वास्तव में किन्नर देश के निर्माण में योगदान दे सकते हैं और एक उत्पादक शक्ति बन सकते हैं। उनकी अपनी क्षमता को एक किन्नर से बेहतर भला कोई और कैसे समझ सकता है। इसलिए उन्हें सशक्त बनाने के लिए स्वयं उनको ही नेतृत्व भी संभालना होगा।
• अमित राजपूत
किन्नरों के साथ दुनिया भर में भेदभाव होता रहा है, लेकिन जहां अन्य देशों में इन्हें समाज के अंदर कहीं न कहीं जगह मिल जाती है, वहीं दक्षिण एशिया के हालात बिल्कुल अलग हैं। 300 से 400 ईसा पूर्व में संस्कृत में लिखे गए कामसूत्र में भी स्त्री और पुरुष के अलावा एक और लिंग की बात कही गयी है। हालांकि भारत में मुगलों के राज में किन्नरों की काफी इज्जत हुआ करती थी। उन्हें राजा का क़रीबी माना जाता था। कई इतिहासकारों का यहां तक दावा है कि कई लोग अपने बच्चों को किन्नर बना दिया करते थे ताकि उन्हें राजा के पास नौकरी मिल सके।
जबकि आज के हालात ये हैं कि अभी भी किन्नरों ने वसूली को अपना कारोबार बना रखा है। आए दिन किन्नरों का अलग-अलग गुट फैक्ट्रियों से वसूली कर रहा है। किन्नरों की वसूली से उद्यमी परेशान रहते हैं। रोजमर्रा की ज़िन्दगी में किसी बस स्टॉप और ट्रेनों में इनकी यह हरकत अभी भी नहीं रुक रही है। इससे उनको निकलने की ज़रूरत है।
फिलहाल दक्षिण एशिया में किन्नरों की बात करें तो बांग्लादेश में किन्नरों की स्थिति भारत से बहुत ही बेहतर है। यहां पर उन्हें वीडियोग्राफी, सिलाई, ब्यूटी पार्लर आदि से जुड़े प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं। दो किन्नरों को तो यहां एटीएन बांग्ला मीडिया में वीडियो एडिटर के तौर पर काम मिला है। जबकि कई मेकअप आर्टस्टि हैं। अब यहां के सभी निजी क्षेत्र के लोग किन्नरो को काम पर रखना चाहते हैं। इनमें गारमेंट फ्रैक्ट्री सबसे आगे है। सरकार ने बूढ़े किन्नरों के लिए मासिक वजीफे की सुविधा दी है और उनके लिए एक खास प्रशिक्षण केंद्र शुरू किया। बांग्लादेश में करीब डेढ़ लाख किन्नर हैं।
ऐसे ही थाईलैंड की एक एयरलाइन में किन्नरों को यात्रियों की सेवा करने का अवसर दिया जा रहा है। किन्नरों को एयर होस्टेस के रूप में नौकरी पर रखा गया है। इसके लिए 100 किन्नरों ने आवेदन किया था जिसमें 4 को फ्लाइट अटेंडेंट की नौकरी मिली है।
भारत के मामले मे 1871 से पहले तक किन्नरों को ट्रांसजेंडर का अधिकार मिला हुआ था। मगर 1871 में अंग्रेज़ों ने किन्नरों को क्रिमिनल ट्राइब्स यानी जरायमपेशा जनजाति की श्रेणी में डाल दिया था। बाद में आज़ाद हिंदुस्तान का जब नया संविधान बना तो 1951 में किन्नरों को क्रिमिनल ट्राइब्स से निकाल दिया गया। फिर भी आज के परिदृश्य में यदि हम देखें तो किन्नरों की स्थिति अभी भी आमूल-चूल परिवर्तनों को छोड़कर बेहतर नहीं कही जा सकती है। हालांकि अप्रैल, 2014 में भारत की शीर्ष न्यायिक संस्था सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में पहचान दी थी। नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी (एनएएलएसए) की अर्जी पर यह फैसला सुनाया गया था। इस फैसले की ही बदौलत हर किन्नर को जन्म प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस में तीसरे लिंग के तौर पर पहचान हासिल करने का अधिकार मिला। इसका अर्थ यह हुआ कि उन्हें एक-दूसरे से शादी करने और तलाक देने का अधिकार भी मिल गया। वे बच्चों को गोद ले सकते हैं और उन्हें उत्तराधिकार कानून के तहत वारिस होने एवं अन्य अधिकार भी मिल गए। इसमें भ्रम दूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर यह भी कहा था कि एनएएलएसए का फैसला लेस्बियन, बाईसेक्सुअल्स और गे पर लागू नहीं होगा क्योंकि उन्हें तीसरे लिंग के समुदाय में शामिल नहीं किया जा सकता।
ज्ञात हो कि भारत में किन्नरों को भी सामाजिक जीवन, शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र में आज़ादी से जीने के अधिकार मिल सके इस मंशा से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने 19 जुलाई, 2016 को “ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) बिल-2016” को मंजूरी दे दी है जो सामाजिक न्याय का द्योतक है। इसके ज़रिए किन्नरों को मुख्य धारा से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। लेकिन सवाल यह है कि इसके लिए स्वयं किन्नर समुदाय कितना प्रयत्नशील हैं। क्या वह ऐसा सोचना शुरू कर पाया है कि वे जिस समाज में रहते हैं उसके लिए उन्हें कुछ बड़ा योगदान देना चाहिए। इसके बरक्स क्या समाज भी उत्साह से किन्नरों की पीड़ा को समझने का आदी हो चुका है या नहीं? जबकि सोचा यह गया था कि इससे किन्नरों को समाज और देश की मुख्यधारा से जोड़ने का काम होगा जो राज्यहित और राष्ट्रहित में होगा।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने को कहा था। अब तक कितनों को नौकरी मिल पाई है। इनके आवेदनों में ही कितनी बढ़ोत्तरी हो सकी है। इतना ही नहीं अब सरकारी दस्तावेजों में पुरुष और महिला के अलावा किन्नरों के लिये भी अलग से कॉलम दिया जा चुका है। लेकिन प्रश्न यह है कि कितनी प्रविष्टियों से अब तक ये कॉलम सुशोभित हो सके हैं। हालांकि बहुत आपेक्षित है कि अगले दशक में सरकारी व निजी संस्थानों में किन्नरकर्मी भी बड़ी मात्रा में नजर आयें।
इससे भी पहले सवाल यह है कि किन्नर शिक्षा हासिल नहीं कर पाते। बेरोजगार ही रहते हैं। मांगने के सिवाय उनके पास कोई विकल्प नहीं रहता। सामान्य लोगों के लिए उपलब्ध चिकित्सा सुविधाओं का लाभ तक नहीं उठा पाते हैं। किन्नरों में एचआईवी, मादक पदार्थों के सेवन और तनाव जैसी समस्याओं से निपटने में उनकों मदद चाहिए। हालांकि सोशल नेटवर्किंग साइट ट्विटर उन्हें इसमें कुछ मदद पहुंचा भी रहा है। यद्यपि कोर्ट ने इस मामले में सरकार को निर्देश भी जारी किए थे कि सरकार इनकी चिकित्सा समस्याओं के लिए अलग से एचआइवी सीरो सर्विलांस केंद्र स्थापित करें। इन्हें अस्पतालों में चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराए और अलग से पब्लिक टॉयलेट व अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराए।
ऐसे में सवाल यह है कि क्या किन्नरों को सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक रूप से सशक्त बनाने के लिए अब तक कोई प्रणाली विकसित हो पायी है। वास्तव में यह तभी सम्भव होगा जब वह कार्यपालिका और विधायिका में हिस्सेदारी निभाएंगे। हालांकि संविधान के जरिये यह सुनिश्चित किया जा चुका है कि प्रत्येक नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या लिंग का हो, अपनी क्षमता के अनुसार आगे बढ़ सकता है। संविधान में सभी को बराबरी का दर्जा दिया गया है और लिंग के आधार पर भेदभाव की मनाही की गयी है। लिंग के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव बराबरी के मौलिक अधिकार का हनन है। साफ है कि संविधान में बराबरी का हक देने वाले अनुच्छेद 14, 15, 16 और 21 का लिंग से कोई संबंध नहीं हैं। इसलिए ये सिर्फ स्त्री, पुरुष तक सीमित नहीं है। इनमें किन्नर भी शामिल हैं।
वास्तव में क्रियान्वयन के मामलों में केंद्र के साथ राज्य सरकारों सहित केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासनिक निकायों को यह बात समझना जरूरी है कि उन्हें किन्नरों के मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए इस ओर गम्भीरता ध्यान देने की जरूरत है। क्योंकि उपेक्षा के शिकार किन्नर आम तौर पर काफी जुझारू होते हैं और अपनी जीविका के लिये कठिन मेहनत करते हैं। वे देश के निर्माण में योगदान दे सकते हैं और एक उत्पादक शक्ति बन सकते हैं। उन्हें लिंग के आधार पर हिजड़ा कहा जाता है। लेकिन साहस के मामले में वे पुरुषों से कम नहीं होते हैं। जाहिर है उनकी अपनी क्षमता को एक किन्नर से बेहतर कोई और कैसे समझ सकता है इसलिए उन्हें सशक्त बनाने के लिए उनमें से ही किसी को नेतृत्व भी संभालना होगा।
बीते सिंहस्थ महाकुंभ में देश का पहला किन्नर अखाड़ा तैयार हुआ, यह परिवर्तन के एक स्तम्भ जैसा है। ऐसे ही किन्नरों की कारगर बेहतरी के लिए आवश्यक है कि उन्हें फिलहाल कार्यपालिका में स्थान दिया जाये। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 6 लाख किन्नर हैं। हालांकि इसकी वास्तविक स्थिति वर्तमान में 6-10 लाख है। इसके अलावा देश में हर साल किन्नरों की संख्या में 40-50 हज़ार की वृद्धि भी होती है। ऐसे में इस बड़े समुदाय के नेतृत्व और उनके ज़मीनी परिवर्तन के लिए ज़रूर है कि इन्ही के बीच से ही योग्य को इनका नेतृत्व करना चाहिए। इसके लिए किन्नर समुदाय को मतदान में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी लेने की ज़रूरत है।
वैसे तो चुनाव आयोग ने वर्ष 2012 में ही किन्नरों और ट्रांससेक्सुअल लोगों के लिए एक अलग वर्ग तैयार कर दिया था। ऐसे लोगों के लिए चुनाव प्रक्रिया के दस्तावेजों में अब मेल, फीमेल के अलावा ‘अन्य’ का विकल्प है। चुनाव आयोग के मुताबिक ‘अन्य’ यानी ‘ओ’ वाला विकल्प किन्नरों और ट्रांससेक्सुअल लोगों के लिए बनाया गया है। इसमें पहले कुछ बदलाव देखे भी जा चुके हैं। किन्नरों की दुनिया से लोग आगे निकल रहे हैं और कुछ राज्यों में तो उन्होंने सक्रिय राजनीति में कामयाबी भी पायी है। शबनम मौसी मध्य प्रदेश में विधायक भी चुनी जा चुकी हैं।
आने वाले साल में देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। देश किन्नरों की ऊर्जा और एकजुटता से परिचित है। इंतज़ार इस बात का है कि इन पांच राज्यों में वह किस रूप में देश के समक्ष होंगे, ख़ासकर यूपी में। देखना दिलचस्प होगा कि बदलाव और बेहतरी के इस ‘धर्मयुद्ध’ में आख़िर परिवर्तन का पाञ्यजन्य पहले कौन फूंकेगा।
आज के विज्ञानं के युग में जहाँ एक स्त्री अथवा पुरुष चिकित्सा की सहायता से अपना लिंग परिवर्तन करा सकते हैं तो क्या किन्नर अथवा उभयलिंगी या ट्रांसेक्सयुअल का चिकित्सा के द्वारा उनकी इच्छानुसार लिंग परिवर्तित नहीं किया जा सकता है? जिससे वो भी एक सामान्यजीवन जी सकेंगे!