उत्तर आधुनिक आंदोलन क्‍यों असरहीन हो जाते हैं

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

यह आयरनी है कि जिस आंदोलन के लिए लोग पागलपन की हद तक दीवाने थे, गलियों-मुहल्लों में वैचारिक मुठभेड़ें हो रही थीं और चारों ओर लग रहा था कि यह आंदोलन मूलगामी परिवर्तनों का वाहक बनेगा। एक अवधि के बाद पाते हैं कि वही आंदोलन और उससे जुड़ा विचार गायब है.मेरा संकेत रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद आदि विषयों को लेकर उठे उत्तर आधुनिक आंदोलनों की ओर है।

आरएसएस जैसा अनुशासित संगठन जिस आंदोलन का आधार हो और संगठित कार्यकर्ताओं की जिसके पास फौज हो, ऐसी फौज जो कभी भी कुछ भी कर सकती हो, ऐसे नेता जो सोई हुई जनता को जगा सकते हों। जिनके पास हिन्दुत्व का प्रखर विचार हो। अकाट्य तर्कप्रणाली हो। हिन्दुत्व पर जान देने वालों की पागलों जैसी संगठित शक्ति हो। ऐसे आंदोलन जब गायब हो जाते हैं तो सोचने के लिए बाध्य होना होता है कि उत्तर प्रदेश और देश में यह आंदोलन कहां गुम हो गया? सारे देश में हिन्दुत्व और राममंदिर का बिगुल बजाने वाले संत-महंत-तोगडिया-आडवाणी-अटलजी जैसे नेता कहां गायब हो गए?

मूल सवाल यह है कि राममंदिर या उसके जैसे उत्तर आधुनिक आंदोलनों का अंत कैसे हो जाता है? कल तक जो जनांदोलन लग रहा था वह अचानक कहां गायब हो गया? जो विचार कल तक भौतिक शक्ति नजर आ रहा था अचानक मुर्दा विचार में तब्दील कैसे हो गया? क्या जे.पी. आंदोलन में कम ऊर्जा थी? लेकिन वह भी गायब हो गया। पंजाब के सिख राज्य के आतंकी आंदोलन, असम के छात्र आंदोलन, मेधा पाटकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन, चंड़ीभट्ट के उत्तराखंड़ में चले पेड़ बचाओ-पहाड़ बचाओ आदि आंदोलन कहां गायब हो गए? इनके साथ जुड़े विचार क्यों असरहीन हो गए?

ये सब उत्तर आधुनिक आंदोलन हैं। उत्तर आधुनिक आंदोलनों के नायक और उनके विचार जीते जी क्यों निरर्थक हो जाते है? क्या इन आंदोलनों से जुड़े लोग कभी गंभीरता के साथ इनके जबाब देंगे?

क्या अमेरिका-इस्राइल के अंधभक्त बताएंगे कि उनके आतंकवाद विरोधी आंदोलन को सारी दुनिया की जनता में लगातार अलगाव क्यों झेलना पड़ रहा है। इराक में सद्दाम हुसैन के खिलाफ सारी दुनिया के मीडिया और सेना की शक्ति झोंकने के बाबजूद इराक की जनता का दिल जीतने में अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्र असफल क्यों रहे हैं? इराक पर हमला करने पक्ष में दिए गए उनके सारे दावे और प्रमाण क्यों गलत साबित हुए हैं? क्या वजह है कि अफगानिस्तान और इराक की जनता का विश्वास जीतने में अमेरिका असफल रहा है, उसके सैन्य मिशन असफल रहे हैं।

सारी दुनिया में समाजवादी व्यवस्था को गिराकर ग्लोबलाईजेशन के नाम पर खुशहाली का नारा अब अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। उत्तर आधुनिक सपने क्यों बिखर गए? आज इन आंदोलनों की धारणाएं गलत लग रही हैं और इनके विचार बिखर चुके हैं। क्या कोई वामपंथी आलोचक बताएगा कि उत्तर आधुनिक आंदोलन क्यों गायब हो गया? ये सभी आंदोलन सिर्फ पुरातात्विक महत्व के होकर रह गए हैं।

आज उत्तर आधुनिक आंदोलनों की भाषा मर गयी है। उसके विचार भी मर गए हैं। उत्तर आधुनिक आंदोलनों की भाषा अब अटपटी लगने लगी है। ऐसा क्यों हुआ कि अधिकांश उत्तर आधुनिक आंदोलन दक्षिणपंथी राजनीति की ओर ही अंततः चले गए। कुछ ऐसे सिर फिरे भी हैं जो माओवाद के नाम क्रांति की तलाश करते हुए क्रांति की डाल को ही काट रहे हैं और अपने युग के कालिदास बने बैठे हैं।

उत्तर आधुनिक आंदोलन कालिदासों का आंदोलन था। वे कालिदास की तरह जिस ड़ाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे। थोड़ा और विवाद को आगे बढ़ाएं और सोचें कि हाशिए और केन्द्र के संघर्ष का क्या हुआ? व्यवस्था को चुनौती देने वाली शक्तियां कहां चली गयीं? हाशिए के लोगों को आरक्षण मिल गया, उन्होंने जश्न मनाया, लेकिन विषमता का क्या हुआ? विषमता घटने की बजाय क्यों बढ़ती चली गयी? यदि ग्लोबलाईजेशन से सारी जनता को लाभ मिलता है, हाशिए के लोग सबसे ज्यादा लाभान्वित होते हैं, तो आरक्षित जातियां अभी भी पिछड़ी क्यों हैं? अधिकांश इलाकों में सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक वैषम्य और भी क्यों बढ़ा है? जो लोग अल्पसंख्यकों की हिमायत करते थे और जो बहुसंख्यकों की हिमायत करते थे वे इन दोनों समुदायों में विषमता कम करने में असफल क्यों हुए हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि जो आंदोलन कभी व्यापक, केंद्रीय तथा सृजनात्मक था वह अब कुल मिलाकर सक्रिय नहीं रहा। कल तक जो आंदोलन और उसकी धारणाएं प्रासंगिक थी अब निरर्थक हो गयी हैं। अब वे विरोधाभासी लगने लगी हैं। यही उत्तर आधुनिकता के अंत की घोषणा है। वह दूसरों को नष्ट करते-करते स्वयं को ही नष्ट कर बैठा।

3 COMMENTS

  1. जरा अगस्त २०१० तक क तो इनतजार करिये महोदय,फ़िर अपकि यह शिकयत भी दूर कर देन्गे.वेसे अपको सामाजीक समरसता के विशय को लेकर २००६-०७ मे चले सन्घ के अन्दोलन के बारे मे पत हि होगा???या राम सेतु को तोडने कि कोशिश के खिलाफ़ देश भर मे हुवे बन्द का या अमरनाथ क आन्दोलन य वर्त्मान कि गौ ग्रम यत्रा क अन्दोलन पता होगा ना???

  2. यदि उत्तर आधुनिकता के तत्संबंधी फलितार्थ इस नजरिये से आकलित किये जायेंगे तो वर्ग संघर्ष के लिए वातावरण अनुकूल होना चाहिए. एतिहासिक द्वंदात्मकता के भौतिकवादी विवेचन में उत्पादक शक्तियों और उत्पादन के संसाधनों की अंतर्सम्बद्धता ही किसी विचार या जनांदोलन के अवसान का निरूपण कर सकती है .वर्तमान में फासिस्ट और पूंजीवादी ताकतें एक दुसरे की पूरक बन चुकी हैं .यदि मंदिर मंडल कमंडल व्यक्तिवाद और जातिवाद के आन्दोलन की स्वाभाविक परिणिति राजसत्ता है.ओर वह कमोवेश इन आन्दोलनों को पयपान करा रही है तब वे रूप आकर में भले ही असफल दिखाई दें किन्तु वस्तुत वे और ज्यादा मानवताविरोधी बनकर भस्मासुर होने की और अग्रसर हैं.

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