अबु बुशरा कासमी
समाज में इज्जत की निगाह से देखे जाने वाले जिम्मेदार लोगों की जुबान से गैर जिम्मेदाराना बयान शोभा नहीं देता है। चाहे वह सरकार में बैठा कोई मंत्री हो अथवा सामाजिक कार्यकर्ता। कुछ दिनों पहले जयपुर में एक कार्यक्रम के दौरान आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर द्वारा सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को नक्सली विचारधारा से जोड़ने के संबंध में कहे गए वक्तव्य ने खासा बवाल मचाया। सभी राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों, बुद्धिजीवी और शिक्षा जगत ने आड़े हाथों लेते हुए एक सुर में उनके बयान की कड़ी निंदा की। उनके खिलाफ जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किए गए। यहां तक कि अदालत में भी उनके विरूद्ध मुकदमा दर्ज कराया गया है। जिसमें यह कहा गया है कि रविशंकर के इस वक्तव्य से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की समाज में न सिर्फ गलत छवि प्रस्तुत हुई है बल्कि उनके आत्मविश्वाकस को भी ठेस पहुंची है। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने भी श्री श्री रविशंकर के वक्तव्य की निंदा की। हालांकि श्रीश्री ने अपनी सफाई में कहा कि मैंने यह नहीं कहा था कि सभी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे नक्सली बनते हैं बल्कि उनका इशारा केवल नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की ओर था। उन्होंने स्वयं की शिक्षा-दिक्षा सरकारी स्कूलों में होने की बात कही। श्रीश्री रविशंकर की बातों पर जिस प्रकार बवाल मचा उसे विशेष संदर्भ में देखे जाने की आवश्य्कता है।
देश में 6 से 14 वर्ष की उम्र के करीब 16 करोड़ बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। ऐसे में प्रश्न उठना स्वभाविक है कि सभी 16 करोड़ बच्चे किस प्रकार नक्सल विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं? अथवा उन्होंने किस प्रकार बाल मन को नक्सल विचारधारा से प्रेरित पाया? परंतु सच वास्तव में कड़वा होता है। बस उसे कहने के अंदाज की जरूरत है। स्कूल में जब बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं मिलेगी तो समाज में नक्सलवाद जैसी विचारधारा का बोलबाला तो बढ़ेगा ही। किसी बात को सकारात्मक ढ़ंग से लेने की अपेक्षा गलत तरीके से लेने और कहने वाले पर कीचड़ उछालने से समस्या का हल संभव नहीं हो सकता है। प्रश्नं यह उठता है कि हमारे देश में दोहरी शिक्षा व्यवस्था क्यूं चलती है जबकि प्राइवेट स्कूलो के टीचरों को सरकारी स्कूलों के टीचर की तुलना में कम वेतन दिया जाता है। इसके बावजूद अभिभावकों का रूझान निजी स्कूलों की ओर अधिक क्यूं रहता है? पैसे वाले लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों मे पढ़ाने से कतराते क्यूं हैं? किसी के बयान को निशाना बनाने से बेहतर है कि हम व्यवस्था को इस प्रकार बनाएं कि किसी को भी कुछ कहने का अवसर ही न मिले।
एक आंकड़े के अनुसार प्राइमरी और सेकेंड्री स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या के मामले में भारत विश्वक के 206 देशों में काफी निचले पायदान पर है। महिला शिक्षा के मामले में भी भारत अकेले दक्षिण एशिया के कई छोटे छोटे देशों से भी पिछड़ा हुआ है। पिछले 6 दशकों में साक्षरता की दर में भले ही वृद्धि हुई हो परंतु अब भी यह कई राज्यों में निराशाजनक स्थिति में है। देश भर में शिक्षा के हजारों केंद्र स्थापित किए गए हैं। कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। बच्चों को स्कूल के दरवाजे तक लाने और अभिभावकों में शिक्षा के प्रति आकर्शण पैदा करने के लिए दोपहर का भोजन भी दिया जा रहा है। शिक्षा को बढ़ावा देने के तमाम अभियानों के बावजूद स्थिती यह है कि हम अपने लक्ष्य से अबतक कोसों दूर हैं। क्योंकि हमारी योजना जितनी कारगर है उसे जमीन पर उतने कारगर ढ़ंग से लागू करने में कभी भी दिलचस्पी दिखाई नहीं जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की तमामतर योजनाएं किसी न किसी रूप में भ्रश्टाचार की भेंट चढ़ जाती है।
श्री श्री रविशंकर से मेरी कोई मित्रता नहीं है और न ही कभी कोई मुलाकात हुई हैं। परंतु उनके बारे में इतनी बातें अवश्यश कही जा सकती है कि देश विदेश में कई स्कूलें संचालित करने वाले व्यक्ति के दिल में शिक्षा की लचर व्यवस्था के प्रति कहीं न कहीं निराशा तो अवश्य होगी। वह इतने भी गैर जिम्मेदार नहीं है कि किसी राजनीतिक फायदा हासिल करने के लिए ऐसा बयान दिया होगा। जाहिर है ऐसा वक्तव्य देते समय उन्होंने पहले कुछ और शब्द कहें होंगे, अर्थ समझाने की कोशिश की होगी तथा बाद में भी कुछ कहा होगा। जिसे पूरा सुने और समझे बगैर हमने उसका अर्थ निकाल लिया है। एक समय के लिए यदि हम उनकी बातों को सच मान भी लें तो यह संभव नहीं है। दूसरी ओर निजी स्कूल भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। आए दिन निजी स्कूलों के बाहर अभिभावकों द्वारा स्कूल प्रबंधन की मनमानी फीस वसूलने के खिलाफ प्रदर्शन की खबरें सुनने को मिलती रहती हैं। दाग तो हर सिस्टम में है। जहां तक प्रश्नं सरकारी स्कूलों में खामियों का है तो छतीसगढ़, यूपी, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों के सरकारी स्कूलों की व्यवस्था किसी से छिपी नहीं है। जहां वर्श के 6 महीने शिक्षकों को वोटर लिस्ट तैयार करने, पोलियो ड्रॉप पिलाने और तरह तरह के रिपोर्ट तैयार करने जैसे गैर शिक्षण कार्यों में लगाए रखा जाता है। इसके अतिरिक्त जबसे मिडडे मील योजना आरंभ हुई शिक्षकों का आधा समय इसकी व्यवस्था और हिसाब किताब संभालने में ही गुजर जाता है।
दूसरी ओर शिक्षा विभाग में बैठे अफसर भी इनका जमकर शोषण करते हैं। हालत इतनी खराब है कि बगैर पैसा दिए एक शिक्षक को अपने लिए अवकाश की मंजूरी कराना, बकाया तनख्वाह पाना और अलाउंस की मंजूरी हासिल करना भी मुहाल है। महीने भर की मेहनत के बाद भी वेतन का कुछ हिस्सा चढ़ावा के रूप में देना इनकी मजबूरी है। अन्यथा ईमानदारी से कार्य करने पर भी प्रतिफल नकारात्मक ही मिलेगा। यदि कोई शिक्षक स्कूल छोड़कर अपने कार्य को पूरा करने के लिए शिक्षा विभाग के कार्यालय पहुंच गया तो फिर उसकी शामत ही समझें। ऐसी हालत में देखा जाए तो शिक्षक का पेशा अब इज्जत के काबिल नहीं रहा। एक शिक्षक नाम का शिक्षक तो अवश्यक रहता है परंतु उससे कार्य प्रतिकूल ही लिए जाते हैं। कमोबेश यह स्थिती देश के अन्य राज्यों में भी देखने को मिल जाती है। जाहिर है ऐसी परिस्थिति में जब एक शिक्षक अपने दायित्वों का पूर्ण निवर्हन नहीं कर पाता होगा तो वैसे वातावरण में शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों की मानसिकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा ही।
श्रीश्री रविशंकर का उक्त बयान इस संदर्भ में देखा जाए तो कोई गलत नहीं है। क्योंकि एयरकंडीशन कमरों में बैठने वाले लोगों के लिए हिंदुस्तान का अर्थ केवल दिल्ली होता है। उनकी दृष्टि में वह क्षेत्र नहीं होते हैं जहां इस प्रकार की स्थिती होती है। बेहतर होता कि रविशंकर की बातों पर बवाल मचाने वाले स्वयं जमीनी सच्चाई का पता लगाते। उन्हें प्रभावित क्षेत्रों में जाकर बच्चों के बीच वक्त गुजारना चाहिए ताकि उन्हें इस बात का अहसास हो कि सच्चाई वह नहीं है जो अबतक उनके मस्तिश्क में था। यह सच है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों की हालत अन्य राज्यों की अपेक्षा काफी अच्छी है। यही कारण है कि यहां के परिणाम भी अच्छे आते हैं। दिल्ली के सरकारी स्कूलों के बच्चे दसवीं और बारहवीं के परिणामों में निजी स्कूलों के बच्चों को कड़ी टक्कर देते हैं। परंतु दिल्ली और देश के अन्य दूसरे राज्यों के सरकारी स्कूलों की स्थिती में जमीन आसमान का अंतर है। सवाल यह है कि यदि सरकारी स्कूलों के परिणाम अच्छे हैं तो अभिभावक मोटी फीस देकर भी अपने बच्चों का नामांकन निजी स्कूलों में करवाने को क्यूं तैयार हैं? स्वंय सियासी लीडर अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यूं नहीं पढ़ाते हैं? जो लोग यह दावा करते हैं कि उन्होंने अपनी शिक्षा सरकारी स्कूल में ही प्राप्त की है तो क्या वह अब भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही भेजते हैं अथवा पढ़ाना पंसद करते हैं? नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की बात तो दूर इस वक्त देश के आम इलाकों के सरकारी स्कूलों की हालत भी खस्ता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रत्येक मसले का हल राजनीतिक अथवा किसी रंग में रंगने की बजाए उसे सामाजिक दृष्टिकोण से ढ़ूंढ़े। व्यवस्था में गड़बड़ी पर उंगली उठाने से कहीं बेहतर यह है कि उसका सामूहिक रूप से निराकरण पर जोर दिया जाए। (चरखा)
श्री श्री रवि शंकर के वक्तव्य को न्यायसंगत ढंग से प्रस्तुत करता अबु बुशरा कासमी का लेख, सरकारी स्कूलों की बदहाली का जिम्मेदार कौन?, निश्चित ही प्रशंसनीय है| उन्हें मेरा साधुवाद|