—विनय कुमार विनायक
मैं इलापुत्र ऐल!
सूर्यवंशी मनु का दौहित्र,
उस द्वन्द की कड़ी में
चन्द्रवंशी आर्य ‘पुरुरवा’ था!
सप्तद्वीप नौ खण्ड का स्वामी
उर्वशी का भोगी,
आयु का जन्मदाता!
(7)
मैं ‘नहुष’
आयु का आत्मज,
अति शौर्यवश हुआ
इन्द्र पदाभिषिक्त
मेरी मुट्ठी में कैद थी
धरती-स्वर्ग-इन्द्रासन!
क्या ब्राह्मणत्व!
क्या देवत्व! क्या आर्यत्व!
सबने किया मेरा नमन,
किन्तु स्वअहंवश
मैं हुआ पतनशील
ब्राह्मणत्व से शापित होकर,
देवत्व से क्षीण/आर्यत्व से मलीन
मैं हुआ इन्द्रपद से च्युत,
अकर्मण्य अजगर सा
फिर भी मरा नहीं,
जिया ययाति बनकर!
(8)
हां मैं ‘ययाति’
अपने पिता नहुष की
खोयी प्रतिष्ठा का अधिष्ठाता!
इन्द्रपद का अधिकारी,
ब्राह्मण शुक्राचार्य का जमाता!
ब्राह्मण शुक्र कन्या देवयानी ही नहीं,
दानवबाला शर्मिष्ठा का भी
अखण्ड यौवन रसपायी!
किन्तु दीन हुआ मैं,
यौवनहीन हुआ मैं
ब्राह्मण श्वसुर शुक्राचार्य से
शापित होकर!
पर प्रतिशोध लिया मैंने
ब्राह्मण दौहित्रौं/स्वआत्मजों से
करके सत्ताधिकार से वंचित,
प्रवंचित जातियों में ढकेलकर!
मैंने कनिष्ठ दानवी भार्या
शर्मिष्ठापुत्र पुरु को
सत्ता का अधिकार दिया,
ब्राह्मण अहं को धिक्कारा,
जो मन भाया किया!