लोकतंत्र का गद्दार कौन?

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-गोपाल सामंतो

आज एक चैनल पर आ रहे कार्यक्रम ‘लोकतंत्र के गद्दार’ को देखने के बाद मेरे मन में एक सवाल बार बार आया कि आखिर लोकतंत्र का गद्दार है कौन? कुछ दिनों पूर्व रायपुर में हुए एक सेमिनार में मैंने स्वामी अग्निवेश के साथ कुछ और बुद्धिजिवियो को सुना था तब भी मेरे मन में ऐसे ही सवाल आये थे, उनके श्रीमुख से जो भी कुछ निकला मुझे कुछ हज़म नहीं हुआ और शायद ही किसी समझदार युवा को हज़म हुआ होगा. आज हर व्यक्ति आये दिन हमारे लोकतंत्र को कटघरे में खड़ा करने की कोशीश करते नज़र आता है और मुझे तो लगता है कि ये बुद्धिजीवी कहलाने और बनने के लिए जैसा पहला कदम हो. और तो और लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाली मीडिया भी इसमें कोई कसर नहीं छोड़ता , आज मीडिया किस जगह पहुँच गयी है ये तो शायद ही किसी से छुपी है, घर-घर की कहानी को लोगों के सामने पेश करने में मीडिया को कभी शर्म नहीं आती उल्टा अपने पीठ को खुद ही थपथपाने में लगी रहती है.पर मुझे एक बात समझ नहीं आती कि आखिर क्या सारी बुराइया सिर्फ लोकतंत्र और राजनीति में ही है बाकी सबका दामन पाक साफ़ है. आज इस देश के भ्रष्ट सिस्टम में शायद ही ऐसी कोई व्यवस्था बची है जो भ्रष्ट नहीं हुआ है , पर मीडिया को और बुद्धिजीवियों को ये सब नज़र नहीं आता है. उस सेमिनार में एक बात आई जिसमे कहा गया कि आज के लोकतंत्र का मतलब है कि कुछ चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा चलायी जा रही सरकार जो सिर्फ उन प्रतिनिधियों के लिए ही काम करती हो, एक आंकड़ा भी पेश किया गया जिसमें उल्लेख किया गया कि देश के सर्वोच्च संस्‍थान लोकसभा और राज्यसभा में परिवारवाद का और पैसो का ही बोलबाला है. पर ये बात किसी ने नहीं कही कि देश के आज़ाद होने 60 साल के बाद भी देश का मतदान प्रतिशत 60% से आगे नहीं बढ़ पाया और किसी ने कोशिश भी नहीं की इसे बढ़ाने की. ये भी हो सकता है कि मंच पर लोकतंत्र के बारे में जो आग उगलते है वो भी अपने आप को मतदान करने से वंचित रखते है. मतदान वाले दिन शायद ही कोई मीडिया कर्मी अपनी ऊँगली में साही दिखा पाता है और दूसरो को प्रेरित कर पाता है मतदान के लिए.

अगर ध्यान से देखा जाए तो समझ आता है कि एक सोची समझी साज़िश के तहत एक वृहद कोशिश चलाई जा रही है इस देश में राजनीति और लोकतंत्र को बदनाम करने की ताकि आम आदमी इससे दूर रहने में ही अपनी भलाई समझे. आज देश की परिस्थिति ये है कि नब्बे प्रतिशत लोग राजनीति को गन्दा कहने से भी परहेज़ नहीं करते और उच्च वर्ग और कॉर्पोरेट जगत तो मतदान को भी समय की बर्बादी समझते है, ऐसे में लोकतंत्र का मतलब ही क्या रह जाता है. आज बच्चा जब स्कूल जाता है तो उसके माँ बाप की एक ही ख्वाहिश होती है कि वो बड़ा होके डॉक्टर, इंजिनियर या कोई प्रोफेसनल कोर्स करके विदेश में सेटेल हो जाये और डालर में कमाई करे, क्या कोई माँ बाप सोचता है कि उसके संतान देश के सिस्टम के लिए कुछ करे शायद इसके जवाब में हा कभी सुनने को नहीं मिलेगा. क्या कोई बच्चा एम.बी.ए की पढाई करते समय देश में मंत्री या जनप्रतिनिधि बनकर काम करने की सोचता होगा शायद इस प्रश्न के उत्तर में भी न ही मिलेगा. तो अब लोकतंत्र का क्या दोष है जब काबिल आदमी इस ओर कदम बढ़ाएंगे ही नहीं तो सिस्टम में खराबी आएगी ही. सारे लोग एक बात जरूर कहते नज़र आते है कि राजनीति में तो कोई भी आ सकता है इसके लिए कोई डिग्री या डिप्लोमा की जरूरत नहीं पड़ती. पर क्या डिग्री पाने के बाद कोई राजनीती में आने की चाहत रखता है ये सवाल कोई नहीं पूछता. क्या गन्दगी सिर्फ राजनीती में ही है ये सवाल मैं उन सभी बुद्धिजीविओ से पूछना चाहता हु क्या कॉर्पोरेट जगत, मीडिया जगत, शिक्षा जगत या ऐसी सारी जगह पाक साफ़ है इनपे कोई ऊँगली क्यों नहीं उठाता. राखी सावंत के ठुमको को बेचने वाली मीडिया भी राजनीति के पीछे ऐसे हाथ धोके पड़ी रहती है जैसे मानों राखी सावंत से ठुमके लगवाने के लिए भी लोकतंत्र और राजनीती ने ही मीडिया को प्रेरित किया हो. टी.आर.पी के अंधी दौर में भागते भागते आज मीडिया जो परोस रही है शायद इसकी परिकल्पना भी किसी ने नहीं किया होगा. कुछ सालों पहले ऐसी कई प्रतिबंधित किताबें छपती थी जो सभ्य समाज के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती थी आज वैसी कहानिया सारे चैनलों के लिए प्राइम टाइम खबरे है.क्यों इन बुद्धिजिवियों को ये सब नहीं दिखता.

शायद इन लोगों ने कसम खा ली है कि देश के लोकतंत्र और राजनीति को इतना बदनाम कर देंगे कि 110 करोड़ की जनसँख्या वाले इस देश में राजनीति में आने के लिए लोगो का टोटा लग जाए और परिवारवाद का वृक्ष पूरी तरह से इस देश को अपने आगोश में समा ले. मुझे तो इन लोगों के समझदारी पर बड़ा तरस आता है और उनके देशप्रेम के ढोंग से नफरत होती है. जिस लोकतंत्र के बल पे वे बुध्धिजीवी कहलाते है उसी को दिलखोल कर गाली देते है. तो ऐसे में इन बुद्धिजिवियों को देशद्रोही या गद्दार क्यों न कहा जाये. आज वो वक़्त आ गया है जब युवावर्ग को कमान अपने हाथ ले लेना चाहिए और इन देशद्रोहियो को बेनकाब कर देना चाहिए और इनके विचारों को सिरे से खारिज कर इनसे बुद्धिजिवि कहलाने का हक छीन लेना चाहिए. मीडिया की भी क्या कहे वो इस युवा वर्ग को बिग बॉस संस्कृति में इस तरह फ़साना चाहती है कि उससे ऊपर उठके युवा कुछ देख ही न पाए. एक बड़े पत्रकार ने उसी मंच से एक बड़ी अनोखी बात कही कि तकनीक के साथ संस्कृति भी बदलती है. पर क्या किसी देश की तकनीकी विकास ने उसे मजबूर किया कि वो अपने संस्कृति को बदल दे इसका उत्तर उनके पास शायद ही होगा. क्या किसी तकनीक ने मजबूर किया कि टीवी पर इमोशनल अत्याचार देखे या स्वयंवर का तमाशा देखे. इस मीडिया को तो किसी जवान के बहते खून में भी सिर्फ टी.आर.पी दिखती है, तभी तो उसके बहते खून के आगे एक्सक्लूसिव का टैग लगा देते है और उसमे उन्हें कोई शर्म भी नहीं आती. मीडिया कैसे कौडियो के भाव बिकने लगी है इसके तो न जाने कितने उदाहरण है, पर मैं जिस प्रदेश में रहता हु वहा भी मीडिया किसी धंधे से कम नहीं है. इस प्रदेश के चार बड़े मीडिया हॉउस क्रमश केमिकल, स्टील, पावर, और कोयले के धंधे में व्यस्त है और अपने पावर का इस्तमाल सिर्फ अपने लिए करते है. कमोवेश पुरे देश का ही हाल ऐसा है सारे बड़े चैनल किसी न किसी उद्योग को बढ़ावा देने में लगी रहती है. तो फिर क्यों लोकतंत्र को निशाना बनाना अगर इसमें बुराई है तो अच्छाई भी है. अब देशवासियों पर ये छोड़ दिया जाना चाहिए कि वो तय करे कि आखिर लोकतंत्र का असली गद्दार है कौन?

10 COMMENTS

  1. kya aap shadishuda hay? yadi nhi to abhi jitna bolna hay bol le, bad me aapki bolti aapke bacchche hi band kra denge. yadi aapke bachche hay to aap unhe rajniti me lane chahenge? bate likhi kahi ja sakti hay, par amal me lana jra katin hota hay.

    • main shadishuda to hu par abhi bachche nahi hai.ha par jab honge to unhe rajniti me laane me mujhe koi dikkat nahi hogi kyonki ye bhi career ka hi ek hissa hai……kya desh me sarkari naukri career ho sakta hai par sarkar chalana career nahi ho sakta???

  2. गोपाल जी मेने स्वामी अग्निवेश को पड़ा है .सुना है आपके मूल आलेख में लोकतंत्र विषयक सरोकारों में कुछ नकारात्मक तत्वों को प्रतिध्वनित किया गया .उसी क्रम में उनका उल्लेख आने से मेंने असहज होकर पूर्व प्रतिक्रया व्यक्त की थी .यदि आपको कुछ अप्रिय लगा हो तो क्षमा चाहता हूँ .

    • aisi aapne koi baat nahi ki jis se ki mujhe bura lage…kisi bhi cheej ke dono pahluo sar jhuka ke swikar karna hi chahiye. aaplogo ke comments hi urja pradan karte hai.nahi to ek lekhak ko aur kya chahiye.
      punha dhanyawad

  3. Author Shri Gopal Somantoo, after careful consideration, has found a conspiracy in maligning politics and democracy so that common man desists from our polity; and the intention behind this conspiracy is that the arena is left free for want of competent persons, to be completely captured by persons from the family and country be engulfed by the family-tree.
    Assuming the apprehension of Gopal Sahib to be well-founded, what fault can be found in the conspiracy?
    India is run by economics of market. Thus politics be also run by market. Smash all competition. Market of politics to be solely captured by the operation of limited competition of selected families.
    Monopolistic competition in Indian policy !

  4. गोपाल जी मैंने आपका लेख पढ़ा आज कल जिस तरह लोग भारत के लोकतंत्र को कोसते रहते है कुछ उसी प्रकार से कई लोग लेख लिख कर अपने आप को सही साबित करने में जुटे रहते है आप भी पत्रकार है क्या आपने कभी भारत के वोटीग प्रतिसत बढ़ाने के लिए कोई आवाज बुलंद किया है यदि नहीं तो आप कैसे लिख सकते है की आप चुप रहते हुवे वयवस्था का हिस्सा बनने में भरोसा नहीं करते जहा तक मै जानता हू की आप bhrast netao को jayda पसंद करते है…..

  5. गोपाल जी ने बहुत बड़ी बात को उजागर करने का प्रयास किया लगता है. सचमुच एक सोची-समझी साजिश है कि हम भारत के लोगों का अपनी व्यवस्थाओं, संस्थाओं, लोकतंत्र, न्यायपालिका, परम्पराओं, संस्कृति, महापुरुषों आदि पर विश्वास समाप्त होजाए. इसीके समानांतर दूसरा प्रयास चल रहा है अमेरीका की व्यवस्था, प्रशासन, जीवन शैली, आहार, विहार,विचारों के प्रती श्रद्धा जगाने का. मीडिया का इस्तेमाल करके सन्देश देने का सशक्त व सफल प्रयास है कि भारत में ,भारत का सबकुछ गलत है, बेकार है. अपने देश-समाज की अत्यधिक आलोचना कर-कर के हम इन प्रयासों को बल तो नहीं दे रहे ?
    इसप्रकार लोगों के मन में अविश्वास, निराशा की जड़ें गहरी करके अगला पग होगा, ”सरकार द्वारा भारत की बिगड़ी स्थिती के सुधार के लिए अमेरिका की सुरक्षा सेनाओं की मदद मांगना. बस फिर देश में बुरे से बुरा बहुत कुछ होगा पर मीडिया उसकी रपट नहीं देगा. जैसे ईराक में ५० लाख लोगों की निर्मम ह्त्या कभी कोई मुद्दा नहीं बनी. सोचने-समझने की बात है कि कहीं हम इस दिशा में बढ़ने के लिए अनजाने में सहयोगी तो नहीं बन रहे? सोचते समय याद रखना चाहिए कि चुनावों से ठीक पहले मीडिया के लिए प्रस्तावित कानूनों में अनेक प्रकार से मीडिया की ह्त्या की योजना बनी थी पर अत्यधिक दबाव के चलते, चुनाव सर पर होने के कारण फिलहा वह ठन्डे बसते में है. मीडिया कर्मीं इसे भूले नहीं होंगे.
    अमेरिका के हवाले देश को करने के उन्ही प्रयासों में से एक है ” लोकतंत्र” के लिए अविश्वास, अश्रद्धा, विरक्ती जगाने का प्रयास जिसमें उन्हें काफी सफलता मिल रही है. गोपाल सामंतो जी ने लोकतंत्र में अविश्वास जगाने की कोशिस की और सशक्त संकेत किया है. इस हेतु वे बधाई के पात्र हैं.

  6. आजकल जमाना ही क्षद्म का है । सही की कोई पूछ नहीं ।हर ओर केवल व्यवसाय है । बुद्धिजीवी(प्रायोजित) का टैग लगवाने के लिए भी पापड़ बेलने पड़ते हैं।

  7. shriram ji aapke vicharo ke liye dhanyawad ..aise maine vyavastha ko kosa nahi hai balki aawhan kiya hai kaabil logo se vyavastha me shaamil hone ke liye…taaki isme kuch sudhaar aa sake

  8. सूचना परक आलेख में सामंतो जी नेजिन बुद्धजीवियों को सराहा {?}है .वे तो लोकतंत्र के पिल्लर हैं .अन्य के बारे में तो नहीं कहूँगा किन्तु स्वामी अग्निवेश ने हमेशा ही लोकतान्त्रिक शक्तियों का हौसला बढ़ाया है .मीडिया ने भी लोकतंत्र के साथ सत्ता {सती}होने की सौगंध वैसी कभी नहीं खाई .जो जनता का वोट लेकर लोकतंत्र ..धर्मनिरपेक्षता .तथा गरीबी दूर करने की संसद में जाने बाले पूंजीवादी राजनीतिग्य .खाते हैं .
    व्यवस्था को कोसने का तात्पर्य हैं की नदी में डूबते हुए को नदी किनारे खड़े खड़े देखना और लहरों को कोसना .

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