“समान नागरिक संहिता” क्यों आवश्यक है…? 

“समान नागरिक संहिता” (Uniform Civil Code ) का प्रावधान हमारे संविधान में  आरंभ (1950) से ही है और इसे धीरे धीरे लागू करने की अनुशंसा अनुच्छेद 44 में की गयी है । परन्तु मुस्लिम वोट बैंक के लालच में व इमामों के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु जी ने अनेक विवादों के बाद भी “समान नागरिक संहिता”  के प्रावधान को संविधान के मौलिक अधिकारों की सूची से हटा कर “नीति निर्देशक तत्वों” में डलवा दिया। परिणामस्वरुप यह विषय न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो गया और वह अब केवल सरकार को इस क़ानून को बनाने के लिए परामर्श दे सकती बाध्य नहीं कर सकती। अनेक विवादों के बाद भी सुधार के लिए हिन्दुओ के पर्सनल लॉ होने के उपरांत भी 1956 में  हिन्दू कोड बिल ( Hindu Code Bill ) थोपा गया था। परंतु अन्य धर्मावलंबियों के पर्सनल लॉ को यथावत बनाये रखने की क्या बाध्यता थी जबकि उनमे भी आवश्यक सुधारों की आवश्यकता अभी भी बनी हुई  है। ऐसा क्यों नही हो सका इसका उत्तर धर्मनिरपेक्षता के बुर्के में ढक जायेगा।
यह अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि  पिछले 30- 35 वर्षो में 5 -6 बार उच्चतम न्यायालय ने  समाज में घृणा, वैमनस्यता व असमानता दूर करने के लिए समान कानून को लागू करना आवश्यक माना है फिर भी अभी तक कोई सार्थक पहल नही हो पायी । लगभग 15-20  वर्ष पूर्व में किये गए एक सर्वे के अनुसार भी  84 % जनता इस कानून के समर्थन में थी । इस सर्वे में अधिकांश मुस्लिम माहिलाओं व पुरुषो ने भी भाग लिया था । संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी सन  2000 में समान नागरिक व्यवस्था के लिये भारत सरकार को  परामर्श दिया था। क्या यह राष्ट्रीय विकास के लिए अनिवार्य नहीं ? क्या “सबका साथ व सबका विकास ” के लिए एक समान कानून व्यवस्था बनें तो इसमें आपत्ति कैसी ?
विश्व में किसी भी  देश में धर्म के आधार पर अलग अलग कानून नहीं होते सभी नागरिकों के लिए एक सामान व्यवस्था व कानून होते है। केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहां अल्पसंख्यक  समुदायों के लिए पर्सनल लॉ बनें हुए है। जबकि हमारा संविधान अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, लिंग, क्षेत्र व भाषा आदि के आधार पर समाज में भेदभाव नहीं करता और एक समान व्यवस्था सुनिश्चित करता है। परंतु संविधान के अनुच्छेद 26 से लेकर 31 तक से कुछ  ऐसे व्यवधान है जिससे हिंदुओं के सांस्कृतिक -शैक्षिक-धार्मिक संस्थानों व धार्मिक ट्रस्टो को विवाद की स्थिति में शासन द्वारा अधिग्रहण किया जाता आ रहा है । जबकि अल्पसंख्यकों के संस्थानों आदि में विवाद होने पर शासन कोई हस्तक्षेप नही करता….यह विशेषाधिकार क्यों ? इसके अतिरिक्त एक और विचित्र व्यवस्था संविधान में की गई कि  अल्पसंख्यको को अपनी धार्मिक शिक्षाओं को पढ़ने की पूर्ण स्वतंत्रता रहेगी । जबकि संविधान सभा ने  बहुसंख्यक हिन्दूओं के लिए यह धारणा मान ली कि वह तो अपनी धर्म शिक्षाओं को पढ़ाते ही रहेंगे। अतः हिन्दू धर्म शिक्षाओं को पढ़ाने को संविधान में लिखित रुप में प्रस्तुत नही किये जाने का दुष्परिणाम आज तक हिन्दुओं को भुगतना पड़ रहा है।
हमारे संविधान में अल्पसंख्यकों को एक ओर तो उनको अपने धार्मिक कानूनों (पर्सनल लॉ) के अनुसार पालन करने की छूट है और दूसरी ओर संवैधानिक अधिकार भी बहुसंख्यकों के बराबर ही मिले हुए है। फिर भी विभिन्न राष्ट्रीय योजनाओं और नीतियों जैसे परिवार नियोजन, पल्स पोलियो, राष्ट्रगान, वन्देमातरम् आदि  पर विशेष सम्प्रदाय का विपरीत व्यवहार किसी से छुपा नहीं है । परंतु पर्सनल लॉ के अन्तर्गत  उत्तराधिकार, विवाह, तलाक़ आदि में मुस्लिम महिलाओं का उत्पीड़न अमानवीय अत्याचार कहें तो गलत नहीं होगा।
यह कैसी मुस्लिम धार्मिक कुप्रथा है जिसमे तीन बार तलाक़ की अभिव्यक्ति के अनेक रुपो में से किसी भी एक प्रकार से एक पुरुष अपनी पत्नी को तलाक दे देता है। परंतु उस पीड़ित मुस्लिम महिला जिससे निकाह के समय तीन बार “कुबूल है- कुबूल है -कुबूल है” कहलवाया जाता है , उसकी तलाक़ में कोई सहमति नहीं ली जाती तो क्या यह एकपक्षीय अन्याय नहीं हुआ ?  किसी भूल सुधार व पश्चाताप की स्थिति में (तलाक़ होने के बाद)  पुनः अपने पूर्व पति से निकाह के लिए हलाला जैसी व्यवस्था व्यभिचार को बढ़ावा देकर मानवीय संवेदनाओं का शोषण व चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा ही है।अनेक बार हलाला की अत्यंत निंदनीय व महिला का मानसिक व शारीरिक उत्पीड़न करने वाली रस्में पूरी करने के बाद भी पूर्व पति अपनी तलाक़शुदा पत्नी को पुनः स्वीकार नही करके जलालत की सारी सीमायें लांघ देता है। इसप्रकार सदियों से मुस्लिम महिलाओं को आत्मग्लानि भरा जीवन जीने को विवश होना पड़ता है। मुस्लिम पुरुषों की ऐसी अधिनायकवादी सोच के कारण सामान्यतः पीड़ित मुस्लिम महिलायें “मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड” को  “मुस्लिम मर्द पर्सनल लॉ बोर्ड” कहती है। अधिकाँश कट्टरपंथी व सेक्युलर कहते है कि सरकार को धार्मिक मामलो में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। परंतु सरकार का अपने नागरिको को ऐसे अमानवीय अत्याचारों से बचाने का संवैधानिक दायित्व तो है ।
आज के वैज्ञानिक युग में जब आधुनिक समाज चारों ओर अपनी अपनी प्रतिभाओं के अनुसार निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है तो उस परिस्थिति में तलाक़, हलाला व बहुविवाह जैसी अमानवीय कुरीतियों को प्रतिबंधित करना ही होगा। तभी मुस्लिम महिलाओं को व्याभिचार की गंदगी से बचा कर उनके साथ न्याय हो सकेगा और वे एक सामान्य जीवन सम्मान से जी सकेगी ? इसके विरुद्ध  उच्चतम न्यायालय में  एक पीड़ित मुस्लिम महिला शायरा बानो का विवाद विचाराधीन है । आजकल  जहां प्रिंट मीडिया में नित्य बड़े बड़े लेख छप रहें है वही टीवी न्यूज चैनलो पर भी तीन तलाक़ पर बड़ी बड़ी बहसें चल रही है।
परंतु तीन तलाक़ के साथ ही  “समान नागरिक संहिता ” का विरोध करने वाले कट्टरपंथी मुल्लाओं को इन धार्मिक कूरीतियों के प्रति कोई आक्रोश नहीं आता ? अगर उनकी धार्मिक पुस्तकों में ऐसी व्यवस्था है तो उसमें संशोधन करके उन्हें अपने समाज को इससे बाहर निकालना चाहिये। “समान नागरिक संहिता” से इस कुप्रथा का कोई संबंध नहीं फिर भी मुल्लाओं ने मुस्लिम समाज में इसका एक ऐसा भय बना रखा है मानो की भविष्य में उनके शवों को भी दफनाने की प्रथा के स्थान पर कही जलाने की व्यवस्था न हो जाय ? इस प्रकार के अज्ञानता से भरे रुढीवादी समाज को “अपना विकास और सबका साथ” तो चाहिए परंतु उसको ठोस आधार देने वाली “समान नागरिक संहिता” स्वीकार नहीं,  क्यों ? यह कहां तक उचित है कि राष्ट्र में सुधारात्मक नीतियों का विरोध केवल इसलिए किया जाय कि कट्टरपंथी मुल्लाओं की आक्रमकता बनी रहें और अमानवीय अत्याचार होते रहें ? जबकि मुस्लिमों को  देश में ढोंगी धर्मनिरपेक्षता के बल पर अनेक लाभकारी योजनाओं से मालामाल किया जाता आ रहा है। फिर भी वे अपनी दकियानूसी धार्मिक मान्यताओं से कोई समझौता तो दूर उसमें कोई दखल भी सहन नहीं करना चाहते। अनेक प्रकार से अल्पसंख्यकों को निरंतर पोषित करने की नीतियों के लिए सरकार पर दबाव बनाये रखने की मुस्लिम मानसिकता में कभी कोई परिवर्तन होगा ? क्या यह आक्रामकता उनकी भारत को दारुल-इस्लाम बनाने की वर्षो पुरानी घिनौनी महत्वाकांक्षा की ओर एक संकेत तो नहीं ? कुछ मुल्लाओं और मौलवियों ने तलाक़, हलाला व बहुविवाह आदि में संशोधन व सुधार की चर्चाओं में  ऐसा होने पर  देश में गृह युद्ध जैसी स्थिति होने की चेतावनी भी दी है। क्या ऐसी धमकी देना राष्ट्रद्रोह नहीं ?
यहा एक और विचारणीय बिंदु  यह भी है कि मुस्लिम समुदाय ने अपराधों पर अपने धार्मिक कानून शरिया को अलग करके भारतीय दंड संहिता को ही अपनाना उचित समझा है। क्योंकि शरिया में अपराधों की सजा का प्रावधान अत्यधिक कष्टकारी है। फिर भी “समान नागरिक संहिता” का विरोध करना इन कट्टरपंथियों का जिहादी जनून है ।
“समान नागरिक संहिता” ऐसी होनी चाहिये जिसका मुख्य आधार केवल भारतीय नागरिक होना चाहिये और कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म, जाति व सम्प्रदाय का हो सभी को सहज स्वीकार हो। जबकी विडम्बना यह है कि एक समान कानून की मांग को साम्प्रदायिकता का चोला पहना कर हिन्दू कानूनों को अल्पसंख्यकों पर थोपने के रुप में प्रस्तुत किया जाने का कुप्रचार किया जा रहा है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1947 में हुए धर्माधारित विभाजन के पश्चात भी हम आज लगभग 70 वर्ष बाद भी उस विभाजनकारी व समाजघाती सोच को समाप्त न कर सकें बल्कि उन समस्त कारणों को अल्पसंख्यकवाद के मोह में फंस कर प्रोत्साहित ही करते आ रहे है। हमारे मौलिक व संवैधानिक अधिकारो व साथ में पर्सनल लॉ की मान्यताए कई बार विषम परिस्थितियां खड़ी कर देती है , तभी तो उच्चतम न्यायालय  “समान नागरिक संहिता” बनाने के लिए सरकार से बार-बार आग्रह कर रहा है।
“राष्ट्र सर्वोपरि”  की मान्यता मानने वाले सभी यह चाहते है कि एक समान व्यवस्था से राष्ट्र स्वस्थ व समृद्ध होगा और भविष्य में अनेक संभावित समस्याओं से बचा जा सकेगा। यह भी कहना उचित ही होगा कि भविष्य में असंतुलित जनसंख्या अनुपात के संकट से भी बचने के कारण राष्ट्र का धर्मनिरपेक्ष स्वरुप व लोकतांन्त्रिक व्यवस्था भी सुरक्षित रहेगी और जिहादियों का बढ़ता दुःसाहस भी कम होगा ।
अब सरकार का दायित्व है कि इसको लाने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ संविधान की मूल आत्मा व सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के आधार पर एक प्रारुप तैयार करके राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक परिचर्चा के माध्यम से इस कानून का निर्माण करवायें। निःसंदेह  आज देश की एकता, अखंडता, सामाजिक व साम्प्रदायिक समरसता के लिए  “समान नागरिक संहिता” को अपना कर विकास के रथ को गति देनी होगी।

विनोद कुमार सर्वोदय

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