सुबह-सुबह से चें-चें चूँ-चूँ,
खपरैलों पर शोर मचाती।
मुर्गों की तो याद नहीं है,
गौरैया थी मुझे जगाती।
चहंग-चंहंग छप्पर पर करती,
शोर मचाती थी आँगन में।
उस की चपल चंचला चितवन,
अब तक बसी हुई जेहन में।
उठ जा लल्ला, प्यारे पुतरा,
ऐसा कहकर मुझे उठाती।
आँगन के दरवाज़े से ही,
भीतर आती कूद-कूद कर।
ढूँढ-ढूँढ कर चुनके दाने,
मुँह में भरती झपट-झपट कर।
कभी मटकती कभी लपकती,
कत्थक जैसा नाच दिखाती।
आँखों में तुम बसी अभी तक,
पता नहीं कब वापस आओ।
मोबाइल पर बात करो या,
लेंड लाइन पर फोन लगाओ।
किसी कबूतर के हाथों से,
चिट्ठी भी तो नहीं भिजाती।
तुम्हीं बताओ अब गौरैया,
कैसे तुम वापस आओगी।
छत, मुंडेर, खपरैलों पर तुम,
फिर मीठे गाने गाओगी।
चुपके से कानों में आकर,
बात मुझे क्यों नहीं बताती ?