धृतराष्ट्र उवाच से भगवतगीता की शुरुआत क्यो?

        सनातन धर्म और संस्कृति में श्रीमदभगवत गीता का अत्यन्त विशिष्ट महत्त्व है, कारण गीता एक मात्र साक्ष्य है जो महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण के मुखारबिन्द से मोहग्रसित हुये अर्जुन के सभी संदेहों से मुक्त करने हेतु उदभूत हुई है। श्रीमदभगवतगीता का महत्व इसलिए सबसे ज्यादा है क्योकि गीता का पहला ही शब्द है धृष्टराष्ट्र उवाच अर्थात हस्तिनापुर साम्राज्य के कर्णधार चक्रव्रती सम्राट राजा धृष्टराष्ट्र जो जन्म से नेत्रहीन है साथ ही अपने आध्यात्मिक ज्ञान विवेक के प्रज्ञाचक्षु को अपनी ममता के वशीभूत कर कुरुवंश का ही हित साधने में पांडवों के साथ अन्याय, अधर्म, अनीति ओर छल प्रपंच पर मुक बने देखते रहे ओर भगवान श्रीकृष्ण के समझाने ओर हड़पे गए पांडवो के राज्य के स्थान पर पाँच गाँव दिये जाने के शांति प्रस्ताव के अंतिम प्रयास को भी ठूकुराने के बाद के निर्मित परिणाम महायुद्ध को स्वीकारने के पश्चात धर्मक्षैत्र  कुरुक्षेत्र मै युद्धके लिये कौरवों और पाण्डवोंकी सेनाएँ भयानक अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित होकर खड़ी थीं, तब बोले इसके पहले वे बोले ही नही। युद्धभूमि का सारा वृतांत वह अपने महल में बैठकर दिव्यचक्षु प्राप्त संजय की आँखों से देखा सुन रहे थे। अभी युद्ध शुरू नहीं हुआ है लेकिन युद्ध करने दोनों सेनाए मैदान पर खड़ी है तभी राजा धृष्टराष्ट्र प्रश्न करता है, हे संजय- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।’ जब भी में गीता पाठ करता हूँ तब शुरुआत का यह प्रश्न मेरे मस्तिष्क को झकझोरता है, क्या कारण है की महर्षि वेदव्यास जी ने महाभारत में समाहित श्रीमद भागवत गीता के ज्ञानामृत के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में हस्तिनापुर के अंधे राजा के अंधे प्रश्न से ही इसकी शुरुआत की है, इसका क्या कारण हो सकता है, बस में इसका उत्तर तलाशने जुट जाता हूँ।   

      मानव इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ता का शुभारंभ महाभारत जैसे भीषण महायुद्ध से पूर्व घटित हुई जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने परम सखा ,भक्त अर्जुन को भगवतगीता का उपदेश दे रहे है जिसका पहला ही शब्द धृष्टराष्ट्र बोला यानि धृष्टराष्ट्र ने प्रश्न किया? हे संजय- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।’  इस प्रश्न के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित होता है कि “जब धृतराष्ट्र की अन्तःप्रेरणा से ही कोरव युद्ध में प्रवृत्त हुए थे. ओर जानते थे कि कुरुक्षेत्र में जाकर वे युद्ध करेंगे तो फिर जानते हुए भी धृतराष्ट्र ने- “किमकुर्वत? ये प्रश्न क्यों किया ?”  यही प्रश्न गीता पाठ करने वाले प्रत्येक सुधिजन का हो सकता है। सामान्य दृष्टि से विचार किया जा सकता है कि “किमकुर्वत” का अभिप्राय युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि “धृतराष्ट्र ने सञ्जय से पूछा कि मोर्चाबन्दी होने के बाद युद्ध कैसे शुरू हुआ , किसकी ओर से प्रहार आरम्भ हुआ, जिसमें कितनी उत्तेजना थी, किस बीर में कितना उत्साह था ? कौरव सेनापति भीष्म का कैसा रुख था”? राजनीतिज्ञ घृतराष्ट इन परिस्थितियों को जानने के बाद जय पराजय का अनुमान लगाने को उत्सुक था। यदि अन्तदृष्टि से विचार किया जाता है तो उक्त प्रश्न के सम्बन्ध में हम निर्णय पर पहुंचते हैं कि “किमकुर्वत” ये अक्षर क्षोम के सूचक हैं। यही क्षोभ कौरवों के पराजय का घोतक है।

       धृतराष्ट्र जानता था कि यह राज सिंहासन उसके चचेरे भाई पांडु का है जिसकी अल्पायु में मृत्यु हो जाने पर उस राज को उसके पांचों पुत्रो के वयस्क हो जाने पर उन्हें यह सिंहासन उन्हें लौटना है किन्तु वह अपने पुत्र दुर्योधन के साथ मिलकर उनकी हत्या करने के षड्यंत्र में शामिल रहा ताकि राज्य के उत्तराधिकारी कि मौत के बाद वह राज कर सके। राष्ट्र के कर्णधार धृतराष्ट्र की परिस्थिति कुछ और ही थी। वे जानते थे कि मेरे पुत्र धर्म-दृष्टि से युद्ध में प्रवृत्त नहीं हो रहे, जबकि पांडव पुत्र भगवान श्रीकृष्ण कि छत्रछाया में धर्म में ही प्रवृत्त है। जो धर्म के साथ है तथा धार्मिक है उसके हृदय में कभी “क्या हुआ, क्या किया,  क्या होगा” ऐसे संदिग्ध भावों को आश्रय नहीं मिलता। उसका तो एक- मात्र – “यदि जीत गए तो न्याय प्राप्त सत्ता  का उपभोग करेंगे, मारे गए तो अभ्युदय के अधिकारी बनेंगे” यही लक्ष्य रहता है। धृतराष्ट्र यह भी जानते थे कि कुरुक्षेत्र एक धर्मभूमि है, पवित्र भूमि है, देवभूमि है। इस भूमि में धार्मिक योद्धाओं को ही विजयश्री मिल सकती है।

       बस इन्हीं सब कारणों से धृतराष्ट्र का हृदय भावी परिणाम से क्षुब्ध था। क्षुब्ध मनुष्य के मुख से ही “अरे बतलाओ क्या किया, क्या होगा, कौन जीतेगा” ऐसे अक्षर निकला करते हैं। साथ ही में यह भी निश्चित बात है कि जिसके हृदय में आरंभ से ही ऐसा क्षोभ खड़ा हो जाता है, यह कभी विजयधी लाभ नहीं कर सकता। उसकी पराजय अवश्यम्भावी है। इसी पराजय को सूचित करने के लिए महर्षि वेदव्यास ने घृतराष्ट्र के मुख से “किमकुर्वतः ये अक्षर कहलवाए हैं। यह युद्धभूमि धर्म क्षैत्र है, यहाँ धर्मात्मा की विजय होगी। पापात्मा कौरवों का क्षय होगा। यही सूचित करने के लिए “कुरुक्षेत्रे” के साथ “धर्मक्षेत्रे” का सम्बन्ध किया जाना प्रतीत होता है।  “युद्ध का क्या परिणाम होगा” यह  जिज्ञासा उस व्यक्ति के हृदय में विशेष रूप रूप से जागृत रहती है, जो स्वयं तटस्थ रहता हुआ  भी युद्ध का बीजारोपण करता है। कौरववंश के सर्वेसर्वा इतिहासप्रसिद्ध वृद्ध घृतराष्ट्र उन्हीं व्यक्तियों में से एक थे। महाभारत समर के अन्तः प्रवर्तक यही थे तो युद्ध के फलाफल की जिज्ञासा ओरों की अपेक्षा इन्हीं में अधिक होनी चाहिए थी। यही बात सूचित करने के लिए इतिहासप्रसिद्ध युद्ध की आरम्भ की भूमिका में व्यासदेव को धृतराष्ट्र उवाच” यह कहना पड़ा है। कुरु- राष्ट्र का सारा भार इन्हीं पर था। राष्ट्र के हानि-लाभ के जिम्मेदार यही थे। भला राष्ट्र को धारण करने वाले धृतराष्ट्र के अतिरिक्त ओर किसे युद्ध के भावी परिणाम की विशेष चिंता हो सकती थी? इसी चिन्ता से क्षुब्ध बने हुए धृतराष्ट्र व्यासदेव की कृपा से दिव्यदृष्टि प्राप्त, युद्ध-वर्णन के लिए व्यासदेव की ओर से नियत सञ्जय से पूछने लगे कि बतलाओ सञ्जय युद्ध की इक्छा  से समवेत मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया ?

         धृतराष्ट्र बुद्धिमान थे. विद्वान थे, वृद्ध थे सबके पूज्य थे। फिर उनमें यह अविद्या आई कैसे? उन्होंने सब कुछ जानते हुए, देखते हुए भी कौरवों को इस अधर्म युद्ध के लिए अनुमति कैसे दे दी ? इसी प्रश्न का समाधान करने के लिए ब्यास जी  को “मामकाः-पाण्डुपुत्राश्च” यह कहना पड़ा। कलह का मूलमूत्र “यह मेरा, यह तेरा यही वाक्य है। ममत्व ही वैभव के नाश का कारण है। हम सांसारिक विषयों के साथ, पुत्र पौत्रदि के साथ जितनी ममता बढ़ाते जायेंगे, उतने ही अधिक मोहपाश में फंसते जायेंगे। घृतराष्ट्र की बुद्धि का व्यामोह इसी ममता ने किया। उसे अपने पुत्रों के प्रति प्रेम राग  उत्पन हुआ, इस राग की कृपा से पाण्डुपुत्रों के प्रति द्वेष उत्पन्न हुआ। इसी रागद्वेषजनित आसक्ति ने युद्ध का बीजारोपण किया। यदि यह समझते कि पाण्डव भी मेरे ही हैं, एक ही सूत्र के दो धागे हैं, तो कभी युद्ध का प्रवसर न आता। यदि यह समझते कि न्यायतः दोनों ही कुरुसाम्राज्य के भोक्ता हैं तो कभी कलह का उदय न होता, परन्तु जब इनके हृदय में- “ये मेरे हैं, ये पराए हैं” यह प्रतिद्वन्द्वीभाव उत्पन्न हुआ तो ऐसी परिस्थिति में द्वन्द्व (युद्ध) होना अनिवार्य था। यही ममता, युद्धानुमति प्रदान कारण बनी। साथ ही में इसी ममता ने घृतराष्ट्र के हृदय में “किमकुर्वत” इत्यादिलक्षण क्षोभ उत्पन्न किया। यही क्षोभ कौरवों के पराजय का कारण बना ।

आत्माराम यादव पीव

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