हिंदी की वैश्विक स्वीकार्यता के बावजूद देश में उपेक्षा क्यों?

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हिंदी दिवस- 14 सितम्बर, 2025

  • ललित गर्ग –

हिंदी दिवस केवल एक औपचारिक आयोजनात्मक अवसर नहीं, बल्कि हमारी भाषाई अस्मिता राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक आत्मगौरव का प्रयोजनात्मक प्रतीक है। विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली तीसरी भाषा के रूप में हिंदी विश्व की उन चुनिंदा भाषाओं में से एक है जिसे करोड़ों लोग अपनी मातृभाषा, संपर्क भाषा और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम मानते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ सहित अनेक वैश्विक मंचों पर हिंदी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। दुनिया के लगभग 180 देशों में हिंदी बोलने वाले हैं और अंग्रेज़ी, मंदारिन, स्पेनिश, अरबी जैसी भाषाओं की सूची में हिंदी भी अब शीर्ष स्थानों पर दर्ज है। फिर भी विडंबना यह है कि अपने ही देश में हिंदी को कई बार विरोध का सामना करना पड़ता है। दक्षिण भारत और पूर्वाेत्तर के कुछ हिस्सों में क्षेत्रीय अस्मिता और भाषाई विविधता के नाम पर हिंदी के प्रति असहजता दिखाई जाती है। जबकि वस्तुतः हिंदी किसी भी क्षेत्रीय भाषा की प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उन्हें जोड़ने वाली संपर्क-भाषा है। भारत की भाषाई संरचना में हिंदी एक केंद्रीय सूत्र की तरह है। यदि अंग्रेज़ी को शिक्षा, प्रशासन और तकनीकी का आधार बनाया जा सकता है, तो हिंदी का विरोध केवल मानसिक दासता का परिणाम माना जा सकता है।
आज वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो जापान ने जापानी, फ्रांस ने फ्रेंच, चीन ने मंदारिन और जर्मनी ने जर्मन को आधुनिक विज्ञान, तकनीक और व्यापार की भाषा बनाया है। ये देश अपनी भाषाओं को वैश्विक बनाते हुए भी अन्य भाषाओं से संवाद स्थापित करते हैं। जबकि भारत में अभी भी अंग्रेज़ी के प्रति अनावश्यक मोह और हिंदी के प्रति हीनभावना देखने को मिलती है। यह स्थिति हिंदी की उपयोगिता और सामर्थ्य के विपरीत है। हिंदी न केवल साहित्य और संस्कृति की भाषा है बल्कि विज्ञान, सूचना प्रौद्योगिकी, मीडिया, सिनेमा और व्यापार में भी अपनी जगह बना रही है। इंटरनेट पर हिंदी का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है। गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों ने हिंदी को अपने प्लेटफॉर्म पर प्राथमिक भाषा का स्थान दिया है। यह हिंदी की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता का प्रमाण है।
हिंदी की प्रासंगिकता आज के समय में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यह केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि भारतीयता की पहचान है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की भूमिका भारत को एकजुट करने और विश्व-पटल पर उसकी सांस्कृतिक छवि को मजबूत करने में अनिवार्य है। भाषा केवल बोलचाल का साधन नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता का भी आधार है। इसलिए हिंदी का विरोध करना अपने ही सांस्कृतिक आधार को कमजोर करना है। विश्व के 180 से अधिक देशों में हिंदी भाषी लोग रहते हैं और अमेरिका, कनाडा, मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी, खाड़ी देशों व यूरोप में हिंदी शिक्षण संस्थान स्थापित हैं। इंटरनेट की भाषा के रूप में हिंदी दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी भाषा बन चुकी है। यह वह स्थिति है जिसकी कल्पना दशकों पहले असंभव मानी जाती थी। लेकिन हिंदी की यह ख्याति केवल आज की तकनीकी क्रांति का परिणाम नहीं है, यह हमारी जड़ों में, संस्कारों में एवं राष्ट्रीयता की भावना में समायी हुई है।
स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदी ने राष्ट्र को जोड़ने, जन-जन को जागृत करने और अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चेतना जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। महात्मा गांधी ने हिंदी को “जनमानस की भाषा” और “राष्ट्रभाषा” कहा। लोकमान्य तिलक, पं. नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे, सुभाषचंद्र बोस और सरदार पटेल सभी ने हिंदी को राष्ट्रीय एकता का सूत्रधार माना। हिंदी प्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम की लौ प्रज्वलित की। ‘प्रताप’, ‘अभ्युदय’, ‘कर्मवीर’, ‘सरस्वती’ जैसी पत्रिकाओं ने जनजागरण का काम किया। कवियों और लेखकों ने अपनी रचनाओं से जनमानस को ऊर्जा दी-भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक, सबने हिंदी को स्वतंत्रता संग्राम का शस्त्र बनाया। स्वतंत्रता के बाद से लेकर आज तक अनेक नेताओं ने हिंदी के उत्थान और प्रतिष्ठा के लिए उल्लेखनीय प्रयास किए हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देकर विश्व स्तर पर हिंदी की पहचान को सशक्त किया और यह संदेश दिया कि हिंदी अंतरराष्ट्रीय संवाद की भी भाषा बन सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अनेक वैश्विक मंचों-ब्रिक्स सम्मेलन से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक, पर हिंदी में अपने वक्तव्य देकर हिंदी को अंतरराष्ट्रीय सम्मान दिलाया है। उनके प्रयासों से संयुक्त राष्ट्र में हिंदी विभाग का विस्तार हुआ और हिंदी समाचार बुलेटिन व डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर हिंदी का प्रसार बढ़ा।
आज वैश्विक स्तर पर भी हिंदी की उपस्थिति लगातार मजबूत हो रही है। डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर हिंदी सामग्री का उपयोग प्रतिदिन बढ़ रहा है। अमेज़न प्राइम, नेटफ्लिक्स जैसी वैश्विक कंपनियां हिंदी कंटेंट को प्राथमिकता दे रही हैं। यूनेस्को और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में हिंदी का अनुवाद और प्रयोग बढ़ा है। अंग्रेजी के प्रति अंधमोह और हिंदी के प्रति हिचक एवं उपेक्षा एक प्रकार की मानसिक गुलामी का ही प्रतीक है। भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में हिंदी का महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि यह एक साझा संवाद का सबसे सशक्त माध्यम है। हिंदी दिवस हमें यह स्मरण कराता है कि हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा और आधुनिक भारत की पहचान है।
भारत से ठीक दो वर्ष पहले 17 अगस्त 1945 को इंडोनेशिया डच शासन से मुक्त हुआ और अपनी भाषा ‘बहासा इंडोनेशिया’ को राष्ट्रभाषा के रूप में लागू कर दिया। कुछ इसी तरह 23 अक्टूबर 1923 को जब आधुनिक तुर्की गणराज्य की स्थापना हुई, तो तत्काल तुर्की भाषा को राजकाज की भाषा के रूप में लागू कर दिया। लेकिन भारत में राजनीति की दूषित एवं संकीर्ण-स्वार्थी सोच का परिणाम है कि हिन्दी को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह स्थान एवं सम्मान राष्ट्र में अंग्रेजी को मिल रहा है। भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में विश्व हिन्दी दिवस मनाया जाने लगा क्योंकि भारत और अन्य देशों में 120 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। पाकिस्तान की तो अधिकांश आबादी हिंदी बोलती व समझती है। बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, अफगानिस्तान में भी लाखों लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। फिजी, सुरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे देश तो हिंदी भाषियों द्वारा ही बसाए गये हैं। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी भारत में प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों?
भारत का परिपक्व लोकतंत्र, प्राचीन सभ्यता, समृद्ध संस्कृति तथा अनूठा संविधान विश्व भर में एक उच्च स्थान रखता है, उसी तरह भारत की गरिमा एवं गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा हिन्दी को हर कीमत पर विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में स्कूलों, कॉलेजों, अदालतों, सरकारी कार्यालयों और सचिवालयों में कामकाज एवं लोकव्यवहार की भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। हिन्दी को सम्मान एवं सुदृढ़ता दिलाने के लिये केन्द्र सरकार के साथ-साथ प्रांतों की सरकारों को संकल्पित होना ही होगा। हाल में महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं तमिलनाडू में हिन्दी विरोध की स्थितियां उग्र बनी। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी इन राज्यों में इसकी इतनी उपेक्षा क्यों? क्षेत्रीय भाषा के नाम पर हिन्दी की अवमानना एवं उपेक्षा के दृश्य उभरते रहे हैं, लेकिन प्रश्न है कि हिन्दी को इन जटिल स्थितियों में कैसे राष्ट्रीय गौरव प्राप्त होगा। दरअसल बाजार और रोजगार की बड़ी संभावनाओं के बीच हिंदी विरोध की राजनीति को अब उतना महत्व नहीं मिलता, क्योंकि लोग हिंदी की ताकत को समझते हैं। पहले की तरह उन्हें हिंदी विरोध के नाम पर बरगलाया नहीं जा सकता।
हिन्दी भाषा का मामला भावुकता का नहीं, ठोस यथार्थ का है, राष्ट्रीयता का है। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से आक्सीजन लेने वाले दल एवं नेता भी अंग्रेजी में दहाड़ते देखे गये हैं। राजनेता बात हिन्दी की करते हैं, पर उनका दिमाग अंग्रेजीपरस्त है, क्या यह अन्तर्विरोध नहीं है? हिन्दी को वोट मांगने और अंग्रेजी को राज करने की भाषा बनाना हमारी राष्ट्रीयता का अपमान नहीं हैं।

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