध विनतियाँ
रोककर मुझको घूरते हैं बेधड़क जुमले
मांगते हैं समर्थन, फिर निष्ठा, फिर चेतना
 
चौक पे मुरगों की लड़ाई लगी है
जनतंत्र में फैसले की ये घड़ी है
‘आपके ही दाने खाकर मुर्गा खूब लड़ेगा,
आपके ही फैसले से तो देश आगे बढ़ेगा’
 
बाज़ार खुला है और ग्राहक ही भगवान
मर्ज़ी है ग्राहक की, ग्राहक की दुकान
जागरूक उपभोक्ता की एक ही पहचान
जांच परख के अच्छे से खरीदे सामान
 
छुरियां हैं धारें बस अभी लगवायी हैं
कारतूसों की नई खेप कल फैक्टरी से आई है
पियेंगे तेज़ाब या आइसोसाइनेट का कश लेंगे
‘बोहनी का टाइम है सर, जल्दी डिसीजन लेंगे’
आंखों पे पट्टी है, कुआं और खाई है
आज़ाद हैं आप, जहाँ चाहे जाइए…
 
सोचने का है भी क्या! सोचने नहीं देंगे
बिना कुछ खरीदे घर से कैसे निकलेंगे
आप या तो हम में हैं, या हम से परे हैं
चील हैं या गीदड़ हैं, किस बाड़े में खड़े हैं?
गऊ जैसे बनिएगा तो काम के बड़े हैं,
 
उनके भाषण में एक सपाट सा भाव है
सही गलत का नहीं ये और ही चुनाव है
‘उन्हें मार दो वर्ना वो तुम्हें मार देंगे,
हमें लूटने दो वर्ना वो तुम्हे लूट लेंगे’
 
मैं गुंडो से डरता हूँ, ढूँढता हूँ गुंडा एक
मैं दंगों से बचकर फिर करता हूँ दंगा एक
मुझे मेरी जिम्मेदारी और अधिकार सिखाकर
शिक्षित, स्वतंत्र नागरिक होने के दंभ में धंसाकर
मेरे ही शासन में, मेरी ही मर्ज़ी से
मेरे ही हाथों से, मुझे मार डालोगे!
अच्छा बखेड़ा है, लोकतंत्र टेढ़ा है
चयनशक्ति की चुस्की से और ज्यादा क्या लोगे…
शिवम् श्रोत्रिय

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