घास की रोटी आदिवासियों के हिस्से में ही क्यों?

-अशोक मालवीय

इन दिनों मध्यप्रदेश के अखबारों की सुर्खियों में खबर हैं कि ”घास की रोटी खा रहे है आदिवासी” यह खबर ने तूल पकड़ा हैं रायसेन जिले की सिलवानी तहसील के आदिवासी बाहुल्य ग्राम गजनई से यहां पर आदिवासी समुदाय भुखमरी से लड़ने के लिये घास की रोटी खा-खाकर जिन्दा है। यह उस प्रजाति की घास हैं, जिसे जानवर भी नहीं खाते है। भाजपा की वरिष्ठ नेत्री सुषमा स्वराज के संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आता है और प्रदेश में भाजपा की सरकार है। मजेदार बात हैं कि वजह से इस खबर ने राजनैनिक रूप ले लिया है, और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी ने इस गांव के आदिवासियों की इस स्थिति के लिये प्रदेश की भाजपा सरकार को शर्म से डूबने को कहा है। और इस मामले की एक उच्चस्तरीय जांच की मांग की गई है। हमारे देश के कर्णधार के लिये ऐसी घटनाओं व खबरों को सिर्फ एक-दूसरे पर राजनैतिक मुद्दा बनानकर उसे उछालने के अलावा और कुछ नहीं समझते है। इन्हें नहीं मालूम की सिर्फ गजनई गांव के आदिवासी की यह स्थिति नहीं हैं बल्कि प्रदेश के अधिकतर आदिवासी भुखमरी की आग में तप-तप का मौत से भयानक जिन्दगी जीने पर मजबूर है। आदिवासी की भुख के पीछे सिर्फ वर्तमान के कोई छोटे मोटे व राजनैतिक कारण ही नहीं हैं। सत्ता के खिलाड़ियों को सिर्फ इन आदिवासियों की भुख व मौत को राजनैतिक खेल की चालों से इन जैसे भुख से तड़पते लोगों का कुछ नहीं होने वाला है। अगर इन्हें वास्तव में इनकी चिन्ता है तो संवेदनषीलता के साथ इनके इस दर्द के पीछे के कारणों को जानना चाहिये, आखिर वास्वत में हैं क्या?? ताकि आदिवासी आबादी को जिन्दा रखने के लिये कोई ठोस कदम कदम उठा सके।

भोजन ना मिलने पर घास की रोटी खाना सिर्फ गजनई गांव के आदिवासी की बात ही नहीं हैं, इस समय भुखमरी देश-दुनिया का प्रमुख चिन्ता का विषय बना हुआ हैं, मध्यप्रदेश में लगभग 20 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासी की है, अगर इन्हें देखें तो समझ आता है कि, इनके लिये ना भोजन है, ना रोजगार हैं, ना षिक्षा हैं, ना स्वास्थ्य है, ना निवास स्थान है, ऐसी स्थिति में घास-पूस खाना इनकी मजबूरी हैं, कोई रूचि नहीं!! जब भुखमरी व कुपोषण के आंकड़ों व घटनाओं पर ध्यान देते है, तो प्रदेश के अधिकतर आदिवासी अपने पेट की आग बुझाने में असहाय पाते है। और इस आग में तड़प-तड़पकर मौत के मुॅह में समा जाते है। मध्यप्रदेश कुपोषण की चपेट में है, कुपोषण से होने वाली मौतों में अधिकांश आदिवासी व दलित समुदाय के बच्चें होते है। एनएफएचएस-3 की रिपोर्ट इस तथ्य को साबित करने में काफी है की प्रदेश में 3 साल तक के बच्चों की संख्या 1998-99 में 53.5 फीसदी थी जो की 2005-06 में बढ़कर 60.3 फीसदी हो गई हैं। ये वे बच्चे हैं जिन्हें बचाया जा सकता था। आदिवासी समुदाय को दाने-दाने के लिये मोहताज होने का यह रूप देश के आर्थिक विकास की तस्वीर दिखाने वाले नुमांईदों को शर्मसार करने के लिये काफी है। तेज आर्थिक विकास के दावों के बीच भुख और कुपोषण से मौते हमारी चिंता का सबब है। एक तरह से यह शर्म का विषय है कि आजादी के छ दशक बाद भी लोग भूख और कुपोषण से दम तोड़ रहे है।

आखिर इतनी भयानक कुपोषण व भुखमरी आदिवासी इलाकों में ही देखने को क्यों मिलती है? आज यह एक चिन्ता का विषय हैं। आदिवासी आदिकाल से जंगलों में रहते रहे है, यहीं उनकी संस्कृति, परम्परा हैं और उनकी जिन्दगी है। यहीं लोग जंगल व अन्य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करते हुये अपनी आजीविका भी चलाते हैं। लेकिन सरकार, उनके कानून व वनविभाग ने धीरे-धीरे करके इन आदिवासियों की मुँह से निवाला भी छीन लिया हैं। जंगलों में तैनातियों द्वारा यहां से इन्हें मिलने वाली लद्युवनोपज लेने से रोक लगाने पर इनकी थाली सूनी हो गई है। दूसरा विकास के नाम पर तमाम बड़ी-बडी परियोजनाऐं आदिवासी इलाकों में ही स्थापित की जाती रही है। और जिन क्षेत्रों में इन परियोजनाओं को लाया जाता है वहां से इन आदिवासियों को खदेड़ कर भगा दिया जाता हैं। ना ही इनके पुर्नवास की कोई व्यवस्था की जाती है। बल्कि इन्हें शहर-कस्बों और जंगलों से दूर रहने पर विवश कर दिया जाता है। वहां यह लोग भुख में तड़ते हुये तमाम बीमारियों की चपेट में आने से मौत की आगोश में समा जाते है। इन भगाये गये आदिवासियों की यह स्थिति हैं तो इनके बच्चों का कुपोषित तथा महिलाओं में बीमार होना लाजमी है। प्रदेश में देखें तो 41.1 प्रतिशत आदिवासी परिवार के पास निवास स्थान के अलावा कोई अन्य भूमि नहीं है (एनएसएस)। इनके पास अन्य कृषि योग्य जमीन ना होने तथा वन से भोजन की व्यवस्था पर जबरन रोक लगने की वजह से इन लोगों का पेट भरना बमुष्किल हो रहा है। मजबूरन इन्हें कुछ दिनों के लिये मौसमी व कुछ परिवार को स्थाई रूप से पलायन करना पड़ता हैं। ऐसी स्थिति में भी इन्हें सालभर काम ना मिलना तथा वहां पर इनका शोषण होने की वजह से पूरे 365 दिन अपने व परिवार का पेट की आग बुझाने के लिये काफी नहीं है।

6 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले इस प्रदेश में तकरीबन 20 प्रतिषत आबादी आदिवासियों की हैं। जो दूर-दराज जंगल और पहाड़ों, गांवों में रहते हैं, ये क्षेत्र ऐसे हैं, जहां चिकित्सा, शिक्षा सुविधाओं का अभाव है, और भुखमरी व कुपोषण की स्थिति ज्यादा भयाभय है। जाहिर हैं कि कुपोषण के हालात में इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बेहद कमजोर हो जाती है और ठीक हो जाने वाली आम बीमारी की चपेट में आ जाने पर भी उनकी मौत की संभावना बढ़ जाती है। दूसरा इन आदिवासी इलाकों में इनके लिये जननी सुरक्षा योजना, बाल संजीवनी अभियान, मुस्कान प्रोजेक्ट, शक्तिमान परियोजना, नरेगा, पीडीएस जैसी कई योजनाऐं भुखमरी व कुपोषण के सामने दम तोड़ती ही नजर जाती है।

बाजारवाद का असर इन आदिवासियों की थालियों पर जोर अजमाईस कर चुका हैं। इनके द्वारा परम्परागत रूप से बोई जाने वाली फसलों से रिष्ता तोड़ना इनकी मजबूरी बन गई है। 70 के दशक के पहले तक यह लोग कोदो, कुटकी, सांवलिया, भादली जैसी फसलों को उगाते थे जो कईयों वर्षो तक भी खराब नहीं होती थी। इन मोटे अनाजों में अधिकतम पोषक तत्व होते थे। 70 के दशक के बाद गेहूँ के साथ-साथ सोयाबीन और कपास जैसी नकद फसलों ने अपने पैर जमायें षुरू किया। जिससे आदिवासी किसानों का अपनी परम्परागत फसलें से धीरे धीरे नाता टूट गया। इन लोगों के पास जो बंजर जमीन है उनमें नगद फसल पैदा ही बहुत कम होती है। नगद फसलों के साथ रसायनिक खाद व कीटनाशक के इस्तेमाल होने से जमीन की उर्वरकता व उपज की पोषिटकता खत्म हो गई। जिसके चलते परम्परागत फसलें विलुप्त होने से खाद्य संकट पैदा हो गया कुपोषण को बढ़ावा देने इसकी भी एक बड़ी भूमिका इसकी भी है।

जहां एक और भूख से तड़पती जिन्दगी दम तोड़ रही हैं। वहीं दूसरी और खाद्य संकट के मौजूदा दौर में फसल और खाद्यान्नों की बर्बादी का किस्सा यह है कि एक साल में करीब एक लाख 45 हजार करोड़ रूपये की फसल बर्बाद हो जाती हैं। इसी तरह गोदामों में रख-रखाब के अभाव में प्रत्येक वर्ष लगभग 3 से 4 लाख टन चावल, करीब सवा लाख टन गेहूँ या तो चूहें, कीड़े खा जाते है। या दीमक के हवाले हो जाते है। फसलों व खाद्यान्नों की बर्बादी पर अंतराष्ट्रीय खाद्य संगठन की एक रिपार्ट के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष जितनी फसल बेकार हो जाती है। इसी तरह अगर एफ.सी.आई व सरकार गोदामों में खाद्यान्नों का रख-रखाब अच्छा कर दिया जाए, तो लगभग तीन लाख लोगों का पेट भरा जा सकता हैं भारतीय खाद्य निगम ने वर्ष 2006-07 में यह स्वीकार किया था कि रख-रखाब व उचित भंडारण के अभाव में प्रतिवर्ष 13 करोड़ रूपये के चावल और करीब 90 लाख रूपये का गेहूँ बर्बाद हो गया है। जबकि एक बार अमेरिका पूर्व राष्ट्रपति ने कहा था कि हिन्दुस्तान में लोग ज्यादा खाने लगे हैं इस वजह से खाद्य संकट होने लगा हैं, और हमारे भारत की महानभूतियों ने ताली बजाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। देश भूखमरी व कुपोषण का प्रमुख कारण व्यवस्था में कुपोषित है, इसे सुधारने की जरूरत ज्यादा हैं।

1 COMMENT

  1. जमीनी हकीकत इससे भी ज्यादा खराब है. सरकार जंगल से आदिवासिओं को भगा रही है और आस्थाई ठिकानो पर बसा रही है जहाँ उनके कमाने खाना का जरिया ही नहीं है. जंगल अमीरों राहिसो के ऐशगाह बन गए है और वनों में सदियों से रहने वाले आदिवासी भूखे मर रहे है. जंगल van vibhag और अमीरों राहिसो के liye reserve ho gay है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here