गरीबी की भयावहता के लिए कौन हैं जिम्मेदार

अखिलेश आर्येन्दु

डॉ. अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट के मुताबिक देश में गरीबी और गरीबों की तादाद में कमी की जगह इजाफ़ा हुआ है। रपट पढ़कर गरीबी-अमीरी का भारी अंतर समझ में आता है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत के अस्सी करोड़ लोग महज 20 रुपये रोज पर गुजारा करते हैं। इस रिपोर्ट से हैरानी और चिंता दोनों होती है। हैरानी इस बात की होती है कि आजादी के बाद गरीबी अमीरी का फासला थोड़ा बहुत नहीं बल्कि हजार गुना का हो गया है। और चिंता इस बात की कि जिस भारत को एशिया में एक महाशक्ति बनने की बात कही जा रही है उसकी वास्तविक हालात दुनिया के सामने दिखाने लायक नहीं है। इससे एक बात और जो समझ में आती है वह केन्द्र सरकार और योजना आयोग के जरिए जारी गरीबी का प्रतिशत कम होने और खुशहाली बढ़ने के फर्जी आंकड़े। ये गलत आंकड़े क्या यह साबित करते हैं कि सरकार गरीबी मिटाने की जो योजनाएं बनाती है वह कागजी अधिक वास्तविकता में कम हैं?

सरकार गरीब उस आदमी को कहती है जो रोजना बीस रुपये कमाता है। रोजाना पच्चीस रुपए से लेकर लाखों रुपए कमाने वाला गरीब के दायरे में नहीं आता है। गरीबी-अमीरी का ऐसा बंटवारा दुनिया में किसी भी देश में देखने को नहीं मिलता है। मतलब 25 रुपये कमाने वाला अमीर और लाखों रोजाना कमाने वाला भी अमीर। फिर सरकार को 25 रुपये से लेकर सौ दौ सौ रोजाना कमाने वाले के लिए चिंता करने की क्या जरुरत है। इस हिसाब से तो फिर भारत में गरीबों की तादाद घटकर कुछ करोड़ में ही रह गई है यानी रामराज्य का सपना बस साकार होने वाला है। और जो भारत को एक आर्थिक शक्ति बनने की बात जोर- शोर से बहुत ऊंची आवाज में कही जा रही है वह भी सच होने के कगार पर है? फिर चिंता किस बात की है? कुछ सालों में न गरीब दिखेंगे और न गरीबी का कोई रोना रोयेगा।

दरअसल भारत की जो सामाजिक बनावट है वह गैरबराबरी को बनाए रखने के मद्देनजर ही बनाई गई थी। जाति के आधार पर यह मान लिया गया कि आर्थिक और शैक्षिक रूप से सम्पन्न जातियों को ईश्‍वर ने जन्म से ही उच्च बनाया है और आर्थिक रूप से विपन्न को जन्म से निम्न श्रेणी का बनाया है। इस लिए हजारों सालों से जाति और धर्म के आधार पर गैरबराबरी की परम्परा चली आ रही है। और कर्मफल सिद्धांत की दुहाई देकर यह प्रचारित किया जाता रहा कि गरीबी, कुपोषण, जुल्म और ऊंचनीच ईश्‍वरीय व्यवस्था का ही एक महत्तवपूर्ण हिस्सा है। मतलब जो गरीब हैं वे अपने बुरे कर्मों के कारण गरीब हैं, और जो अमीर हैं अपने उत्तम कर्मों के कारण अमीर हैं।

जिन गांवों के विकास की बात केंद्र और राज्य सरकारें करती हैं उन गांवों की असली तस्वीर यह है कि आज भी तकरीबन सत्तर करोड़ से ज्यादा लोग जानवर से भी गई बीती जिंदगी बिताने के लिए अभिशप्त हैं। लेकिन सुरेश तेंदुलकर समिति के आंकड़े के मुताबिक महज 37 करोड़ लोग ही गरीबी की रेखा के नीचे हैं। यानी बाकी लोग गरीबी की रेखा से ऊपर उठ चुके हैं। यदि थोड़ी देर के लिए इस आंकड़े को ही लेकर बात की जाए तब भी तो देश का हर तीसरा आदमी भूखा, नंगा और बदहाल है। यदि आजादी के चौसठ सालों के बाद भी देश का हर तीसरा आदमी भूखा, नंगा और बदहाल है तो सरकार की उन विशेष योजनाओं पर सवालिया निशान खड़ा होता है जो गरीबों के लिए बनाई जाती रहीं हैं। यदि सरकार यह मानती है कि कल्याणकारी योजनाओं का ज्यादातर हिस्सा भ टाचार का भेंट चढ़ जाता है तो सरकार के शासन पर ही एक बड़ा सवालिया निशान खड़ा होता है, क्योंकि सरकारें तो कानून-व्यवस्था और विकास की देखरेख के लिए ही बनती-बिगड़तीं हैं।

दरअसल भारत की इस विकृत तस्वीर के लिए वे सभी तंत्र और लोग जिम्मेदार हैं जो आम आदमी के हिस्से का सूरज जबरन दबाए हुए हैं। आम आदमी को यह झूठा दिलासा, एक दो साल से नहीं चौसठ सालों से बराबर दिलाया जा रहा है कि उनकी भलाई के लिए शासन और प्रशासन पूरी शिद्दत के साथ लगा हुआ है। और शोषित वर्ग जाति, मजहब और मत-पंथ के नाम पर बटा होने के कारण इस झांसे में आकर कभी शोषकों के फरेब के खिलाफ विद्रोह करने की जुर्ररत नहीं कर पाता है। एक बात जो गरीबी की समझ में आती है वह है सरकारों की मंशा का। आजादी के इन चौसठ सालों में अपवादों को छोड़ दिया जाए तो किसी सरकार ने आजतक गरीबी दूर करने के लिए मन, वचन और कर्म से संकल्प ही नहीं लिया। लोक सभा और विधान सभा के चुनावों में जितने भी नारे गरीबी हटाने के लिए लगाए जाते रहें हैं, और जो सम्मोहक वादे नेताओं के जरिए किए जाते हैं उनमें शायद ही कभी सच्चई दिखाई पड़ती हो। मतलब गरीबों को छलने के सभी तरह के तरीके अपनाए जाते हैं, और इसे कहा जाता है- लोकतंत्र का ऐतिहासिक उत्सव।

भारतीय सामाजिक परम्परा में कार्य का जो बटवारा किया गया वह भी गरीबी को दस्तूर जारी रखने में वरदान साबित हुआ। पुराणों व मनुस्मृति के प्रक्षेप हिस्सें और कल्पित भक्ति-ग्रंथों में यह लिख दिया गया कि सवर्ण, जिसे ऊंची जाति के नाम से पुकारा गया वे दिमागी और बहादुरी वाला कार्य करेंगे और शूद्र यानी श्रमिक जातियां हाथ-पांव से कार्य करेंगी यानी शारीरिक श्रम करेंगी। और दोनों तरह के कार्यों के मूल्य में जमीन-आसमान का फर्क किया गया, जो आज भी दस्तूर जारी है। आजादी के बाद इस ठगीपूर्ण तरीके को ही मान्यता दी गई। एक कम्पनी का आफिसर एक लाख रोजाना कमाता है और एक श्रमिक दिनभर खून-पसीना बहाकर भी बमुश्किल से पचास रुपये और कहीं-कहीं तो बीस-पच्चीस रुपए ही कमा पाता है। मतलब कुर्सी पर बैठकर गप्पे मारने वाले का कार्य खून-पसीना बहोने वाले मेहनतकश से इतना बड़ा है कि जिसका सामान्यत: हम हिसाब ही नहीं लगा सकते हैं।

गरीबी और अमीरी का फर्क महज आमदनी को लेकर ही नहीं है बल्कि सेहत, शिक्षा, रोजगार, रहन-सहन, सुविधा और साधन में भी हैं। गांधी जी ने इस फर्क को बहुत शिद्दत से महसूस किया था। इस लिए उन्होंने अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में लिखा कि जबतक देश के अंतिम आदमी को आव यक रोटी, कपड़ा और मकान मुहैया नहीं हो जाता तबतक आजादी का कोई मतलब नहीं होता है। और आज भी यदि आम आदमी की हालात बदतर बनी हुई है तो लोकतंत्र के नामपर की जा रहीं सारी कवायदें बेकार हैं। जबतक गैरबराबरी का यह सुरसा सदृ य अंतर कम नहीं होता तबतक गरीबी और गैरबराबरी खत्म होने का कोई मतलब नहीं है।

1993 में केंद्र ने उदारीकरण, वै वीकरण और निजीकरण का भोगवादी और नई गुलामी का रास्ता अपनाया। जिसका प्रतिफल यह हुआ कि देश के लाखों की तादाद में कुटीर उद्योग, मझोले उद्योग और छोटे कारखाने बंद हो गए, जिससे लाखों की तादाद में लोग बेरोजगार हो गए। जबकि केंद्र की सरकारें इस नए तथाकथित विकास को देश की खुशाहाली का परम पावन फामूला बताती रहीं। उदारीकरण के इन पद्रंह सालों में इस पावन फामूले की वजह से भी गरीबी, बेरोजगारी और बदहाली खत्म होने की जगह लगातार बढ़ती गई। और आज हालात यह हो गई है कि लगातार बढ़ते मशीनीकरण के कारण रोजाना हजारों लोग बेरोजगार हो रहे हैं। मतलब लगातार गरीबी बढ़ती जा रही है और सरकारें देश में खुशहाली बढ़ने का झूठा प्रचार करती फिर रहीं हैं।

देश में आजादी के बाद गांव और शहरी जिंदगी में एक बहुत बड़ा फर्क आया। इस लिए गांव का गरीब रोजगार और सुविधा के लालच में गांव छोड़कर शहर की ओर पलायन के लिए मजबूर हुआ। गांव के लोगों को गवार कहकर अपमानित किया गया और शहरी लागों को बाबू जी कहकर प्रतिष्‍ठा दी गई। गांव का जो मेधावी छात्र अपने कठोर श्रम और तपस्या से अपनी मातृभाषा के जरिए आगे बढने की कोशिश कर रहा था उसे अंग्रेजी न पढ़ने के कारण फिसडडी कहकर हताश किया गया। यह एक सोची-समझी साजिश है जिसे केंद्र सरकार ने उच्च वर्ग और नवधनाढयों को खुश करने के लिए लागू किया। ये दोहरी व्यवस्थाएं गांव और वन में रहने वाले , जो भारत के गरीब आदमी कहे जाते हैं और शहर में रहने वाले चमचमाती कारों पर चलने वाले शहरी बाबुओं के बीच जबतक दस्तूर जारी रहेंगी, देश से गैरबराबरी और गरीबी का कलंक मिट नहीं सकता। देश का जो स्वरूप अंग्रेजों के भारत आने के पहले था वह भी इतना खराब नहीं था कि देखकर दिल पसीझ जाए। इस लिए अब जरूरत इस बात की है कि देशा से गरीबी मिटाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को बहुत ही संवेदना के साथ आगे आना होगा। और हर स्तर पर भ टाचार मिटाकर सबको शिक्षा और सबको काम की व्यवस्था करनी होगी। बंद कुटीर उद्योगों को पुन: चालू करना होगा और बेरोगारों को रोजगार देकर गरीबी के कलंक को मिटाने के लिए आगे कदम बढ़ाना होगा। यही रास्ता है जिससे गरीब को और गरीब तथा अमीर को और अमीर होने से रोका जा सकता है।

4 COMMENTS

  1. अपने बहुत ही सही विश्लेषद किया है.वास्तव में इसका इलाज तो यही होना चाहिए की हम पुराणी व्यवस्था पैर लुओत आये यानि भुमंदालिकरद,बाजारवाद से लेकिन क्या यह संभव है.अब तो देश के पुजीपतियो के मुह हरम का खून लग चूका है और हमरी रस्ज्नातिक व्यवस्था उनकी चाकर बन चुकी है क्या इसे उलटा जा सकता है.यदि नहीं तो फिर हमारे कुतिरुद्योग,और शिल्पियों का क्या होगा.लगता है की इसी व्यवस्था की दें नाक्स्सल्वादी ही कोइओ परिवर्तन का अवसर बहयेगे.क्योकि राजनीत इतनी खर्चीली और अपराध युक्त हो चुकी है की किसी को राजनीत में सफल होने के लिए पैसे की भूमिका बढाती जा रही है और यह सांसदों को पुजोपतियो का वेतन भोगी बना देगा और एक तरह से सरकारों का कम सिर्फ पुजिपतिप और विदेशी बहुदेशीय सस्ब्स्थानो की दलाली ही रह गयी है.देख ही रहे है की किसकी दलाली में ग्रीन हंट चला केर नर्सघर को अंजाम दिया जा रहा है,वह भी सिर्फ उद्योगपतियो और खनिज कंपनियो को फायदा पहुचने के लिए.

  2. Main aap sab logon ka aalekh padhta hoon aur ye nahi samajh paataa ki koi yah kyon nahi sochta ki Bhaarat ya India jo bhi kaha jaaye ,wahan aakar sab system fail kyon ho jaataa hai.
    Systems mein koi dosh nahi hai,per hamaari dhurtata ,makaari,nichta,bhrast mind set sab kuchh barbaad kar deta hai.Ham nete ho ya abhineta, ham naukari pesha ho ya Byapari,kisaan ho ya majdoor ,aastik ho ya nastik,upper caste ho ya lower caste,ek cheese hamlogon mein common hai ki ham sab neech aur bharast hain aur jab tak hamaaraa yah mindset nahi badlega tab tak koi bhi yojana ya pariyojna safal nahi ho sakti. Jo jyada dhurt ya kapati hoga wah jyada aage badhega aur jo kam dhurt ya kapati hoga ya jisko kam ausar milga dhurtata ya kapat ke liye wah peechhe rah jaayegaa.

    • “गरीबी की भयावहता के लिए कौन हैं जिम्मेदार?” पर आपकी प्रतिक्रिया में इस क्रूर प्रश्न का यथासंभव उत्तर मिलता है| डॉ. अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के अस्सी करोड़ लोग महज 20 रुपये रोज पर गुजारा करते हैं और इस कारण आपके अनुसार ये “सभी पीछे रह गए” लोग कम धूर्त और कपटी हैं| इन्ही पीछे रह गए लोगों के कारण पिछले कई वर्षों से मुझ एन. आर. आई. की भारत यात्रा निर्भय व सकुशल रही है| कई और लोग जिन्हें प्रति दिन २० रूपए से कुछ अधिक कमाते धूर्तता या कपट का अवसर नही मिला, व्यवहारिक रूप से सहायक ही रहे हैं| मेरा विचार है कि यदि इन लोगों के लिए अच्छे विद्यालय, अच्छे चिकित्सालय, और स्थाई रोज़गार का प्रबंध हो सके तो ये अवश्य अच्छे नागरिक बन सकते हैं| पूर्णता धूर्त व कपटी लोगों को मालुम है कि ऐसा संभव होने पर सौ प्रतिशत लोग अमीर हो जायेंगे और उन्हें कोई नहीं पूछेगा| पिछले तिरेसठ वर्षों से भारत में उनकी यह योजना अवश्य सफल रही है| वैसे तो आपकी टिपण्णी पर मेरे उत्तर को विश्राम दे दिया है लेकिन आपके कथन “Jo jyada dhurt ya kapati hoga wah jyada aage badhega” ने मेरे मन में एक प्रश्न खडा कर दिया है| आगे बढ़ने से आप का क्या अभिप्राय है? मुझे तो आगे गोबर का ढेर या कीचड दिखाई दे रहा है| जब कोई अपने राजभवन के बाहर पग रखता है तो वह गोबर के ढेर या कीचड़ पर पड़ता है| भारत इतना मैला हो गया है कि लोकप्रिय फिल्म उद्योग भी शूटिंग के लिए यूरोप व अमरीका जाते हैं| बातों बातों में धूर्तता और कपट तो भूल ही गए| वर्षों पहले संयुक्त राष्ट्र अमरीका के वरमोंट प्रांत के बर्लिंगटन शहर में शूटिंग कर रहे फिल्मी टोले ने वहाँ इंडियन रेस्तरां में कई दिन भोजन करते वहाँ के मालिक को यह कह कर पैसे नहीं दिए कि यह तो उसका सौभाग्य है कि उन्होंने उसके यहाँ भोजन खाया है| बचपन में मैंने नौटंकी करने वालों के हाथ इकन्नी थमाई है और आज है कि यह भगवान बने बैठे हैं|

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